यद्यपि उपर्युक्त व्रत पाप - नाशके निमित्तसे किये जाते हैं, तथापि यदि इनका विधिपूर्वक अनुष्ठान किया जाय तो इनके प्रभावसे जीवनमें अपूर्व परिवर्तन दिखायी देता है । वर्षोंसे दुःख भोगनेवाले मनुष्यको भी इन व्रतोंके आचरणसे ऐसे साधन मिल जाते हैं, जिनके प्रभावसे उसके सम्पूर्ण दुःख - दारिद्र्य स्वप्नकी भाँति विलीन हो जाते हैं और उसे मनोवाञ्छित सुखोंकी प्राप्ति होने लगती है । व्रत करनेवाले पुरुषको चाहिये कि वह व्रतारम्भके पहले दिन मुण्डन कराये; फिर भस्म, गोमय, मृत्तिका, जल और पञ्चगव्यसे स्त्रान करके अन्तमें शुद्ध स्त्रान करे । तत्पश्चात् सायंकालमें जब तारे दिखायी देने लगें, तब व्रतकी दीक्षा ले और अपने किये हुए पापोंके लिये सच्चे हदयसे पश्चाताप करते हुए उनको जनताके सामने स्पष्टरुपसे प्रकट करे । फिर दूसरे दिन प्रातःस्त्रान आदिके बाद देवपूजा, पितृपूजा, घृतहोम और गायत्री - जप करके मौनावलम्बनपूर्वक मन, वाणी और क्रियाके द्वारा व्रतमें संलग्न हो जाय तथा उसे सावधानीके साथ पूर्ण करे । यहाँ प्रसंगवश कुछ ऐसे पाप, जो प्रमादवश सहज ही हो जाते हैं और उनके कुछ ऐसे प्रायश्चित, जो सुगमतापूर्वक किये जा सकते हैं, बतलाये जा रहे हैं ।
फल और फुल देनेवाले वृक्ष, लता या गुल्म आदिके छेदनका पाप वेदकी सौ ऋचाओंका जप करनेसे दूर होता है । १ वानर, गधा, कुत्ता, ऊँट और कौआ काट ले तो जलमें प्राणायाम करके घी खानेसे शुद्धि होती हैं । १ ब्राह्मणको कुत्ता काट खाय तो वह समुद्रगामिनी नदीमें स्त्रान करके सौ प्राणायाम करने तथा घृतपान करनेसे शुद्ध होता है । २ ब्राह्मणीको कुत्ता, सियार या भेड़िया काट ले तो वह तारा देखनेसे शुद्ध होती है । ३ यदि रजस्वला स्त्रीको कुत्ता, सियार या गधा काट ले तो पाँच रात्रि पञ्चगव्य पीनेसे उसकी शुद्धि होती है । ४ यदि ब्राह्मणके शरीरमें घाव होकर रुधिर और पीब निकले तथा उसमें कीड़े पड़ जायँ तो दो गव्य - गोबर एवं गोमूत्रका प्राशन करनेसे वह शुद्ध होता है । ५ यदि गृहस्थ पुरुष कामवश वीर्यको भूमिपर डाले तो तीन प्राणायाम करके एक हजार गायत्रीजप करनेसे वह शुद्ध होता है । ६ स्वप्नमें ब्रह्मचारीं द्विजका अकामसे भी वीर्य गिर जाय तो वह स्त्रान करके तीन बार सूर्यको प्रणाम करे और
' पुनर्मामेत्विन्द्रियम्०'
