फिरेउ मातु पितु परिजन लखि गिरिज पन ।
जेहिं अनुरागु लागु चितु सोइ हितु आपन ॥३३॥
तजेउ भोग जिमि रोग लोग अहि गन जनु ।
मुनि मनसहु ते अगम तपहिं लायो मनु ॥३४॥
पार्वतीजीकी (दृढ) प्रतिज्ञाको देखकर माता-पिता और परिजन लौट आये । जिसमें अनुरागपूर्वक चित्त लग जाता है, वही अपना प्रिय है ॥३३॥
उन्होंने भोगोंको रोगके समान और लोगोंको सर्पोंके झुंडके समान त्याग दिया तथा जो मुनियोंको भी मनके द्वारा अगम्य था , ऐसे तपमें मन लगा दिया ॥३४॥
सकुचहिं बसन बिभूषन परसत जो बपु ।
तेहिं सरीर हर हेतु अरंभेउ बड़ तपु ॥३५॥
पूजइ सिवहि समय तिहुँ करइ निमज्जन ।
देखि प्रेमु ब्रतु नेमु सराहहिं सज्जन ॥३६॥
जिस शरीरको स्पर्श करनेमें वस्त्र- आभूषण भी सकुचाते थे,उसी शरीरसे उन्होंने शिवजीके लिये बड़ी भारी तपस्या आरम्भ कर दी ॥३५॥
वे तीनों काल स्त्रान करती हैं और शिवजीकी पूजा करती हैं । उनके प्रेम, व्रत और नियमको सज्जन (साधु) लोग भी सराहते हैं ॥३६॥
नीद न भूख पियस सरिस निसि बासरु ।
नय न नीरु मुख नाम पु लक तनु हियँ हरु ॥३७॥
कंद मूल फल असन, कबहुँ जल पवनहि ।
सूखे बेलके पात खात दिन गवनहि ॥३८॥
उनके लिये रात-दिन बराबर हो गये हैं ; न नींद है न भूख अथवा न प्यास ही है । नेत्रोंमें आँसू भरे रहते हैं, मुखसे शिव- नाम उच्चारण होता रहता है, शरीर पुलकित रहता है और हृदयमें शिवजी बसे रहते हैं ॥३७॥
कभी कन्द, मूल, फलका भोजन होता है, कभी जल और वायुपर ही निर्वाह होता है और कभी बेलके सूखे पत्ते खाकर ही दिन बिता दिये जाते हैं ॥३८॥
नाम अपरना भयउ परन जब परिहरे ।
नवल धवल कल कीरति सकल भुवन भरे ॥३९॥
देखि सरहहिं गिरिजहि मुनिबरु मुनि बहु ।
अस तप सुना न दीख कबहुँ काहुँ कहु ॥४०॥
जब पार्वतीजीने (सूखे) पत्तोंको भी त्याग दिया , तब उनका नाम ’अपर्णा’ पड़ा । उनकी नवीन, निर्मल एवं मनोरम कीर्तिसे चौदहों भुवन भर गये ॥३९॥
पार्वतीजीका तप देखकर बहुत - से मुनिवर और उनकी सराहना करते हैं कि ऐसा तप कभी कहीं किसीने न देखा और न तो सुना ही था ॥४०॥
काहुँ न देरव्यौ कहहिं यह तपु जोग फल चारि का ।
नहिं जानि जाइ न कहति चाहति काहि कुधर - कुमारिका ॥
बटु बेष पेखन पेम पनु ब्रत नेम ससि सेखर गए ।
मनसहिं समरपेउ आपु गिरिजहि बचन मृदु बोलत भए ॥५॥
वे कहते हैं ऐसा तप किसीने नहीं देखा । इस तपके योग्य फल क्या चार फल अर्थात् अर्थ, धर्म, काम एवं मोक्ष (कभी) हो सकते हैं ? पर्वतराजकुमारी उमा क्या चाहती है ; जाना नहीं और न वे कुछ कहती ही हैं । तब शशिशेखर श्रीमहादेवजी ब्रह्मचारीका वेष बना उनके प्रेम, (कठोर) नियम, प्रतिज्ञा और (दृढ़) संकल्पकी परिक्षा करनेके लिये गये । उन्होंने मन-ही-मन अपनेको पार्वतीजीके हाथों सौंप दिया और पार्वतीजीसे सुमधुर वचन कहने लगे ॥५॥