१
कौन करै बस वस्तु कौन यहि लोक बडो त्र्प्रति?
को साहस को सिन्धु कौन रज लाज धरे मति?
को चकवा को सुखद बसै को सकल सुमन महि?
त्र्प्रष्ट सिध्दि नव निध्दि देत माँगे को सो कहि?
जग बूभ्क्त उत्तर देत इमि, कवि भूषन कवि कुल सचिव । सच्छिन नरेस सरजा सुभट साहिनंद मकरंद सिव ॥
कवित्त-मनहरण
२
साजि चतुंरग वीर रंग में तुरंग चढि,
सरजा सिवाजी जंग जीतन चलत है । ’भूषण’ भनत नाद विहद नगारन के, नदी नद मद गैबरन के रलत है ॥
ऎल फ़ैल खैल-भैल खलक में गैल गैल, गजन की ठेल पेल सैल उसलत है । तारा सो तरनि धूरि धारा में लगत जिमि, थारा पर पारा पारावार यों हलत है ॥
३
बाने फ़हराने घहराने घणटा गजन के, नाहीं ठहराने राव राने देस देस के । नग भहराने ग्रामनगर पराने सुनि, बाजत निसाने सिवराज जू नरेस के ॥
हाथिन के हौदा उकसाने कुंभ कुंजर के, भौन को भजाने त्र्प्रलि छूटे केस के । दल के दरारे हुते कमठ करारे फ़ूटे, केरा के से पात बिहराने फ़न सेस के ॥
४
प्रेतिनी पिसाचऽरु निसाचर निसाचरिहु, मिलि मिलि त्र्प्रापुस में गावत बधाई हैं । भैरौ भूत प्रेत भूरि भूधर भयंकर से, जुत्थ जुत्थ जोगिनी जमात जुरि त्र्प्राई हैं ॥
किलकि किलकि कै कुतूहल करति काली, डिम डिम डमरु दिगम्बर बजाई है । सिवा पूँछै सिवा सौ समाज त्र्प्राजु कहाँ चली, काहू पै सिवा नरेस भॄकुटी चढाई है ॥
५
वद्दल न होंहि दल दच्छिन घमंड माँहिं, घटा हू न होहिं दल सिवाजी हँकारी के । दामिनी दमंक नाहिं खुले खग्ग वरिन के, वीर सिर छाप लखु तीजा त्र्प्रसवारी के ॥
देखि देखि मुगलों की हरमैं भवन त्यागैं, उभ्तकि उठैं बहूत बयारी के । दिल्ली मति भूकी कहैं बात घन घोर घोर, बाजत नगारे जे सितारे गढ घारी के ॥
६
बाजि गजराज सिवराज सैन साजत ही, दिल्ली दिलगीर दसा दीरघ दुखन की । तानियाँ न तिलक सुथनियाँ पगनियाँ न, घामैं घुमरातीं छोडि सेजियाँ सुखन की ॥
’भूषन’ भनत पति बाहँ बहियाँन तेऊ, छाहियाँ छबीली ताकि रहियाँ रुखन की । बालियाँ बिथुरि जिमि त्र्प्रालियाँ नलिन पर, लालियाँ मुगलानियाँ मुखन की ॥
७
कत्ता की कराकनि चकत्ता को कटक काटि, कीन्हीं सिवराज वीर त्र्प्रकह कहानियाँ । ’भूषन’ भनत तिहुँ लोक में तिहारी धाक, दिल्ली त्र्प्रौ बिलाइति सकल बिललानियाँ ॥
त्र्प्रागेर त्र्प्रागरन है फ़ाँदती, कगारन छवै, बाँघती न बारन मुखन कुम्हिलानियाँ । कीबी कहैं कहा त्र्प्रौगरीबी गहै भागी जाहिं, बीबी गहैं सूनथी सु नीबी गहै रानियाँ ॥
८
