श्रीविष्णुपुराण - चतुर्थ अंश - अध्याय २

भारतीय जीवन-धारा में पुराणों का महत्वपूर्ण स्थान है, पुराण भक्ति ग्रंथों के रूप में बहुत महत्वपूर्ण माने जाते हैं। जो मनुष्य भक्ति और आदर के साथ विष्णु पुराण को पढते और सुनते है, वे दोनों यहां मनोवांछित भोग भोगकर विष्णुलोक में जाते है।


श्रीपराशरजी बोले -

जिस समय रैवत ककुद्मी ब्रह्मालोकसे लौटकर नहीं आये थे उसी समय पुण्यजन नामक राक्षसोंने उनकी पुरी कुशस्थलीका ध्वंस कर दिया ॥१॥

उनके सौ भाई पुण्यजन राक्षसोंके भयसे दसों दिशाओंमें भाग गये ॥२॥

उन्हींके वंशमें उप्तन्न हुए क्षत्रियगण समस्त दिशाओंमें फैले ॥३॥

धृष्टके वंशमें धार्ष्टक नामक क्षत्रिय हुए ॥४॥

नाभागके नाभाग नामक पुत्र हुआ, नाभगका अम्बरीष और अम्बरीषका पुत्र विरुप हुआ, विरुपसे पृषदश्वका जन्म हुआ तथा उससे रथीतर हुआ ॥५-९॥

रथीतरके सम्बन्धमें यह श्‍लोक प्रसिद्ध है- 'रथीतरके वंशज क्षत्रिय सन्तान होते हुए भी आंगिरस कहलाये; अतह वे क्षत्रोपेत ब्राह्मण हुए ॥१०॥

छिंकनेके समय मनुकी घ्राणेन्द्रियसे इक्ष्वाकु नामक पुत्रका जन्म हुआ ॥११॥

उनके सौ पुत्रोंमेंसे विकुक्षि, निमि और दण्ड नामक तीन पुत्र प्रधान हुए तथा उनके शकुनि आदि पचास पुत्र उत्तरपथके और शेष अड़तालीस दक्षिणापथके शासक हुए ॥१२-१४॥

इक्ष्वाकुने अष्टकाश्राद्धका आरम्भ कर अपने पुत्र विकुक्षिको आज्ञा दी कि श्राद्धके योग्य मांस लाओ ॥१५॥

उसने 'बहुत अच्छा' कह उनकी आज्ञाको शिरोधार्य किया और धनुष्य-बाण लेकर वनमें आ अनेकों मृगोंका वध किया, किंतु अति थका- मौदा और अत्यन्त भूखा होनेके कारण विकुक्षिने उनमेंसे एक शशक ( खरगोश ) खा लिया और बचा हुआ मांस लाकर अपने पिताको निवेदन किया ॥१६॥

उस मांसाका प्रोक्षण करनेके लिये प्रार्थना किये जानेपर इक्ष्वाकुके कुल - पुरोहित वसिष्ठजीने कहा - 'इस अपवित्र मांसकी क्या आवश्यकता है? तुम्हारे दुरात्मा पुत्रने इसे भ्रष्ट कर दिया है, क्योंकिं उसने इसमेंसे एक शशक खा लिया है" ॥१७॥

गुरुके ऐसा कहनेपर, तभीसे विकुक्षिका नाम शशाद पड़ा और पिताने उसको त्याग दिया ॥१८॥

पिताके मरनेके अनन्तर उसने इस पृथिवीका धर्मानुसार शासन किया ॥१९॥

उस शशादके पुरज्जय नामक पुत्र हुआ ॥२०॥

पुरत्र्जयका भी यह एक दूसरा नाम पड़ा - ॥२१॥

पूर्वकालमें त्रेतायुगमें एक बार अति भीषण देवासुरसंग्राम हुआ ॥२२॥

उसमें महाबलवान् दैत्यगणसे पराजित हुए देवताओंने भगवान् विष्णुकी आराधना की ॥२३॥

तब आदि- अन्त-शून्य, अशेष जगत्प्रतिपालक, श्रीनारायणने देवताओंसे प्रसन्न होकर कहा- ॥२४॥

"आप-लोगोंका जो कुछ अभीष्ट है वह मैंने जान लिया है । उसके विषयमें यह बात सुनिये - ॥२५॥

