हिंदी सूची|हिंदी साहित्य|अनुवादीत साहित्य|दासबोध हिन्दी अनुवाद|स्वगुणपरीक्षा| समास दसवां बैराग्यनिरूपणनाम स्वगुणपरीक्षा समास पहला जन्मदुःखनिरूपणनाम समास दूसरा सगुणपरीक्षानाम समास तीसरा सगुणपरीक्षानाम समास चौथा सगुणपरीक्षानाम समास पांचवा सगुणपरीक्षानिरुपणनाम समास छठवां आध्यात्मिकताप निरूपणनाम समास सातवां आधिभौतिकताप निरूपणनाम समास आठवा आधिदैविकतापनाम समास नववा मृत्युनिरुपणनाम समास दसवां बैराग्यनिरूपणनाम समास दसवां बैराग्यनिरूपणनाम ‘संसार-प्रपंच-परमार्थ’ का अचूक एवं यथार्थ मार्गदर्शन समर्थ रामदास लिखीत दासबोध में है । Tags : dasbodhramdasदासबोधरामदास समास दसवां बैराग्यनिरूपणनाम Translation - भाषांतर ॥ श्रीरामसमर्थ ॥ संसार याने महापूर । जिस में जलचर अपार । दंश करने दौडते विषधर । काल सर्प ॥१॥आशा ममता देह की बेडियां यह । घडियाल करते तड़तोड । घसीटकर दुःखदायक संकट । में डालते ॥२॥अहंकारनक्र ने उडाया । पाताल में डुबोया । वहां से प्राणी छूट पाया । ऐसा सुना न कभी ॥३॥ काम मगर आलिंगन से छूटे ना । तिरस्कार वह टूटे ना । मद मत्सर हटे ना । भ्रमित हुआ ॥४॥ वासना धामिण गले पडी । लिपट कर विष की उल्टी । जिव्हा लपलपाये हर घडी । भयानक ॥५॥ माथे पर प्रपंच का बोझा । लेकर कहे मेरा मेरा । डूबने पर भी ना छोड़ता । झूठा कुलाभिमान ॥६॥ भ्रांति का अंधेरा छाया । अभिमान चोर ने नग्न किया । अहंता ने झपट लिया । भूत बाधा ॥७॥ बहुत आवर्त में फंस गये । प्राणी बहते ही गये । भगवंत को पुकारा जिन्होंने । भक्तिभाव से ॥८॥ देव स्वयं छलांग लगाये । उन्हें उस पार ले गये । अन्य वे अभाविक बेचारे । बहते ही गये ॥९॥ भाव का भूखा ईश्वर । भूले भावार्थ देखकर । भक्त को संकट में देखकर । रक्षा करते ॥१०॥ जिन्हें ईश्वर प्रिय लगते । उनके वह भार लेते । संसारदुःख सब उड़ जाते । निज दासों के ॥११॥ जो अंकित ईश्वर के । उन्हें उत्सव निज सुख के । धन्य वे भाग्य के । भाविक जन ॥१२॥ भाव जिस का हो जैसा । देव उसका वैसा । जाने अंतरसाक्षी भाव ऐसा । प्राणी मात्र का ॥१३॥ अगर भाव है मायिक । तो देव भी है महाठग । नवल उसका कौतुक । जैसे को तैसा ॥१४॥ जैसे जिसका भजन । वैसे ही दे समाधान । होते ही किंचित न्यून । स्वयं भी दूर जाये ॥१५॥ दर्पण में प्रतिबिंब दिखे । जैसे को वैसा भासे । इसका सूत्र रहे । अपने ही पास ॥१६॥ करते हैं हम जैसे । होता वह भी वैसे । अगर देखें फैली आंखों से । तो देखे वह भी टकटकी बांधे ॥१७॥ देखें भौहें चढ़ाकर । तो देखे वह भी क्रोधित होकर । हमारे हास्य करने पर । होता आनंदित वह भी ॥१८॥ प्रतिबिंबित भाव जैसा । हुआ देव भी वैसा । भजे उसे जो जैसा । वैसा ही प्राप्त होता ॥१९॥ भावयुक्त परमार्थ का पथ । पहुंचाता भक्ति के बाजार तक । मिलता मोक्ष का चौराह । सज्जन संगती से ॥२०॥ भाव से जो भजन में मग्न । उन्हें हुआ ईश्वर प्राप्त । भावार्थ बल से उद्धारित । पूर्वज भी ॥२१॥ वे स्वयं तर गये । लोगों के भी काम आये । कीर्ति श्रवण से हुये । अभक्त भावार्थी ॥२२॥ धन्य उनकी माता । जिन्होंने हरि भजन में लगाई ममता । जनों में जन्म की सार्थकता । उन्होंने ही पाई ॥२३॥ उनका कद्दू क्या बड़प्पन । जिनके रक्षक भगवान । उतारे काछा पहन । पार दुःखों से ॥२४॥ अनेक जन्मों के पश्चात । छूटे जिससे यातायात । वो यह नरदेह प्राप्त । करवाये ईश्वर ॥२५॥ इस कारण धन्य वे भाविक जन । जिन्होंने भी जोड़ा हरिनिधान । अनंत जन्मों का पुण्य । हुआ फलित ॥२६॥ आयुष्य यही रत्न भांडार । इसमें भजनरत्न सुंदर । ईश्वर को अर्पण कर । लूट आनंद की करें ॥२७॥हरिभक्त वैभव से कनिष्ठ । मगर वह ब्रह्मादि से भी वरिष्ठ । सदासर्वदा संतुष्ट । नैराश्य बोध से ॥२८॥ धर ईश्वर का काछ । किया संसार निराश । उन भाविकों को ईश्वर । सबाह्य संभालते ॥२९॥ जिसे संसार के दुःख । विवेक से लगे परम सुख । संसार सुख ही से पढत मूर्ख । लुब्ध होते ॥३०॥जिन्हें ईश्वर से है प्रेम उन्हें स्वानंदसुख का भोग । जिनकी जनों से अलग । पूंजी अक्षय ॥३१॥ वे अक्षय सुख से सुखी हुये । संसारदुःख भूल गये । विषय रंगों से विमुक्त हुये । रंगे श्रीरंग में ॥३२॥सार्थकता हुई उनके नरदेह की । जिन्होंने ईश्वर से सांठगांठ की । अन्य अभागी अभाविकों की । गया नरदेह ॥३३॥ अचानक मिला निधान । कौड़ी के मोल किया दान । वैसे बीत गया जीवन । अभाविक का ॥३४॥ बहुत तर्षो का संचित । पारस पत्थर हुआ प्राप्त । परंतु वह अभागा मूलतः । भोगना ही ना जाने ॥३५॥वैसा संसार में आया । मायाजाल में उलझ गया । अंत में अकेला ही गया । हांथ झटककर ॥३६॥ इस नरदेह की संगति में । उत्तम गति पाई बहुतों ने । अन्य बेचारें यातायात के । दुःख में फंस गये ॥३७॥ इस नरदेह से ही शीघ्रता से । सार्थक करें संतसंग से । पहले नीच योनियों में दुःख ऐसे । भोगे अनेक ॥३८॥ कौन समय आयेगा कैसा । इसका न समझे न भरोसा । पक्षी जैसे दस ही दिशा । उड जाता ॥३९॥ वैसे वैभव यह सकल । कौन जाने कैसा पल । पूत्र कलत्र आदि । सकल । बिगड़ जाते ॥४०॥ बीती जो घडी नहीं अपनी । आयु तो सारी निकल गई । देह पड़ते ही है रखी । नीच योनी ॥४१॥ श्वान शूकर आदि नीच जाति । भोगनी पडती विपत्ति । वहां कुछ उत्तम गति । नहीं मिलती ॥४२॥ पहले कष्ट गर्भवास में । भोगते आया बड़े दुःख में । वहां से बड़े कष्ट में । छूटा दैवयोग से ॥४३॥ दुःख भोगे जीव ने स्वयं । वहां कहां थे सर्वजन । वैसे ही आगे अकेला प्रयाण । करना पडेगा रे बाबा ॥४४॥ कैसी माता कैसा पिता । कैसी बहन कैसा भ्राता । कैसे सुहृद कैसी वनिता । पुत्र कलन आदि ॥४५॥ ये तू जान माया के । सभी साथी सुख के । ये तेरे सुख दुःख के । साथी नहीं रे ॥४६॥ कैसा प्रपंच कैसा कुल । क्यों होते हो व्याकुल । धन कण लक्ष्मी सकल । हैं जानेवाले ॥४७॥ कैसा घर कैसा संसार । क्यों करते हो खटपट बेकार । जन्मभर वहन कर भार । जाओगे अंत में छोड़कर ॥४८॥ कैसा तारुण्य कैसा वैभव । कैसा उत्सव हावभाव । ये सभी जानो माया का भुलाव । माईक माया ॥४९॥