इस ऋचाको जपे, तभी उसकी शुद्धि होती है । ७ यदि कोई यज्ञोपवीतधारी द्विज बिना यज्ञोपवीतके भोजन कर ले या मल - मूत्रका त्याग करे तो वह प्राणायामपूर्वक आठ हजार गायत्रीका जप करनेसे पवित्र होता है । १ स्त्री बेचनेसे बड़ा पाप होता है, उसकी चान्द्रायणव्रतसे शुद्धि होती है । २ बाग, बगीचे, तालाब, तलाई और कुआँ, प्याऊ - इनके बेचनेसे तथा सुकृत और पुत्रका विक्रय करनेसे भी पाप होता है । उससे छूटनेके लिये त्रिकाल स्त्रान करके पृथ्वीपर शयन करे और एक दिन उपवास करके दूसरे दिन अन्न ग्रहण करे । ३ सर्प और नेवले, बकरे और बिल्ली, चूहे और ऊँट, मेंढक और स्त्रीके बीचमें होकर निकलनेका पाप स्त्रान, दान, जप या व्रतरुप तात्कालिक प्रायश्चित करनेसे दूर होता है । ४ किसी प्रकारका असत दान ग्रहण कर लिया जाय तो तीन हजार गायत्री जपनेसे शुद्धि होती हैं ५ । भेड़का, गर्भिणी तथा बिना बछाड़ेवाली गौका और वनके मृग, सूअर एवं नीलगाय आदिका दुग्ध पान करनेपर उपवास करनेसे शुद्धि होती है । महिषीके दूधका शास्त्रोंमें निषेध नहीं है । ६ आपत्तिकालमें ब्राह्मण यदि शूद्रके घरमें भोजन कर लेतो मानसिक पश्चात्तापपूर्णक ' द्रुपदादिव०' मन्त्नका सौ बार जप करनेसे शुद्ध हो जाता है । १ दीपक जलानेसे बचा हुआ तैल, लगानेसे बचा हुआ उबटन और गलीमें होकर लाया हुआ भोजन काममें लिया जाय तो नक्तव्रत करनेसे शुद्धि होती हैं २ । यदि अनजानमें चाण्डालके कुएँ अथवा बर्तनका जल पी लिया गया हो तो तीन दिनका उपवास करनेसे पवित्रता होती हैं ३ । जो वाणीसे दूषित किया गया हो, जिसमें किसीकी दूषित भावना हो गयी हो तथा जो भावदूषित पात्रमें रखा गया हो, उस अन्नको यदि ब्राह्मण खा ले तो वह तीन रात्रिके व्रतसे शुद्ध होता है ४ । यदि सींग, हाड़, दाँत, शङ्ख, सीप और कौड़ीसे बनाये हुए पात्रमें भरकर नवीन जल ( वर्षाका तात्कालिक जल ) पीया गया हो तो पञ्चगव्य पीनेसे शुद्धि होती है ५ । बिना मौसिमकी वर्षाका जल दस दिनोंतक नहीं पीना चाहिये । मौसिममें भी बरसा हुआ शुद्ध नवीन जल तीन दिनोंतक नही ग्रहण करे । यदि इसके विपरीत पी ले तो उपवाससे शुद्धि होती है ६ । धान ( चावल ) , दही और सत्तू - इनको लक्ष्मीकी कामनावाला पुरुष रातमें न खाय । यदि खा ले तो उपवाससे ही उसकी शुद्धि होती है । ७ प्राणायाम एक ऐसा उत्कृष्ट साधन है, जिसकी सौ आवृतियाँ करनेसे पाप और उपपाप सब नष्ट हो जाते है १ । वट, आक ( मदार ) , पीपल , कुम्भी ( तरबूज ) , तिन्दुक ( तेंदू ) , कदम्ब और कचनारके पत्तोंमें भोजन नहीं