राजर्षि शशादका जो पुरत्र्जय नामक पुत्र है उस क्षत्रियश्रेष्ठके शरीरमें मैं अंशमात्रसे स्वयं अवतीर्ण होकर उन सम्पूर्ण दैत्योंका नाश करुँगा । अतः तुमलोग पुरत्र्जयको दैत्योंको वधके लिये तैयार करो" ॥२६॥

यह सुनकर देवताओंने विष्णुभगवान्‌को प्रणाम किया और पुरत्र्जयके पास होकर उससे कहा - ॥२७॥

" हे क्षत्रियश्रेष्ठ ! हमलोग चाहते हैं कि अपने शत्रुओंके वधमें प्रवृत्त हमलोगोंकी आप सहायता करें । हम अभ्यागत जनोंका आप मानभंग न करें ।" यह सुनकर पुरत्र्जयने कहा - ॥२८॥

" ये जो त्रैलोक्यनाथ शतक्रतु आपलोंगोंके इन्द्र हैं यदि मैं इनके कन्धेपर चढ़कर आपके शत्रुओंसे युद्ध कर सकूँ तो आपलोगोंका सहायक हो सकता हूँ ॥२९॥

यह सुनकर समस्त देवगण और इन्द्रने 'बहुत अच्छा' - ऐसा कहकर उनका कथन स्वीकार कर लिया ॥३०॥

फिर वृषभ - रूपधारी इन्द्रकी पीठपर चढ़कर चराचरगुरु भगवान् अच्युतके तेजसे परिपूर्ण होकर राजा पुरत्र्जयने रोषपूर्वक सभी दैत्योंको मार डाला ॥३१॥

उस राजाने बैलके ककुद ( कन्धे ) पर बैठकर दैत्यसेनाका वध किया था, अतः उसका नाम ककुत्स्थ पड़ा ॥३२॥

ककुत्स्थके अनेना नामक पुत्र हुआ ॥३३॥

अनेनाके पृथु, पृथुके विष्टराश्व, उनके चान्द्र युवनाश्व तथा उस चान्द्र युवनाश्वके शावस्त नामक पुत्र शावस्तके बृहदश्व तथा बृहदश्वके शावस्त नामक पुत्र हुआ जिसने शावस्ती पुरी बसायी थी ॥३४-३७॥

शावस्तके बृहदश्व तथा बृहदश्वके कुवलयाश्वका जन्म हुआ, जिसने वैष्णवतेजसे पूर्णता लाभ कर अपने इक्कीस सहस्त्र पुत्रोंके साथ मिलकर महर्षि उदकके अपकारी धुन्धु नामक दैत्यको मारा था; अतः उनका नाम धुन्धुमार हुआ ॥३८-४०॥

उनके सभी पुत्र धुन्धुके मुखसे निकले हुए निःश्वासाग्निसे जलकर मर गये ॥४१॥

उनमेंसे केवल दृढ़ाश्व, चन्द्रश्व और कपिलाश्व - ये तीन ही बचे थे ॥४२॥

दृढाश्वसे हर्यश्व, हर्यश्वसे निकुम्भ, निकुम्भसे अमिताश्व, अमिताश्वसे कृशाश्व, कृशाश्वसे प्रसेनजित् और प्रसेनजितसे युवनाश्वका जन्म हुआ ॥४३-४८॥

युवनाश्व निःसन्तान होनेके कारण खिन्न चित्तसे मनुईश्वरोंके आश्रमोंमे रहा करता था; उसके दुःखसे द्रवीभूत होकर दयालु मुनिजनोंने उसके पुत्र उप्तन्न होनेके लिये यज्ञानुष्ठान किया ॥४९॥

आधी रातके समय उस यज्ञके समाप्त होनेपर मुनिजन मन्त्नपूत जलका कलश वेदीमें रखकर सो गये ॥५०॥

उनके सो जानेपर अत्यन्त पिपासाकुल होकर राजाने उस स्थानमें प्रवेश किया । और सोये होनेके कारण उन ऋषियोंको उन्होंने नहीं जगाया ॥५१-५२॥

तथा उस अपरिमित माहात्म्यशाली कलशके मन्त्नपूत जलको पी लिया ॥५३॥

जागनेपर ऋषियोंने पूछा, इस मन्त्नपुत जलको किसने पिया है? ॥५४॥

इसका पान करनेपर ही युवनाश्वकी पत्नी महाबलविक्रमशील पुत्र उप्तन्न करेगी ।" यह सुनकर राजाने कहा- " मैंने ही बिना जाने यह जल पी लिया है" ॥५५॥

