एकादशी व्रत परिचय
एक बार नैमिषारण्य में शौनक आदि अट्ठासी हजार ऋषि एकत्रित हुए, उन्होंने समस्त पुराणों के व्याख्याकार ब्रह्मज्ञानी श्री सूतजी से प्रार्थना की "हे सूतजी ! कृपाकर एकादशियों की उत्पत्ति व महात्म्य सुनाने की कृपा करें ।"
तब सूतजी बोले - "हे महर्षियों ! ऋषि मुनियों एवं समस्त प्राणियों के लिए अनन्त पुण्यदायी एकादशी की उत्पत्ति के संबंध में अपने पांचवें अश्वमेध यज्ञ के समय धर्मराज युधिष्ठिर ने भी भगवान श्री कृष्ण से यही प्रश्न किया था, वह सारा वृत्तांत मैं आप सभी से कहता हूं, ध्यानपूर्वक सुनो - एक वर्ष में बारह महीने होते हैं और एक महीने में दो एकादशी होती हैं, सो एक वर्ष में चौबीस एकादशी हुई । जिस वर्ष में लौंद मास (अधिक मास) पड़ता है, उस वर्ष में दो एकादशी और बढ़ जाती हैं । इस तरह कुल छब्बीस एकादशी होती हैं । १. उत्पन्ना, २. मोक्षदा, ३. सफला, ४. पुत्रदा, ५. षट्तिला, ६. जया, ७. विजया, ८. आमलकी, ९. पापमोचिनी, १०. कामदा, ११. बरुथिनी, १२. मोहिनी, १३. अपरा, १४. निर्जला, १५. योगिनी, १६. देवशयनी, १७.कामिका, १८. पुत्रदा, १९. अजा, २०. परिवर्तिनी, २१. इन्दिरा, २२. पापांकुशा, २३. रमा, २४. देवोत्थानी (प्रबोधिनी) । अधिक मास की दोनों एकादशियों के नाम हैं - २५. पद्मिनी और २६. परमा । ये सब एकादशी यथानाम तथा फल देने वाली हैं ।"
एकादशियों का माहात्म्य
हे ऋषियो ! जो पुण्य चन्द्र या सूर्य ग्रहण में स्नान या दान से होता है तथा जो पुण्य अन्न, जल, स्वर्ण, भूमि, गौ तथा कन्यादान तथा अश्वमेधादि यज्ञ करने से होता है, जो पुण्य तीर्थयात्रा तथा कठिन तपस्या करने से होता है, उससे अधिक पुण्य एकादशी व्रत रखने से होता है । एकादशी व्रत रखने से शरीर स्वस्थ रहता है, अन्तर्मन की मैल धुल जाती है, हृदय शुद्ध हो जाता है, श्रद्धा-भक्ति उत्पन्न हो जाती है । प्रभु को प्रसन्न करने का मुख्य साधन एकादशी का व्रत है ।
एकादशी व्रत करने वाले के पितर कुयोनि को त्याग कर स्वर्ग में चले जाते हैं, एकादशी व्रत करने वाले के दस पुरखे पितृ पक्ष के, दस पुरखे मातृ पक्ष के और दस पुरखे पत्नी पक्ष के बैकुण्ठ को प्राप्त होते हैं ।
धन-धान्य, पुत्रादि और कीर्ति को बढ़ाने वाला यह एकादशी का व्रत है, एकादशी का जन्म भगवान् के शरीर से हुआ है, यह प्रभु के समान पतित पावनी है, अतः हे एकादशी ! आपको शत-शत प्रणाम है ।"
एकादशी व्रत : विधि-विधान