करना चाहिये ; क्योंकि उनमें भोजन करनेसे जो दोष होता है , उसकी चान्द्रायणव्रतसे ही शुद्धि होती है । २ मधु , गुड़की बनी हुई वस्तु, शाक, गोरस, नमक और घीको हाथसे उठाकर नहीं परोसना चाहिये । जो हाथसे उठाकर दी हुई उपर्युक्त वस्तुओंको खाता है, वह एक दिन उपवास करनेसे शुद्ध होता है । ३ यदि कोई आसनपर उँकडू बैठकर अथवा आधी धोती ओढ़कर भोजन करे या अधिक गर्म अन्न लेकर उसे फूँक - फूँककर खाय तो वह कृच्छ्रसांतपन व्रतसे शुद्ध होता है । ४ ब्राह्मण यदि अनजानमें मृताशौच अथवा जननाशौचवालेके यहाँ भोजन कर ले तो सौ प्राणायाम करनेसे शुद्ध होता है ५ । सदाचारहीन एवं निन्दित्त आचरणवाले विप्रका भी अन्न खानेसे ब्राह्मणको एक दिनका उपवास करना चाहिये । ६ यदि कोई स्वेच्छासे ऊँट या गधेपर बैठे तो उसे वस्त्रोंसहित जलमें प्रवेश करके प्राणायाम करना चाहिये ; तभी उसकी शुद्धि होती है । यदि कोई इन्द्रधनुष अथवा पलासकी आग दूसरेको दिखाये तो वह एक दिन और एक रात उपवास करके ब्राह्मणको दक्षिणा दे; यही उसके लिये प्रायश्चित्त है २ । अपाड्न्क्तेय ( पंक्तिमें न बैठनेयोग्य ) पुरुषके साथ एक पंक्तिमें बैठकर भोजन करनेवाला उत्तम द्विज दिन - रातका उपवास करके पञ्चगव्य पान करनेसे शुद्ध होता है । ३ कम्बल और रेशमी कपड़ोंमें नीलका रंग होना दोषकी बात नहीं है: क्योंकि ये स्वतः शुद्ध होते हैं ४ । यदि किसीके द्वारा कुत्ते, बिल्ली, नेवले, मेढक, साँप, छुछूँदर और चूहे आदि जीवोंकी हत्या हो जाय तो वह बारह दिनका कृच्छ्रव्रत करनेसे शुद्ध होता है ५ । फल, फूल और अन्नके रससे उत्पन्न होनेवाले जीवोंकी हत्याका प्रायश्चित है केवल घी खाकर व्रत रहना । यदि शूद्र ब्राह्मणका अन्न और ब्राह्मण शूद्रका अन्न लेकर दानमें दे अथवा ब्राह्मण शूद्रके हाथसे भोजन कर ले तथा जल पी ले तो वह एक दिन - रात उपवास करके ६ पञ्चगव्य पीनेसे शुद्ध होता है । नवश्राद्ध, मासिक श्राद्ध, सार्धमासिक श्राद्ध, षाण्मासिक श्राद्ध और वार्षिक श्राद्धमें भोजन करनेवाला ब्राह्मण यथाक्रम चान्द्रायण, पराक, अतिकृच्छ्र, कृच्छ्र, पादकृच्छ्र और एकाहव्रतसे शुद्ध होता है १ । यदि कुआँ आदिमें किसी मरे हुए जीवकी लाश गल जाय और उसका जल पी लिया जाय तो तीन दिन केवल जल पीकर रहनेसे शुद्धि होती है । यदि मृत जीव मनुष्य हो तो छः दिनतक जल पीकर रहनेसे शुद्धि होती है २ । थोड़े जलवाले ताल, तलाई और कुण्ड आदिमें