अतः युवनाश्वके उदरमें गर्भ स्थापित हो गया और क्रमशः बढ़ने लगा ॥५६॥

यथासमय बालक राजाकी दायीं कोख फाड़कर निकल आया ॥५७॥

किंतु इससे राजाकी मृत्यु नहीं हुई ॥५८॥

उसके जन्म लेनेपर मुनियोंने कहा - " यह बालक क्या पान करके जीवित रहेगा ? " ॥५९॥

उसी समय देवराज इन्द्रने आकर कहा - ' यह मेरे आश्रय - जीवित रहेगा' ॥६०॥

अतः उसका नाम मान्धता हुआ । देवेन्द्रने उसके मुखमें अपनी तर्जनी ( अंगूठेके पासकी ) अँगुली दे दी और वह उसे पीने लगा । उस अमृतमयी अँगुलीका आस्वादन करनेसे वह एक ही दिनमें बढ़ गया ॥६१-६२॥

तबीसे चक्रवतीं मान्धाता सप्तद्वीपा पृथिवीका राज्य भोगने लगा ॥६३॥

इसके विषयमें यह श्‍लोक कहा जाता है ॥६४॥

' जहाँसे सूर्य उदय होता है और जहाँ अस्त होत है वह सभी क्षेत्र युवनाश्वके पुत्र मान्धाताका है' ॥६५॥

मान्धाताने शतबिन्दुकी पुत्री बिन्दुमतीसे विवाह किया और उससे पुरुकुत्स, अम्बरीष और मुचुकुन्द नामक तीन पुत्र उप्तन्न किये तथा उसी ( बिन्दुमती ) से उनके पचास कन्याएँ हुई ॥६६-६८॥

उसी समय बह्‌वृच सौभरि नामक महर्षिने बारह वर्षतक जलमें निवास किया ॥६९॥

उस जलमें सम्मद् नामक एक बहुत - सी सन्तानोंवाला और अति दीर्घकाय मत्स्यराज था ॥७०॥

उसके पुत्र, पौत्र और दौहित्र आदि उसके आगे-पीछे तथा इधर- उधर पक्ष, पुच्छ और शिरके ऊपर घूमते हुए अति अनन्दित होकर रात- दिन उसीके साथ क्रिडा करते रहते थे ॥७१॥

तथा वह भी अपनी सन्तानके सुकोमल स्पर्शसे अत्यन्त हर्षयुक्त होकर उन मुनिश्वरके देखते देखते अपने पुत्र, पौत्र और दौहित्र आदिके साथ अहर्निश क्रीडा करता रहाता था ॥७२॥

इस प्रकार जलमें स्थित सौभरि ऋषिने एकाग्रतारूप समाधिको छोड़कर रात-दिन उस मत्स्यराजकी अपने पुत्र, पौत्र और दौहित्र आदिके साथ अति रमणीय क्रीडाओंको देखकर विचार किया ॥७३॥

' अहो ! यह धन्य है, जो ऐसी अनिष्ट योनिमें उप्तन्न होकर भी अपने इन पुत्र, पौत्र और दौहित्र आदिके साथ निरन्तर रमण करता हुआ हमारे हृदयमें डाह उप्तन्न करता है ॥७४॥

हम भी इस प्रकार अपने पुत्रादिके साथ अति ललित क्रीडाएँ करेंगे । ' ऐसी अभिलाषा करते हुए वे उस जलके भीतरसे निकल आये और सन्तानार्थ गृहस्थाश्रममें प्रवेश करनेकी कामनासे कन्या ग्रहण करनेके लिये राजा मान्धाताके पास आये ॥७५॥

मुनिवरका आगमन सुन राजाने उठकर अर्ध्यदानादिसे उनका भली प्रकार पूजन किया । तदनन्तर सौभारि मुनिने आसन ग्रहण करके राज्यासे कहा- ॥७६॥

सौभरिजी बोले -

हे राजन् ! मैं कन्या- परिग्रहका अभिलाषीं हूँ, अतः तुम मुझे एक कन्या दो; मेरा प्रणय भंग मत करो । ककुत्स्थवंशमें कार्यवश आया हुआ कोई भी प्रार्थी पुरुश कभी खाली हाथ नहें लौटता ॥७७॥