ऊँचे घोर मंदर के त्र्प्रन्दर रहन वारी, ऊँचे घोर मंदर के त्र्प्रन्दर राहाती हैं । कंद मूल भोग करैं कन्द मूल भोग करैं, तीनि बेर खातीं सो तो तीनि बेर खाती हैं ॥
भूषन सिथिल तेब बिजन डुलाती हैं । ’भूषन’ भनत सिवराज वीर तेरे त्रास, नगन जडातीं तेब नगन जडाती हैं ॥
९
उतरि पलँग ते न दियो हैं धरा पैं पग, तेऊ सग बग निसि दिन चली जाती हैं । त्र्प्रति त्र्प्रकुलातीं मुरभ्कातींन छिपातीं गात, बात ना सोहातीं बोलैं त्र्प्राति त्र्प्रनखाती हैं । ’भूषन’ मनत सिंह साहि के सपूत सिवा, तेरी धाक सुने त्र्प्ररि नारी बिललाती हैं । कोऊ करैं घाती कोऊ रोतींपाटि छाती धरैं, तीनि बरे खातीं ते वै बीनि बेर खाती हैं ॥
१०
त्र्प्रन्दर ते निकसीं न मन्दिर को देख्यो द्वार, बिनरथ पथ ते उघोर पाँव जाती हैं । हवा हू न लागती ते हवा ते विहाल भईं, लाखन की भीरि में सम्हारतीं न छाती हैं ॥
’भूषन’ भनत सिवराज तेरी धाक सुनि, हयादारी चीर फ़ारि मन भ्कुँभ्कलाती हैं । ऎसी परीं नरम हरम बादसाहन की, नासपाती खातीं ते बनासपाती खाती हैं ॥
११
त्र्प्रतर गुलाब रसचोबा घंनसार सब, सहज सुबास की सुरति बिसराती हैं । पलं भरि पलँग ते भूमि न धरति पाँव, भूलीं खान पान फ़िरैं बन बिललाती हैं ॥
’भूषन’ भनत सिवराज तेरी धाक सुनि, दारा हार बार न सम्हारें त्र्प्रकुलाती हैं । ऎसी परी नरभ हरम बादसाहन की, नासपाती खातीं ते बनासपातीं खाती हैं ॥
१२
सोंधे को त्र्प्रधार किसमिस जिनको त्र्प्रहार, चारि को सो त्र्प्रंक लंक चन्द सरमाती हैं । ऎसी त्र्प्रारिनारी सिवराज वीर तेरे त्रास, पायन में छालें परे कंद मूल खाती हैं । ग्रीषम तपनि एती तपती न सुनी कान, कंज कैसी कली बिनु पानी मुरभ्काती है । तोरि तोरि त्र्प्राछे से पिछौरा सों निचोरि मुख, कहै त्र्प्रब कहाँ पानी मुकतौ में पाती हैं ॥
१३
साहि सिरताज त्र्प्रौ सिपाहिन में पातसाह, त्र्प्रचंल सु सिंधु केसे जिनके सुभाव है । ’भूषन" भनत परी सस्त्र रन सिवा धाक, काँपत रहत न गहत चिंत चाव हैं ॥
त्र्प्रथह विमल जम कालिन्दी के तट केते, परे युध्द विपति के मार उमराव हैं । नाव भरि बेगम उतारै बाँदी डोंगा भरि, मक्का मिस साह उतरत दरियाव हैं ॥
१४
किबले के ठौर बाप बादसाह साहिजहाँ, ताको कैद कियो मानो मक्के त्र्प्रागि लाई है । बडो भाई दारा वाको पकरि के कैद कियो, मेहेरहु नाँहिं माको जायो सगो भाई है ॥
बन्धु तौ मुरादबक्स बादि चूक करिवे को, बीच दै कुरान खुदा की कसम खाई है । ’भूषन’ सुकवि कहै सुनो नवरंगजेब, एते काम कीन्हे फ़िरि पातसाही पाई है ॥
१५