यदि कोई अपद्रव्य पड़ जाय तो कुएँ आदिकी शुद्धिके समान ही उनकी भी शुद्धि होनी चाहिये ३ । बड़े - बड़े जलाशयोंका जल अशुद्ध नहीं होता । पोखरी या कुण्डमें घुटनेसे ऊपर पानी हो, तभी वह शुद्ध - ग्रहण करनेयोग्य होता है । घुटनेसे नीचे हो तो वह अपवित्र है ४ । ऊन, रेशम, सन और आरक्तवस्त्र - ये थोड़ेमें ही शुद्ध हो जाते हैं; इनकी शुद्धिके लिये धूपमें सुखाना और जलके छीटे आदि देना ही पर्याप्त है ५ । गोहत्या, ब्रह्महत्या, सुरापान, सुवर्णकी चोरी और गुरुपत्नी - गमन - इन पापोंको करनेवाले मनुष्य महापातकी माने गये है । उनसे वार्तालाप करने, उनका स्पर्श होने, उनके श्वासकी हवा लगने, उनके साथ एक सवारी या आसनपर बैठने, साथ - साथ भोजन करने, यज्ञ अथवा स्वाध्यायमें उनके साथ सम्मिलित तथा उनके यहाँ पुत्र या पुत्रीचा ब्याह करनेसे उनका पाप फैलकर अपने ऊपर आ जाता है । अतः ऐसे पुरुषके संसर्गसे बचना अत्यन्त आवश्यक है १ । बीमार गौकी चिकित्साके लिये यदि उसे बाँधा जाय अथवा मरे हुए गर्भको निकालनेका प्रयत्न किया जाय और उस समय उस गौकी मृत्यु हो जाय तो उसका प्रायश्चित नहीं होता २ । इसी प्रकार किसीके प्राण बचानेके लिये यदि उसके शरीरमें कहीं जलाने, काटने या शिराभेदन करने ( पस्त खोलने ) की आवश्यकता हो और इस प्रयत्नमें दैवात वह मृत्युको प्राप्त हो जाय तो उसका भी पाप नहीं लगता ३ । मदिरा मनुष्यका सर्वनाश करनेवाली मानी गयी है । वह कटहल, दाख, महुआ, खजूर, ताड़, ईख, मधु, सीरा, अरिष्ट, धवईके फूल और नारियलसे बनती है । इस तरह वह ग्यारह प्रकारकी है । पुलस्त्यने इन सबको समानरुपसे मद्य कहा है और बारहवीं सुराको इन सबसे अधम बतलाया है । गौडी ( गुड़से बननेवाली ) - माध्वी ( महुआसे बननेवाली ) और पैष्टी ( जौ आदिसे बननेवाली ) - यह तीन तरहकी सुरा जाननी चाहिये । मदिरा कैसी भी क्यों न हो, वह मनुष्यके लिये सर्वथा अग्राह्य और अस्पृश्य है ४ ।
१. फलदानां तु वृक्षाणां छेदने जप्यमृक्शतम् ।
गुल्मवल्लीलतानां तु पुष्पितानां च वीरुधाम् ॥ ( या० स्मृ० )
२. ......... वानरखरैर्दष्टः श्वोष्ट्रादिवायसैः ।
प्राणायामं जले कृत्वा घृतं प्राश्य विशुद्धयति ॥ ( या० स्मृ० )
३. ब्राह्मणस्तु शुना दष्टो नदीं गत्वा समुद्रगाम् ।
प्राणायामशतं कृत्वा घृतं प्राश्य विशुद्धयति ॥ ( वसिष्ठ )
४. ब्राह्मणी तु शुना दष्टा जम्बुकेन वृकेण च ।