हे मान्धाता ! पृथिवीतलमें और भी अनेक राजालोग हैं और उनके भी कन्याएँ उप्तन्न हूई हैं ; कितु याचकोंको माँगी हुई वस्तु दान देनेके नियममें दृढप्रतिज्ञ तो यह तुम्हारा प्रशंसनीय कुल ही है ॥७८॥

हे राजन् ! तुम्हारे पचारा कन्याएँ हैं, उनमेंसे तुम मुझे केवल एक ही दे दो । हे नृपश्रेष्ठ ! मैं इस समय प्रार्थनाभंगकी आशंकासे उप्तन्न अतिशय दूःखसे भयभीत हो रहा हूँ ॥७९॥

श्रीपराशरजी बोले -

ऋषिके ऐसे वचन सुनकर राजा उनके जराजीर्ण देहको देखकर शापके भयसे अस्वीकर करनेमें कातर हो उनसे डरते हुए कुछ नीचेको मुख करके मन - ही - मन चिन्ता करते लगे ॥८०॥

सौभरिजी बोले -

हे नरेन्द्र ! तुम चिन्तित क्यों होते हो ? मैंने इसमें कोई असह्य बात तो कही नहीं है, जो कन्या एक दिन तुम्हें अवश्य देनी ही है उससे ही यदि हम कृतार्थ हो सकें तो तुम क्या नहीं प्राप्त कर सकते हो ? ॥८१॥

श्रीपराशरजी बोले -

तब भगवान् सौभरिके शापसे भयभीत हो राजा मान्धाताने नम्रतापूर्वक उनसे कहा ॥८२॥

राजा बोले -

भगवन् ! हमारे कुलकी यह रीति है कि जिस सत्कुलोप्तन्न वरको कन्या पसन्द करती है वह उसीको दी जाती है । आपकी प्रार्थना तो हमारे मनोरथोंसे भी परे है । न जाने, किस प्रकार यह उप्तन्न हुई है ? ऐसी अवस्थामें मैं नहीं जानता कि क्या करुँ ? बस, मुझे यही चिन्ता है । महाराज मान्धाताके ऐसा कहनेपर मुनिवर सौभारिने विचार किया - ॥८३॥

' मुझको टाल देनेका यह एक और ही उपाय है । ' यह बूढा़ है, प्रौढ़ा स्त्रियाँ भी इस पसन्द नहीं कर सकतीं , फिर कन्याओंकी तो बात ही क्या है ? ' ऐसा सोचकर ही राजाने यह बात कही है । अच्छा, ऐसा ही सहीं , मैं भी ऐसा ही उपाय करूँगा । ' यह सब सोचकर उन्होंने मान्धातासे कहा - ॥८४॥

' यदि ऐसी बात है तो कन्याओंके अन्तःपुर - रक्षक नपुंसकको वहाँ मेरा प्रवेश करानेके लिये आज्ञा दो । यदि कोई कन्या ही मेरी इच्छा करेगी तो ही मैं स्त्री-ग्रहण करूँगा नहीं तो इस ढलती अवस्थामें मुझे इस व्यर्थ उद्योगका कोई प्रयोजन नहीं है । " ऐसा कहकर वे मौन हो गये ॥८५॥

तब मुनिके शापकी आशंकासे मान्धाताने कन्याओंके अन्तःपुर-रक्षकको आज्ञा दे दी ॥८६॥

उसके साथ अन्तःपुरमें प्रवेश करते हुए भगवान् सौभरिने अपना रूप सकल सिद्ध और गन्धर्वगणसे भी अतिशय मनोहर बना लिया ॥८७॥

उन ऋषिवरको अन्तःपुरमें ले जाकर अन्तःपुर - रक्षकने उन कन्याओंसे कहा - ॥८८॥

" तुम्हारे पिता महाराज मान्धाताकी आज्ञा है कि ये ब्रह्माषि हमारे पास एक कन्याके लिये पधारे हैं और मैंने इनसे प्रतिज्ञा की है कि मेरी जो कोई कन्या श्रीमान्‌को वरण करेगी उसकी स्वच्छन्मतामें मैं किसी प्रकारकी बाधा नहीं डालूँगा । " यह सुनकर उन सभी कन्याओंने युथपति गजराजका वर्ण करनेवाली हाथिनियोंके समान अनुराग और आनन्दपूर्वक ' अकेली मैं ही - अकेली मैं ही वरण करती हूँ ' ऐसी कहते हुए उन्हें वरण कर लिया । वे परस्पर कहने लगीं ॥८९-९१॥