हाथ तसबीह लिए प्रात उठै बंदगी को, त्र्प्रात ही कपट रुप कपट सुजप के । त्र्प्रागरे में जाय दारा चोंक में चुनाय लीन्हों, छत्र हू छिनायो मनों मरे बूढे बप के ॥
कीन्हों है सगोत घात सो मैं नाहिं कहौ फ़ेरि, पील पै तुरायो चार चुगुल के गप के । ’भूषन’ भनत छरछंदी मतिमंद महा, सौ सौ चूहे खाय कै बिलारी बैठी तप के ॥
१६
कैयक हजार जहाँ गुर्जबरदार ठाडें, करि कै हुस्यार नीति पकरि समाज की । राजा जसवंत को बुलाय के निकट राखे, तेऊ लखैं नीरे जिन्हैं लाज स्वामि-काज की ॥ ’भूषन’ तबहुँ ठठकत ही गुसुकखाने, सिंह लौं भ्कपट गुनि साहि महाराज की । हटकि हथ्यार फ़ड बाँधि उमरावन को, कीन्हीं तब नौरंग ने भेंट सिवराज की ॥
१७
सवन के ऊपर ही ठाढो रहिवे के जोग, ताहि खरो कियो जाय-जारिन के नियरे । जानि गैरमिसिल गुसैल गुसा धारि उर, कीन्हीं ना सलाम न बचन बोले सियरे ॥
’भूषन’ भनत महावीर बलकन लाग्यो, सारी पातसाही के उडाय गये जियरे । तमकते लाल भुख सिवा को निरखि भये, स्याह मुख नौरंग सिपाह मुख पियरे ॥
१८
राना भौ चमेली त्र्प्रौर बेला सब राजा भए, ठौर ठौर रस लेत नित यह काज है । सिगरे त्र्प्रमीर त्र्प्रानि कुन्द होत घर घर, भ्रमत भ्रमत जैंसे फ़ूलन की साज है ॥
’भूषन’ भनत सिवराज वीर तेंही देस, देशन में राखी सब दच्छिन की लाज है । त्यागे सदा षटपद-पद त्र्प्रनुमानि यह, त्र्प्रलि नवरंगजेब चम्पा सिवराज है ॥
१९
कूरम कमल कमधुज हैं कदम फ़ूल, गौर है गुलाब राना केतकी विराज है । पाँडुरी पँवार जुही सोहत है चन्द्रावल, सरस बुँदेला सो चमेली साज बाज है ॥
’भूषन’ भनत मुचुकुन्द बडगूंजर है, बघेले बसन्त सब कुसुम समाज है । लेइ, रस एतेन को बैठि न सकत त्र्प्रहै, त्र्प्रलि नवरंगजेब चम्पा सिवराज है ॥
२०
देवल गिरावते फ़िरावते निसान त्र्प्रली, ऎसे डूबे राव सबी गए लबकी । गौरा गनपति त्र्प्राप त्र्प्रौरन को देत ताप, त्र्प्रापनी हीअ बारि सब मारि गए दबकी ॥
पीरा पयगम्बरा दिगम्बरा दिखाई देत, सिध्द की सिघाई गई बात रबकी । कासिहु की कला जाती मथुरा मसीत होती, सिवाजी न होतो तो सुनति होती सब की ॥
२१
साँच को न मानै देवी देवता न जानै त्र्प्ररु, ऎसी उर त्र्प्रानै मैं कहत बात जब की । त्र्प्रौर पातसाहन के हाती चाह हिन्दुन की, त्र्प्रकबर साहजहाँ कहै साखि तब की ॥
बब्बर के तब्बर हुमायूँ हद्द बाँधि गए, दोनों एक करी ना कुरान वेद ढब की । कासिहु की कला जाती मथुरा मसीत होती, सिवाजी न होतो तो सुनति होती सब की ॥
२२