"व्रत करने की इच्छा वाले नर-नारी को दशमी के दिन मांस, प्याज तथा मसूर की दाल इत्यादि निषेध वस्तुओं का सेवन नहीं करना चाहिए, रात्रि को पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए तथा भोग-विलास से भी दूर रहना चाहिए । प्रातः एकादशी को लकडी़ का दातुन न करें, नींबू, जामुन या आम के पत्ते लेकर चबा लें और उंगली से कंठ शुद्ध कर लें, वृक्ष से पत्ता तोड़ना भी वर्जित है, अतः स्वयं गिरा हुआ पत्ता लेकर सेवन करें । यदि यह सम्भव न हो तो पानी से बारह कुल्ले कर लें । फिर स्नानादि कर मन्दिर में जाकर, गीता-पाठ करें या पुरोहितादि से श्रवण करें । प्रभु के सामने इस प्रकार प्रण करना चाहिए कि ’आज मैं चोर, पाखण्डी और दुराचारी मनुष्य से बात नहीं करुंगा और न ही किसी का दिल दुखाऊंगा, गौ, ब्राह्मण आदि को फलाहार व अन्नादि देकर प्रसन्न करुंगा, रात्रि को जागरण कर कीर्तन करुंगा, ’ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ इस द्वादश अक्षर मंत्र का जाप करुंगा, राम, कृष्ण, नारायण इत्यादि विष्णु सहस्त्र नाम को कण्ठ का भूषण बनाऊंगा’, ऐसी प्रतिज्ञा करके श्री विष्णु भगवान का स्मरण कर प्रार्थना करें कि - ’हे त्रिलोकपति ! मेरी लाज आपके हाथ है, अतः मुझे इस प्रण को पूरा करने की शक्ति प्रदान करना ।’
यदि भूलवश किसी निन्दक से बात कर बैठें तो उसका दोष दूर करने के लिए भगवान सूर्य नारायण के दर्शन तथा धूप-दीप से श्रीहरि की पूजा कर क्षमा मांग लेनी चाहिए । एकादशी के दिन घर में झाडू नहीं लगानी चाहिए, चींटी आदि सूक्ष्म जीवों की मृत्यु का भय रहता है । इस दिन बाल नहीं कटवाने चाहिए और न ही अधिक बोलना चाहिए, अधिक बोलने से मुख से न बोलने योग्य वचन भी निकल जाते हैं । इस दिन यथाशक्ति अन्नदान करना चाहिए किन्तु स्वयं किसी का दिया हुआ अन्न कदापि ग्रहण न करें । झूठ, कपटादि कुकर्मों से नितान्त दूर रहना चाहिए । दशमी के साथ मिली हुई एकादशी वृद्ध मानी जाती है, शिव उपासक तो इसको मान लेते हैं किन्तु वैष्णवों को योग्य द्वाद्वशी से मिली हुई एकादशी का ही व्रत करना चाहिए और त्रयोदशी आने से पूर्व व्रत का पारण करें । फलाहारी को गोभी, गाजर, शलजम, पालक, कुलफा का साग इत्यादि का सेवन नहीं करना चाहिए और आम, अंगूर, केला, बादाम, पिश्ता इत्यादि अमृत फलों का सेवन करना चाहिए । प्रत्येक वस्तु प्रभु को भोग लगाकर तथा तुलसीदल छोड़कर ग्रहन करनी चाहिए । द्वादशी के दिन ब्राह्मणों को मिष्टान्न, दक्षिणादि से प्रसन्न कर परिक्रमा ले लेनी चाहिए, किसी सम्बन्धी की मृत्यु हो जाये तो उस दिन एकादशी व्रत रखकर उसका फल उसे संकल्प कर देना चाहिए और श्री गंगा जी में पुष्प (अस्थि) प्रवाह करने पर भी एकादशी व्रत रखकर फल प्राणी के निमित्त दे देना चाहिए, प्राणी मात्र को अन्तर्यामी का अवतार समझकर किसी से छल-कपट नहीं करना चाहिए । मधुर वाणी बोलनी चाहिए । अपना अपमान करने या कटु वचन बोलने वाले को भी आशीर्वाद देना चाहिए । भूलकर भी क्रोध नहीं करना चाहिए । क्रोध चाण्डाल का अवतार है । आप देवता रुप हो संतोष कर लेना चाहिए, सन्तोष का फल सर्वदा मधुर होता है, सत्य भाषण करना चाहिए तथा मन में दया रखनी चाहिए । इस विधि से व्रत करने वाला दिव्य फल को प्राप्त करता है ।"