आत्मदशक - ॥ समास सातवां - अधोर्धनिरूपणनाम ॥
देहप्रपंच यदि ठीकठाक हुआ तो ही संसार सुखमय होगा और परमअर्थ भी प्राप्त होगा ।
॥ श्रीरामसमर्थ ॥
नाना विकारों का मूल । है यह मूलमाया ही केवल । अचंचल में जो चंचल । सूक्ष्मरूप से ॥१॥
मूलमाया ज्ञातृत्व की । मूलतः जो मूल संकल्प की । पहचान षड्गुणैश्वर की । इसी न्याय से ॥२॥
प्रकृतिपुरुष शिवशक्ति । अर्धनारीनटेश्वर कहलाती । परंतु वह संपूर्ण जगज्जोति । मूल उसका ॥३॥
संकल्प का जो चलन । वही वायु का लक्षण । वायु और त्रिगुण । और पंचभूत ॥४॥
देखें अगर कोई बेल । गहरे रहते उसके मूल । पत्र पुष्प फल केवल । मूल के पास ही ॥५॥
इससे भी अलग नाना रंग । आकार विकार तरंग । नाना स्वाद अंतरंग । मूल में ही ॥६॥
वही मूल देखें अगर चीरकर । अब कुछ भी ना दिखे भीतर । बढ़ते बढ़ते आगे जाकर । दिखने लगे ॥७॥
बेल उगी पहाड़ी से । अधोमुख चली बल से । आगे जाकर फैले । भूमंडल में ॥८॥
वैसी मूलमाया जान । पंचभूत और त्रिगुण । मूल में ही है यह प्रमाण । जानें प्रत्यय से ॥९॥
अखंड बढी बेल आगे । सजी नाना विकारों से । विकारों को विकार हुये । असंभाव्य ॥१०॥
उगी नाना शाखायें । उलझकर गुच्छ बन गये । अनंत अग्र फैल गये । सृष्टि में ॥११॥
कई फल गिरते । तुरंत ही नये आते । ऐसे होते और जाते । सर्वकाल ॥१२॥
एक बेल ही सूखी । पुनः वहीं से फूटी । ऐसी आई और गई । कई एक ॥१३॥
पत्ते झडते और फूटते । पुष्प फल इसी रीति से । इस बीच जीव जगते । असंख्यात् ॥१४॥
सारी बेल सूखती । जड से पुनः उगती । ऐसा संपूर्ण विचार जो ही । प्रत्यक्ष जानिये ॥१५॥
मूल को खोदकर निकाला । प्रत्ययज्ञान से निर्मूल किया । फिर बढ़ना ही रुक गया । सब कुछ ॥१६॥
मूलतः बीज अंततः बीज । बीच में जलरूप बीज । ऐसा यह स्वभाव सहज । विस्तारित हुआ ॥१७॥
मूल में रहती जो बातें । बीज सृष्टि कहते उसे । जहां का अंश वहीं जाये । कष्ट के बिना ॥१८॥
जाता आता पुनः जाता । ऐसी प्रत्यावृत्ति करता । परतु आत्मज्ञानी की अवस्था । होती नहीं ऐसे ॥१९॥
न होता कहें भी ऐसे । फिर भी कुछ तो जानना पडे । अंतरंग में ही परतु पता कैसे । सब को चले ॥२०॥
उसीसे कार्य होते । परंतु उसे ना जानते । दिखे ना वे क्या करते । बेचारे लोग ॥२१॥
विषयभोग उसीसे होये । उसके बिना कुछ भी ना होये । स्थूल छोड़ सूक्ष्म में प्रविष्ट होये । ऐसा चाहिये ॥२२॥
जो अपने ही भीतर । तद्रूप ही जगदांतर । शरीरभेद के विकार । अलग अलग ॥२३॥
अंगुली को अंगुली की वेदना । एक की दूसरी को समझे ना । हांथ पांव अवयव नाना । इसी न्याय से ॥२४॥
अवयव का अवयव न जाने । फिर वह परायों का क्या जाने । परांतर इस कारण से । न जाना जाता ॥२५॥
सकल वनस्पति एक ही उदक से । नाना अग्रभेद दिखते । तोड़े उतने ही सूखते । बाकी हरेभरे रहते ॥२६॥
इसी न्याय से भेद हुआ । एक का दूसरा समझे ना । ज्ञातापन से आत्मा । को भेद नहीं ॥२७॥
आत्मत्व में भेद दिखे । देहप्रकृति कारण भासे । फिर भी जानते ही हैं । बहुतेक ॥२८॥
देखकर सुनकर जानते । सयाने अंतरंग परखते । धूर्त वे सारा ही समझते । गुप्तरूप से ॥२९॥
जो बहुतों का पालन करे । जो बहुतों के अंतरंग विवरण करे । धूर्तता से पता करे । सब कुछ ॥३०॥
पहले मनोगत देखते । बाद में विश्वास रखते । प्राणिमात्र व्यवहार करते । इसी रीति से ॥३१॥
स्मरण के बाद विस्मरण । नगद प्रचीत प्रमाण । स्वयं अपना ही निधान । चूकता है ॥३२॥
अपना ही स्वयं को स्मरे ना । कहा वह याद आये ना । उठती अनंत कल्पना । याद कैसे रहे ॥३३॥
ऐसा यह चंचल चक्र । कुछ सही कुछ वक्र । हुआ रंक अथवा शक्र । तो भी स्मरणास्मरण से ॥३४॥
स्मरण याने देव । विस्मरण याने दानव । स्मरणविस्मरण से मानव । व्यवहार करते वर्तमान में ॥३५॥
देवी और दानवी ऐसे । संपत्ति द्विधा जानिये । प्रचीत लायें मन में । विवेकसहित ॥३६॥
विवेकी से विवेक जानें । आत्मा से आत्मा पहचानें । नेत्र से ही नेत्र देखें । दर्पण में ॥३७॥
स्थूल से स्थूल खुजायें । सूक्ष्म से सूक्ष्म समझें । चिन्ह से चिन्ह दृढ धरें । अंतर्याम में ॥३८॥
विचार से जानियें विचार । अंतरंग से जानियें अंतरंग । अंतर से जानियें परातर । होकर ॥३९॥
स्मरण के बीच विस्मरण । यही भेद का लक्षण । एकदेशीय परिपूर्ण । होता नहीं ॥४०॥
आगे सीखे पीछे बिसरे । आगे उजाला अंधेरा पीछे । आगे स्मरे पीछे बिसरे । सभी कुछ ॥४१॥
तूर्या को जानें स्मरण । सुषुप्ति जानियें विस्मरण । दोनों भी शरीर में जान । क्रियारत है अभी ॥४२॥
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे अधोर्धनिरूपणनाम समास सातवां ॥७॥
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Last Updated : December 09, 2023
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