कुंभकर्न त्र्प्रसुर त्र्प्रौतारी त्र्प्ररंगजेब, कीन्हीं कत्ल मथुरा दोहाई फ़ेरी रब की । खोदि डारे देवी देव सहर मुहल्ला वाँके, लाखन तरुक कीन्हे छूटि गई तबकी ॥
’भूषन’ भनत भाग्यो कासीपति विश्वनाथ, त्र्प्रौर कौन गिनती मैं भूली गति भव की । चारों वर्न धर्म छोडि कलमा नेवाज पढि, सिवाजी न होतो तो सुनति होति सब की ॥
२३
दावा पातसाहन सों कीन्हों सिवराज वीर, जेर कीन्हों देस हद्द बाँध्यो दरबारे से । हठी मरहठी तामें राख्यो न मवास कोऊ, छीने हथियार डोलें बन बनजारे से । त्र्प्रामिष त्र्प्रहारी माँस हारी दै दै तारी नाचें खाँडे तोड किरचैं उडाये सब तारे से । पील सम डील जहाँ गिरि से गिरन लागे, मुंड मतवारे गिरें भ्तुंड मतवारे से ॥
२४
छूटत कमान त्र्प्रौर तीर गोली बानन के, मुसकिल होती मुरचान हू की त्र्प्रोट में । ताही समै सिवराज हाँक मारि हल्ला कियो, दावा बाँधि परा हल्ला वीर जोट में ॥
’भूषन’ भनत तेरी हिम्मति कहाँ लों कहों, किम्मति इहाँ लगि है जाकी भट भ्तोट में । ताव दै दै मूँछन कँगूरन पै पाँव दै दै, त्र्प्ररि मुख घाव दै दै कूदे परैं कोट में ॥
२५
उतै पातसाहजू के गजन के ठट्ट छुटे, उमडि घुमडि मतवारे घन कारे हैं । इतै सिवराजजू के छूटे सिंहराज त्र्प्रौ, बिदारे कुंभ करिने के चिक्करत भारे है ॥
फ़ाजें सेख सैयद मुगुल त्र्प्रौ पठानन की, मिलि हिन्दुवान की विहद तरवारि राखि, कैयो बार दिली के गुमान भ्कारि डारे हैं ॥
२६
जीत्यो सिवराज सलहेरि को समर सुनि, सुनि त्र्प्रसुरन के सुसीने घरकत है । देवलोक नागलोक नरलोक गावै जस, त्र्प्रजहूलों परे खग्ग दाँत खरकत है ॥
कंटक कटक काटि कीट से उडाय केतें, ’भूषन’ भनत मुख मोरे सरकत है । रनभूमि लेटे त्र्प्रघकटे फ़रलेटे परे, रुघिर लपेटे पठनेटे फ़रकत है ॥
२७
केतिक देस दल्यो दल के बल दच्छिन चंगुल चांपि कै चाख्यो । रुप गुमान हरयो गुजरात को सुरत को रस चूँसि कै नाख्यो ॥
पंजन पेलि मलिच्छ मले सब सोई बच्यो जेहि दीन भाख्यो । सो रंग है सिवराज बली जेहि नौरँग में रँग एक नर राख्यो ॥
२८
सूबा निरानँद बादर खान गे लोगन बूभ्कत ब्यौंत बखानो । दुग्ग सबै सिवराज लिये घरि चारु विचार हिये यह त्र्प्रानो ॥
’भूषन’ बोलि उठे सिगरे हुतो पूना में साइतखान को थानो । जाहिर है जग में जसवंत लियो, गढसिंह में गीदर बानो ॥
२९
जोरि कर जैहै जुमिला हू के नरेस पर, तोरि त्र्प्ररि खंड खंड सुमट समाज पै । ’भूषन’ त्र्प्रसाम रुम बलख बुखारे जैहैं, चीन सिलहट तरि जलधि जहाज पै ॥
सब उमरावन की हठ कूरताई देखो, कहैं नवरंगजेब साहि सिरताज पै । भीख माँगि खैहै बिन मनसब रैहैं पै न, जैहैं हजरत महाबली सिवराज पै ॥
