भीमदशक - ॥ समास नववां - उपदेशनाम ॥
३५० वर्ष पूर्व मानव की अत्यंत हीन दीन अवस्था देख, उससे उसकी मुक्तता हो इस उदार हेतु से श्रीसमर्थ ने मानव को शिक्षा दी ।
॥ श्रीरामसमर्थ ॥
पहले कर्म का प्रसंग । कर्म करना चाहिये चांग । कदाचित रहा व्यंग । फिर प्रत्यवाय' होता ॥१॥
इस कारण कर्म आरंभ किया । कुछ यथासांग हुआ । जहां जहां अंतर पड़ा । वहां हरिस्मरण करें ॥२॥
फिर वह हरि है कैसा । विचार देखें जरा सा । संध्या के पूर्व जगदीश का । चौबीस नामों से स्मरें ॥३॥
चौबीसनामी सहस्रनामी । अनंतनामी वह अनामी । है कैसा वह अंतर्यामी । विवेक से पहचानें ॥४॥
ब्राह्मण स्नानसंध्या कर आया । फिर वह देवतार्चन को बैठा । यथासांग उसने पूजन किया । प्रतिमादेव का ॥५॥
नाना देवों की प्रतिमा । लोग पूजते धरकर प्रेमभावना । जिसकी प्रतिमा वह परमात्मा । कैसा है ॥६॥
ऐसे पहचानना चाहिये। पहचानकर भजन कीजिये । जैसे साहब को नमस्कार करते । पहचानने के बाद ॥७॥
वैसा ही परमात्मा परमेश्वर । अच्छे से पहचानें देखकर विचार । तभी कर पाओगे पार । भ्रमसागर का ॥८॥
पूजा स्वीकारती प्रतिमा देह में आता अंतरात्मा । अवतारी भी निजधामा । आकर गये ॥९॥
परंतु वे निजरूप में रहते । वह निजरूप ही जगज्जोति । सत्त्वगुण उसे ही कहते । ज्ञातृत्वकला ॥१०॥
उस कला के गर्भ में । कोटि कोटि देव रहते । ये अनुभव की बातें । प्रत्यय से देखें ॥११॥
देहपुर में ईश । इसलिये उसे नाम पुरुष । जगत् में जगदीश । वैसे पहचानें ॥१२॥
ज्ञातृत्व रूप से जगदंतर में । प्रस्तुत क्रियारत शरीर में । अंतःकरणविष्णु इसी तरह से । पहचानें ॥१३॥
वह विष्णु रहते जगदंतर में । वही है अपने अंतरंग में । कर्ता भोक्ता चतुरोंनो । अंतरात्मा पहचानें ॥१४॥
सुने देखे सूंघे चखे । जानकर विचार से परखे । कितने ही अपने पराये । जानता यह है ॥१५॥
एक ही जग का अंतःकरण । परंतु देहलोभ की अड़चन । देहसंबंध से अभिमान । धरे अलगाव का ॥१६॥
उपजे बढे मरे मारे ॥ जैसी उठती लहरों पर लहरें । चंचल सागर में भरभर के । त्रैलोक्य बनते बिगडते ॥१७॥
त्रैलोक्य को चलाता एक। इस कारण त्रैलोक्यनायक । ऐसा प्रत्यय का विवेक । देखो तो कैसा ॥१८॥
ऐसा अंतरात्मा कहा गया । परंतु वह भी तत्त्वों में आया । आगे विचार चाहिये करना । महावाक्य का ॥१९॥
पहले देखा देहधारी में । फिर देखें जगदंतर में । इसके भी उपर । परब्रह्म मिले ॥२०॥
परब्रह्म का विचार । होते ही निर्णय होता सारासार । चंचल जायेगा यह निर्धार । चूके ना ॥२१॥
उत्पत्ति स्थिति संहार जान । इनसे अलग निरंजन । जहां ज्ञान का विज्ञान । होता है ॥२२॥
अष्टदेह स्थानमान । जानकर होने पर निरसन । आगे बचा निरंजन । विमल ब्रह्म ॥२३॥
विचार से ही अनन्य हुआ । दर्शक बिना प्रत्यय आया । वह भी वृत्ति निवृति को । देखो भली तरह ॥२४॥
यहां रह गया वाच्यांश । देखकर त्यागा लक्ष्यांश । लक्ष्यांश जाते ही वृत्तिलेश । वह भी गया ॥२५॥
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे उपदेशनाम समास नववां ॥९॥
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Last Updated : December 05, 2023
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