अर्जुन बोले -
हे कृष्ण ! जो मनुष्य शास्त्रविधिको त्यागकर श्रध्दासे युक्त हुए देवादिका पूजन करते हैं, उनकी स्थिति फिर कौन- सी है ? सात्त्विकी है अथवा राजसी किंवा तामसी ? ॥१॥
श्रीभगवान् बोले -
मनुष्योंकी वह शास्त्रीय संस्कारोंसे रहित केवल स्वभावसे उत्पन्न श्रध्दा सात्त्विकी और राजसी तथा तामसी - ऐसे तीनों प्रकारकी ही होती है । उसको तू मुझको सुन ॥२॥
हे भारत ! सभी मनुष्योंकी श्रध्दा उनके अन्त:करणके अनुरुप होती है । यह पुरष श्रध्दामय है, इसलिये जो पुरुष जैसी श्रध्दावाला है, वह स्वयं भी वही है ॥३॥
सात्त्विक पुरुष देवोंको पूजते हैं, राजस पुरुष यक्ष और राक्षसोंको तथा अन्य जो तामस मनुष्य हैं, वे प्रेत और भूतगणोंको पूजते हैं ॥४॥
जो मनुष्य शास्त्रविधिसे रहित केवल मन:कल्पित घोर तपको तपते हैं तथा दम्भ और अहंकारसे युक्त एवं कामना, आसक्ति और बलके अभिमानसे भी युक्त हैं ॥५॥
जो शरीररुपसे स्थित भूतसमुदायको और अन्त:करणमें स्थित मुझ परमात्माको भी कृश करनेवाले हैं, उन अज्ञानियोंको तू आसूर - स्वभाववाले जान ॥६॥
भोजन भी सबको अपनी - अपनी प्रकृतिके अनुसार तीन प्रकारका प्रिय होता है । और वैसे ही यज्ञ, तप और दान भी तीन - तीन प्रकारके होते हैं । उनके इस पृथक् - पृथक् भेदको तू मुझसे सुन ॥७॥
आयु, बुध्दि, बल, आरोग्य, सुख और प्रीतिको बढ़ानेवाले, रसयुक्त, चिकने और स्थिर रहनेवाले तथा स्वभावसे ही मनको प्रिय - ऐसे आहार अर्थात् भोजन करनेके पदार्थ सात्त्विक पुरुषको प्रिय होते हैं ॥८॥
कड़वे, खट्टे, लवणयुक्त, बहुत गरम, तीखे, रुखे, दाहकारक और दु:ख, चिन्ता तथा रोगोंको उत्पन्न करनेवाले आहार अर्थात् भोजन करनेके पदार्थ राजस पुरुषको प्रिय होते हैं ॥९॥
जो भोजन अधपका, रसरहित, दुर्गन्धयुक्त, बासी और उच्छिष्ट है तथा जो अपवित्र भी है, वह भोजन तामस पुरुषको प्रिय होत है ॥१०॥
जो शास्त्रविधिसे नियत, यज्ञ करना ही कर्तव्य है - इस प्रकार मनको समाधान करके, फल न चाहनेवाले पुरुषोंद्वारा किया जाता है, वह सात्त्विक है ॥११॥
परन्तु हे अर्जुन ! केवल दम्भाचरणके लिये अथवा फलको भी दृष्टिमें रखकर जो यज्ञ किया जाता है, उस यज्ञको तू राजस जान ॥१२॥
शास्त्रविधिसे हीन, अन्नदानसे रहित, बिना मन्त्रोंके, बिना दक्षिणाके और बिना श्रध्दाके किये जानेवाले यज्ञको तामस यज्ञ कहते हैं ॥१३॥
देवता, ब्राह्मण, गुरु और ज्ञानीजनोंका पूजन, पवित्रता, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा - यह शरीर - सम्बन्धी तप कहा जाता है ॥१४॥