उदितं ग्रहनक्षत्रं दृष्टां सद्यः शुचिर्भवेत् ॥ ( पराशर )
५. रजस्वला यदा दष्टा शुना जम्बुकरासभैः ।
पञ्चरात्रनिराहारा पञ्चगव्येन शुद्धयति ॥ ( पुलस्त्य )
६. ब्राह्मणस्य व्रणद्वारे पूयशोणितसम्भवे ।
कृमिरुत्पद्यते यस्य युग्मगव्येन शुद्धयति ॥ ( मनु )
७. गृहस्थः काम्यतः कुर्याद् रेतसः स्कन्दनं भुवि ॥
सहस्त्रं तु जपेद् देव्याः प्राणायामैस्त्रिभिः सह ॥ ( मनु )
८. स्वप्ने सिक्त्वा ब्रह्मचारी द्विजः शुक्रमकामतः ।
स्त्रात्वार्कमर्चयित्वा त्रिः पुनर्मामित्यृचं जपेत् ॥ ( मनु )
९. ब्रह्मसूत्रं विना भुङ्न्क्ते विण्मूत्रं कुरुतेऽथवा ।
गायत्र्यष्टसहस्त्रेण प्राणायामेन शुद्धयति ॥ ( मरीचि )
१०. नारीणां विक्रयं कृत्वा चरेच्चान्द्रायणव्रतम् । ( चतुर्विंशति मतसंग्रह )
११. आरामतडागोदपानपुष्करिणीसुकृतसुताविक्रयेति० ( पैठीनसि )
१२. सर्पस्य नकुलस्याथ अजमार्जारयोस्तथा ।
मूषकस्य तथोष्ट्रस्य मण्डूकस्य च योषितः ।
अन्तरागमने सद्यः प्रायश्चित्तेन शुद्धयति ॥ ( यम )
१३. जपित्वा त्रीणि सावित्र्याः सहस्त्राणि समाहितः ।
..................... मुच्यतेऽसत्परिग्रहात् ॥ ( मनु )
१४. आविकं संधिनीक्षीरं विवत्सायाश्च गोः पयः ।
अरण्यानां च सर्वेषां मृगाणां महिषीं विना ॥ ( मनु )
१५. आपत्काले तु विप्रेण भुक्तं शूद्रगृहे यदि ।
मनस्तापेन शुद्धयेत्तु द्रुपदानां शतं जपेत् ॥ ( पराशर )
१६. दीपोच्छिष्टं तु यत्तैलं रात्रौ रथ्याहतं तु यत् ।
अभ्यङ्गच्चैव यच्छिष्टं भुक्त्वा नक्तेन शुद्धयति ॥ ( षटत्रिंशत् )
१७. चाण्डालकूपभाण्डस्य अज्ञानादुदकं पिबेत् ।
स तु त्र्यहेण शुद्धयेत शूद्रस्त्वेकेन शुद्धयति ॥ ( आपस्तम्ब )
१८. वाग्दुष्टं भावदुष्टं च भाजने भावदूषिते ।
भुक्त्वान्नं ब्राह्मणः पश्चात् त्रिरात्रेण विशुद्धयति ॥
१९. श्रृङस्थिदन्तजैः पात्रैः शङ्गशुक्तिकपर्दकैः ।
पीत्वा नवोदकं चैव पञ्चगव्येन शुद्धयति ॥ ( बृहदयाज्ञवल्क्य )
२०. काले नवोदकं शुद्धं न पिबेच्च त्र्यहं हि तत् ।
अकाले तु दशाहं स्यात् पीत्वा नाद्यादहर्निशम् ॥ ( स्मृत्यन्तर )
२१. धानां दधि च सक्तुं च श्रीकामो वर्जयेन्निशि । ( बृहच्छातातप )
२२. प्राणायमशतं कार्यं सर्वपापानुत्तये ।
उपपातकजातानामनादिष्टस्य चैव हि ॥ ( मनु )
२३. वटार्काश्वत्थपत्रेषु कुम्भीतिन्दुकपत्रयोः ।
कोविदारकदम्बेषु भुक्त्वा चान्द्रायणं चरेत् ॥ ( स्मृत्यन्तर )
२४. माक्षिकं फाणितं शाकं गोरसं लवणं घृतम् ।