३०
चन्द्रावल चूर करि जावली जपत कीन्हों, मारे सब भूप त्र्प्रौ सँहारे पुर चाय कै । ’भूषन’ भनत तुरकान दलथंम काटि, त्र्प्रफ़जल मारि डारे तबल बजाय कै ॥
एदिल सों बेदिल हरम कहै बार बार, त्र्प्रब कहा सोबों सुख सिंहहिं जगाय कै । भेजना है भेजौ सो रिसालैं सिवराजजू की, बाजी करनालैं परनालैं पर त्र्प्राय कै ॥
३१
मालती सवैया
साजि चमू जनि जाहु सिवा पर सोबत सिंह न जाय जगावो । तासों न जंग जुरौ न भुजंग महाविष के मुख में कर नावो ॥
’भूषन’ भाषत बैरि बधू जनि, एदिल त्र्प्रौरँग लों दुख पावो । तासु सुलाह कि राह तजौ मति नाह दिवाल की राह म धावो ॥
३२
विज्ञपूर बिदनूर सूर सर घनुष न संघहिं । मंगल बिनु मल्लारि नारि घम्मिल नहिं बाँघहि ॥
मंगल बिनु मल्लारि नारि घम्मिल नहिं बाँघहिं ॥
गिरत गब्भ कोटै गरब्भ चिंजी चिंजा डर । चालकुडं दलकुंडा संका उर ॥
३३
त्र्प्रफ़जल खान गहि जाने मयदान मारा, बीजापुर गोलकुंडा मारा जिन त्र्प्राज है । ’भूषन’ भनत फ़रासीस त्यों फ़िरंगी मारि, हवसी तुरुक डारे उलट जहाज है ॥
देखत में रुसुतमखाँ को जिन खाक किया, सालति सुरति त्र्प्राजु सुनीं जो त्र्प्रवाज है । चोंकि चोंकि चकता कहत चहुँघाते यारो, लेत रहो खबरि कहाँ लों सिवराज है ॥
३४
फ़िरंगाने फ़िकिरि त्र्प्रौ हदसनि हवसाने, ’भूषन’ भनत कोऊ सोबत न घरी है । बीजापुर बिपति बिडरि सुनि भाजे सब, दिल्ली दरगार बीच परी खर भरी है ॥
राजन के राज सब साहिन के सिरताज, त्र्प्राज सिवराज पातसाही चित घरी है । बलख बुखारे कसमीर लों परी पुकार, धाम धाम धूम धाम रुम साम परी है ॥
३५
गरुड को दावा सदा नाग के समूह पर, दावा नाग जूह पर सिंह सिरताज को । दावा पुरुहत को पहारन के कुल पर, पच्छिन के गोल पर दावा सदा बाज को ॥
’भूषन’ त्र्प्रखंड नवखंड महिं मंडल में, तम पर दावा रवि किरन समाज को । पूरब पछाँह देस दच्छिन ते उत्तर लों, जहाँ पातसाही तहाँ दावा सिवराज को ॥
३६
दारा की न दौर यह रार नहिं खजुवे की, बाँधिवो नहीं है कैधों मीर सहवाल को । मठ विस्वनाथ को न बास ग्राम गोकुल को, देव को न देहरा न मंदिर गोपाल को ॥
गाढे गढि लीन्हे त्र्प्रौर बैरी कतलाम कीन्हे, ठौर ठौर हासिल उगाहत है साल को । बूडति है दिल्ली सो सम्हारे क्यों न दिल्ली पति, धक्का त्र्प्रानि लाग्यो सिवराज महाकाल को ॥
३७
गढन गँजाय गढधरन सजाय करि, छाँडे केते धरम दुवार दै भिखारी से । साहि के सपूत पूत बीर सिवराज सिंह, केते गढधारी किये बन बनचारी से ॥