इसी क्षण मर जाओगे । तो रघुनाथ से दूर हो जाओगे । मेरा मेरा कहने के कारण ॥५०॥ तूने भोगी पुनरावृत्ति । ऐसे मां-बाप की कहा गिनती । स्त्री कन्या पुत्र की प्राप्ति । हुई लक्षालक्ष ॥५१॥कर्मयोग से सकल मिले । एक स्थान पर जन्म लिये । उन्हें तू अपना माने । कैसे रे पढतमूर्खा ॥५२॥तेरा नहीं जहां तेरा शरीर । वहां दूसरों का क्या विचार । अब एक भगवान साचार । धरे भावार्थ बल से ॥५३॥ एक दुर्भर के कारण । नाना नीचों की सेवा करना । नाना स्तुति और स्तवन । मर्यादा रखें ॥५४॥ जो अन्न उदर में देता। शरीर उसे बेचना पडता । फिर जो जन्म का दाता । उसको कैसे भूल जायें ॥५५॥ जिस भगवान को अहर्निशीं । समस्त जीवों की चिंता लगी । मेघ बरसाये सत्ता जिसकी । सिंधु मर्यादा धरे ॥५६॥ पृथ्वी को धरा धराधर ने । प्रकट होता दिनकर ये । ऐसी सृष्टि सत्तामात्र से । चलाये जो कोई ॥५७॥ ऐसा कृपालु देवाधिदेव । ना जाने उसका लाघव । जो सम्हाले सकल जीव । कृपालु बनकर ॥५८॥ ऐसे सर्वात्मा श्रीराम । त्यागकर धरते विषयकाम । वे प्राणी दुरात्मा अधम । किये सो पाते ॥५९॥ रामबिना जो जो आस । वह समझे निराश । मेरा मेरा सावकाश । थकान ही बचे ॥६०॥ जो चाहते है थकान । यह विषयों का करे ध्यान । विषय न मिलने से प्राण। छटपटाने लगते ॥६१॥ त्यागकर राम आनंदघन । जिसके मन में विषयचिंतन । उसे कैसे समाधान । विषयलंपट को ॥६२॥ जिसे लगे सुख ही रहे । वह रघुनाथभजन करे । स्वजन सकल ही त्यागे । दुःख मूल जो ॥६३॥ जहां वासना झपटे । वहीं अपाय दुःख होयें । इसलिये जो विषय वासना मरोडे । वह एक सुखी ॥६४॥ विषयजनित जो जो सुख । वहीं होता परम दुख । पहले मधुर अंत में शोक । है नियमित ॥६५॥ कांटा निगलते सुख होता । खींचने पर गला फटता । अथवा बेचारा मृग गिरता । चारा खाने दौडता जब ॥६६॥ वैसे ही मिठास विषय सुख की । मीठी लगती मगर है तीखी सी । इस कारण प्रीती । रघुनाथ में रखें ॥६७॥ सुनकर यह बोले भाविक । कैसे जी होगा सार्थक । कहियें स्वामी यमलोक । चूके जिस से ॥६८॥वास्तव्य कहां है देव का । वह मुझे कैसे मिलेगा । दुःख मूल संसार टूटेगा । किस तरह स्वामी ॥६९॥जैसी तैसी भी भगवद् प्राप्ति । हो कर चूके अधोगति । ऐसा उपाय कृपामूर्ति । मुझ दीन से कहिये ॥७०॥वक्ता कहे हां एकभाव से । भगवद्भजन करें जिससे । होगा सहजता से । समाधान ॥७१॥ कैसे करें भगवद्भजन । कहां रखें यह मन । भगवद्भजन के लक्षण । मुझे निरुपित कीजिये ॥७२॥ ऐसा म्लानवदन बोले । पांव सुदृढ धरे । कंठ सद्गदित हो गलते । अश्रु तापदुःख से ॥७३॥ देखकर शिष्य की अनन्यता । भाव प्रसन्न हुये सद्गुरुदाता । स्वानंद की होगी वर्षा । अगले समास में ॥७४॥ इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे वैराग्यनिरुपणनाम समास दसवां ॥१०॥ N/A References : N/A Last Updated : February 13, 2025 Comments | अभिप्राय Comments written here will be public after appropriate moderation. 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