हस्तदत्तानि भुक्त्वा तु दिनमेकमभोजनम् ॥ ( पाराशर )
२५. आसनारुढपादो वा वस्त्रार्धप्रावृतोऽपि वा ।
मुखेन धमितं भुक्त्वा कृच्छ्रं सांतपनं चरेत् ॥ ( क्रतु )
२६. अज्ञानाद् भोजने विप्राः सूतके मृतकेऽपि वा ।
प्राणायामशतं कृत्वा शुद्धयेयुः .....॥
२७. निराचारस्य विप्रस्य निषिद्धाचरणस्य च ।
अन्नं भुक्त्वा द्विजः कुर्याद् दिनमेकमभोजनम् ॥ ( षटत्रिंशत् )
२८. उष्ट्रयानं समारुह्य खरयानं तु कामतः ।
सवासा जलमाप्र्लुत्य प्राणायामेन शुद्धयति ॥ ( मनु )
२९. इन्द्रचापं पलाशाग्निं यद्यन्यस्य प्रदर्शयेत् ।
प्रायश्चित्तमहोरात्रं धनुर्दण्डश्च दक्षिणा ॥ ( ऋष्यश्रृङ्ग )
३०. अपाड्न्क्तेयस्य यः कश्चित् पड्क्तौ भुड्क्तै द्विजोत्तमः ।
अहोरात्रोषितो भूत्वा पञ्चगव्येन शुद्ध्यति ॥ ( मार्कण्डेय )
३१. कम्बले पट्टसूत्रे च नीलीरागो न दुष्यति । ( स्मृतिसंग्रह )
३२. श्वमार्जानकुलमण्डूकसर्पदहरमूषकादीन हत्वा कृच्छ्र द्वादशरात्रं चरेत् । ( वसिष्ठ )
३३. ब्राह्मणान्नं ददच्छूदः शूद्रान्नं ब्राह्मणो ददत् । ( वृ० या० )
शूद्रहस्तेन यो भुड्न्क्ते पानीयं वा पिबेत् क्वचित् ।
अहोरात्रोषितो भूत्वा पञ्चगव्येन शुद्धयति ॥ ( क्रतु )
३४. चान्द्रायणं नवश्राद्धे पराको मासिके स्मृतः ।
पक्षत्रयेऽतिकृच्छ्रः स्यात् षण्मासे कृच्छ्रमेव तु ॥
आब्दिके पादकृच्छ्रः स्यादेकाहः पुनराब्दिके । ( शङ्ख )
३५. क्लिन्नं भिन्नं शवं चैव कूपस्थं यदि दृश्यते ।
पयः पिबेत् त्रिरात्रेण मानुषे द्विगुणं स्मृतम् ॥ ( देवल )
३६. जलाशयेष्वप्यल्पेषु स्थावरेषु महीतले ।
कूपवत् कथिता शुद्धिर्महत्सु तु न दूषणम् ॥ ( विष्णु )
३७. ..... पुष्करिण्यां हदेऽपि वा ।
जानुदघ्रं शुचि ज्ञेयमधस्तादशुचि स्मृतम् ॥ ( आपस्तम्ब )
३८. ऊर्णकौशेयकुतपट्टक्षौमदुकूलजाः ।
अल्पशौचा भवन्त्येते शोषणप्रोक्षणादिभिः ॥ ( देवल )
३९. गोब्रह्महा सुरापी च स्वर्णस्तेयी तथैव च ।
गुरुपल्यभिगामी च महापातकिनो नराः ॥ ( स्म्रुत्यन्तर )
संलापस्पर्शनिः श्वाससहयानासनाशनात् ।
यजनाध्ययनाद् यौनात् पापं संक्रमते नृणाम् ॥ ( देवल )
४०. बन्धने गोश्चिकित्सार्थे मूढगर्भविमोचने ।
यत्ने कृते विपत्तिश्चेत् प्रायाश्चित्तं न विद्यते ॥ ( संवर्त )
४१. दाहच्छेदशिराभेदप्रयत्नैरुपकुर्वताम् ।
प्राणसंत्राणसिद्धयर्थं प्रायश्चित्तं न विद्यते ॥ ( संवर्त )
४२. पानसं द्राक्षमाधूकं खार्जूरं तालमैक्षवम् ॥
मधूत्थं सौरमारिष्टं मैरेयं नालिकेरजम् ॥