’भूषन’ बखानै केते दीन्हे बंदीखाने सेख, सैयद हजारी गहे रैयत बजारी से । महता से मुगुल महाजन से महाराज, डाँडि लीन्हे पकरि पठान पटचारी से ॥
३८
सक्र जिमि सैल पर त्र्प्रर्क तम फ़ैल पर, बिधन की रैल पर लंबोदर लेखिये । राम दसकंध पर भीम जरासंध पर, ’भूषन’ ज्यों सिन्धु पर कुम्भज बिसेखिये ॥
हर ज्यों त्र्प्रनंग पर गरुड, भुजंग पर, कौरव के त्र्प्ररंग पर पारथ ज्यों पोखिये । बाज ज्यों बिहंग पर सिंह ज्यों मतंग पर, म्लेच्छ चतुरंग पर सिवराज देखिये ॥
३९
वारिधि के कुंभ भव घन बन दावानल, तरुनि तिमिर हू के किरन समाज हौ । कंस के कन्हैया कामघेनु हू के कंटकाल, कैटभ के कालिका बिहंगम के बाज हौ ॥
’भूषन’ भनत जम जालिम के सचीपती, पन्नग के कुल के प्रबल पच्छिराज हौ । रावन के राम कार्तबीज के परसुराम, दिल्लीपति दिग्गज के सेर सिवराज हौ ॥
४०
दर बर दौरि करि नगर उजारि डारि, कटक कटायो कोटि दुजन दरब की । जाहिर जहान जंग जालिम है जोराबर, चलै न कछूक त्र्प्रब एक राजा रब की ॥
सिवराज तेरे त्रास दिल्ली भयो भुवकम्प, थर थर काँपति विलायति त्र्प्ररब की । हालति दहलि जात काबुल कँधार वीर, रोष करि काढै समसेर ज्यों गरब की ॥
४१
सिवा की बडाई त्र्प्रौ हमारी लघुताई क्यों कहत बार बार कहि पातसाह गरजा । सुनिये खुमान! हरि तुरुक गुमान महिदेवन जेंवायो कवि भूषन यों सरजा । तुम वाको पाय कै जरुर रन छोरी वह रावरे वजीर छोरि देत करि परजा । मालुम तिहारो होत याही में निवारोरुन, कायर सों कायर त्र्प्रौ सरजा सों सरजा ॥
४२
कोट गढ ढाहियतु एकै पातसाहन के, एकै पातसाहन के देस दाहियतु है । ’भूषन’ भनत महाराज सिवराज एकै, साहन की फ़ौज पर खग्ग बाहियतु है ॥
क्यों न होंहि बैरिन की बौरी सुनि बैरि बधू, दौरनि तिहारे कहौ क्यों निवाहियतु है । रावरे नगारे सुनि बैर वारे नगरनि, नैन वारे नदन निघारे चाहियतु है ॥
४३
चकित चकत्ता चोंकि चोंकि उठै बार बार, दिल्ली दहसति चितै चाह करषति है । बिलखि बदन बिलखात बिजैपुर पति, फ़िरत फ़िरंगिन की नारी फ़रकति है ॥
थर थर काँपत कुतुबसाहि गोलकुंडा, हहरि हबस भूप भीर भरकति है । राजा सिवराज के नगारन की धाक सुनि, केते पातसाहन की छाती दरकति है ॥
४४
मोरँग१ कुमाऊँवौ पलाऊँ बाँधे एक पल, कहाँ लो गनाऊँ जेऽव भूपन के गोत हैं । ’भूषन’ भनत गिरि बिकट निवासी लोग, बावनी२ बवंजा३ नवकोटिं४ धुंघ जोत है ॥
४५
दुग्ग पर दुग्ग जीते सरजा सिवाजी गाजी, उग्ग नाचे, डग्ग पर रुनड मुनड फ़रके । ’भूषन’ भनत बाजे जीत के नगारे भारे, सारे करनाटी भूप सिंहल को सर के ॥