जो उद्वेग न करनेवाला, प्रिय और हितकारक एवं यथार्थ भाषण है तथा जो वेद - शास्त्रोंके पठनका एवं परमेश्वरके नाम - जपका अभ्यास है - वही वाणीसम्बन्धी तप कहा जाता है ॥१५॥
मनकी प्रसन्नता, शान्तभाव, भगवच्चिन्तन करनेका स्वभाव, मनका निग्रह और अन्त:करणके भावोंकी भलीभाँति पवित्रता - इस प्रकार यह मनसम्बन्धी तप कहा जाता है ॥१६॥
फलको न चाहनेवाले योगी पुरुषोंद्वारा परम श्रध्दासे किये हुए उस पूर्वोंक्त तीन प्रकारके तपको सात्त्विक कहते हैं ॥१७॥
जो तप सत्कार, मान और पूजाके लिये तथा अन्य किसी स्वार्थके लिये भी स्वभावसे या पाखण्डसे किया जाता है, वह अनिश्चित एवं क्षणिक फलवाला तप यहाँ राजस कहा गया है ॥१८॥
जो तप मूढ़तापूर्वक हठसे, मन वाणी और शरीरकी पीड़ाके सहित अथवा दूसरेका अनिष्ट करनेके लिये किया जाता है - वह तप तामस कहा गया है ॥१९॥
दान देना ही कर्तव्य है - ऐसे भावसे जो दान देश तथा काल और पात्रके प्राप्त होनेपर उपकार न करनेवालेके प्रति दिया जाता है, वह दान सात्त्विक कहा गया है ॥२०॥
किन्तु जो दान क्लेशपूर्वक तथा प्रत्युपकारके प्रयोजनसे अथवा फलको दृष्टिमें रखकर फिर दिया जाता है, वह दान राजस कहा गया है ॥२१॥
जो दान बिना सत्कारके अथवा तिरस्कारपूर्वक अयोग्य देश - कालमें और कुपात्रके प्रति दिया जाता है, वह दान तामस कहा गया है ॥२२॥
ॐ, तत्, सत् - ऐसे यह तीन प्रकारका सच्चिदानन्दघन ब्रह्मका नाम कहा है; उसीसे सृष्टिके आदिकालमें ब्राह्मण और वेद तथा यज्ञादि रचे गये ॥२३॥
इसलिये वेद - मन्त्रोंका उच्चारण करनेवाले श्रेष्ठ पुरुषोंकी शास्त्रविधिसे नियत यज्ञ, दान और तपरुप क्रियाएँ सदा ‘ॐ’ इस परमात्माके नामको उच्चारण करके ही आरम्भ होती हैं ॥२४॥
तत् अर्थात् ‘तत्’ नामसे कहे जानेवाले परमात्माका ही यह सब है - इस भावसे फलको न चाहकर नाना प्रकारकी यज्ञ, तपरुप क्रियाएँ तथा दानरुप क्रियाएँ कल्याणकी इच्छावाले पुरुषोंद्वारा की जाती हैं ॥२५॥
‘सत्’ - इस प्रकार यह परमात्माका नाम सत्यभावमें और श्रेष्ठभावमें प्रयोग किया जाता है तथा हे पार्थ ! उत्तम कर्ममें भी ‘सत्’ शब्दाका प्रयोग किया जाता है ॥ २६॥
तथा यज्ञ, तप और दानमें जो स्थिति है, वह भी ‘सत्’ इस प्रकार कही जाती है और उस परमात्माके लिये किया हुआ कर्म निश्चयपूर्वक सत् - ऐसे कहा जाता है ॥२७॥
हे अर्जुन ! बिना श्रध्दाके किया हुआ हवन, दिया हुआ दान एवं तपा हुआ तप और जो कुछ भी किया हुआ शुभ कर्म है - वह समस्त ‘असत् ’ - इस प्रकार कहा जाता है; इसलिये वह न तो इस लोकमें लाभदायक है और न मरनेके बाद ही ॥२८॥