मारे सुनि सुभट पनारे वारे उदभट, तारे लगे फ़िरन सितारे गढघर के । बीजापुर बीरन के गोलकुंडा धीरन के, दिल्ली उर मीरन के दाडिम से दर के ॥
४६
मालवा उजैन भनि ’भूषन’ भेलास ऎन, सहर सिरोज लों परावने परत हैं । गोंडबानो तिलँगानो फ़िरँगानो करनाट, रुहिलानो रुहिलन हिये हहरत हैं ॥
साहिके सपूत सिवराज तेरी धाक सुनि, गढपति बीर तेंऊ धीर न धरत हैं । बीजापुर गोलकुंडा त्र्प्रागरा दिली के कोट, बाजे बाजे रोज दरबाजे उघरत हैं ॥
४७
मारि कर पातसाही खाकसाही कीन्ही जिन, जेर कीन्हों जोर सों लै हद सब मारे की । खिसि गई सेखी फ़िसि गई सूरताई सब, हिसि गई हिम्मति हजारों लोग सारे की ॥
बाजत दमामे लाखों घोंसा त्र्प्रागे धहरात, गरजत मेघ ज्यों बरात चढै भारे की । दूलहो सिवाजी भयो दच्छिनी दमामे वारे, दिल्ली दुलहिनि भई सहर सितारे की ॥
४८
डाढी के रखैयन की डाढी सी रहति छाती, बाढी मरजाद जस हद्द हिन्दुवाने की । कढि गई रैयति के मन की कसक सब, मिटि गई ठसक तमाम तुरुकाने की ॥
’भूषन’ भनत दिल्लीपति दिल धक धक, सुनि सुनि धाक सिवराज मरदाने की । मोटी भई चनाडी विनु चोटी के चबाय सीस, खोटी भई सम्पति चकत्ता के घराने की ॥
४९
जिन फ़न फ़ुतकार उडत पहाड भार, कुरम कठिन जनु कमल विदलिगो । विष जाल ज्वालामुखी लवलीन उगलि गो ॥
कीन्हों जेहिपान पयपान सों जहान सब, कोलहू उछलि जल सिंधु खलभलिगो । खग्ग खगराज महाराज सिवराज जू को, त्र्प्रखिल भुजंग मुगलद्दलि निगलिगो ॥
५०
राखी हिन्दुवानी हिन्दुवान कोतिलकराख्यो, त्र्प्रस्मॄति पुरान राखे वेद विधि सुनी में । राखी रजपूती राजधानी राखी राजन की, घरा में घरम राख्यो गुन गुनी में ॥
’भूषन’ सुकवि जीति हद्द मरहद्दन की, देस देस कीरति बखानी तब सुनी मैं । साहि के सपूत सिवराज समसेर तेरी, दिल्ली दल दाबि कै दिवाल राखी दुनी में ॥
५१
वेद राखे विदित पुरान राखे सारयुत, राम नाम राख्यो त्र्प्रति रसना सुघर में । हिन्दुन की चोटी रोटी राखी है सिपाहिन की, काँधे में जनेऊ राख्यो माला गर में ॥
मीडि राखे मुगुल मरोडि राखे पातसाह, बैरी पीसि राखे बरदान राख्यो कर में । राजन की हद्द राखी तेग बल सिवराज, देव राखे देवल स्वधर्म राख्यो घर में ॥
५२
सपत गनेस चारो ककुम गजेस कोल, कच्छप दिनेस घरै घरनि त्र्प्रखंड को । पापी घाल घरम सुपथ चालें मारतनाड, करतार प्रन पालैं प्रानिन के चंड को ॥
’भूषन’ भनत सदा सरजा सिवाजी गाजी, म्लेच्छन को मारै करि कीरति घमंड को । जग काजवारे निहचिंत करि डारे सब, भोर देत त्र्प्रासिस तिहारे भुजदनाड को ॥