' अरी बहिनो ! व्यर्थं चेष्टा क्यों करती हो ? मै इनका वरण करती हूँ, ये तुम्हारे अनुरूप हैं भी नहीं । विधाताने ही इन्हें मेरा भर्त्ता और मुझे इनकी भार्या बनाया है । अतः तुम शान्त हो जाओ ॥९२॥

अन्तःपुरमें आते ही सबसे पहले मैंने ही इन्हें वरण किया था, तुम क्यों मरी जाती हो ? इस प्रकार ' मैंने वरण किया है - पहले मैंने वरण किया है' ऐसा कह कहकर उन राजकन्याओंमें उनके लिये बड़ा कलह मच गया ॥९३॥

जब उन समस्त कन्याओंने अतिशय अनुरागवश उन अनिन्द्यकीर्ति मुनिवरको वरण कर लिया तो कन्या रक्षकाने नम्रतापूर्वक राजासे सम्पूर्ण वृतान्त ज्यों - का - त्यों कह सुनया ॥९४॥

श्रीपराशरजी बोले -

यह जानकर राजाने ' यह क्या कहता है ? ' ' यह कैसे हुआ ? ' ' मैं क्या करुँ ?' 'मैंने क्यों उन्हें ( अन्दर जानेकेज लिये ) कहा था ? इस प्रकार सोचते हुए अत्यन्त व्याकुल चित्तसे इच्छा न होते हुए भी जैसे - तैसे अपने वचनाका पालन किया और अपने अनुरूप विवाहसंस्कारके समाप्त होनेपर महर्षि सौभरि उन समस्त कन्याओंको अपने आश्रमपर ले गये ॥९५-९६॥

वहाँ आकार उन्होंने दुसरे विधाताके समान अशेषशिल्प कल्प प्रणेता विश्वकर्माको बुलाकर कहा कि इन समस्त कन्याओंमेंसे प्रत्येकके लिये पृथक पृथक महल बनाओ, जिनमें खिले हुए कमल और कुजते हुए सुन्दर हंस तथा कारण्दव आदि जल पक्षियोंसे सुशोभित जलाशय हों सुन्दर उपधान ( मसनद ), शय्या और परिच्छद ( ओंढ़नेके वस्त्र ) हों तथा पर्याप्त खुला हुआ स्थान हो ॥९७॥

तब सम्पूर्ण शिल्प - विद्याके विशेष आचार्य विश्वकर्माने भी उनकी आज्ञानुसार सब कुछ तैयार करके उन्हें दिखलाया ॥९८॥

तदनन्तर महर्षि सौभारिकी आज्ञासे उन महलोंमें अनिवार्यानन्द नामकी महानिधि निवास करने लगी ॥९९॥

तब तो उन सम्पूर्ण महलोंमें नाना प्रकारके भक्ष्य, भोज्य और लेह्य आदि सामग्रियोंसे वे राजकन्याएँ आये हुए अतिथियों और अपने अनुगत भॄत्यवर्गोंको तृप्त करने लगीं ॥१००॥

एक दिन पुत्रियोंके स्त्रेहसे आकर्षित होकर राजा मान्धता यह देखनेके लिये कि वे अत्यन्त दुःखी हैं या सुखी ? महर्षि सौभरिके आश्रमके निकट आये, तो उन्होंने वहाँ अति रमणीय उपवन और जलाशयोंसे युक्त स्फटिकशिलाके महलोंकी पंक्ति देखी जो फैलती हुई मयूखमालाओंसे अत्यन्त मनोहर मालूम पड़ती थी ॥१०१॥

तदनन्तर वे एक महलमें जाकर अपनी कन्याका स्नेहपूर्वक आलिंगन कर आसनपर बैठे और फिर बढ़ते हुए प्रेमके कारण नयनोंमें जल भरकर बोले - ॥१०२॥

' बेटी ! तुमलोग यहाँ सुखपूर्वक हो न ? तुम्हें किसी प्रकारका कष्ट तो नहीं है ? महर्षि सौभरि तुमसे स्नेह करते है या नहीं ? क्यां तुम्हें हमारे घरकी भी याद आती है ? " पिताके ऐसा कहनेपर उस राजपुत्रीने कहा - ॥१०३॥

' पिताजी ! यह महल अति रमणीय है, ये उपवनादि भी अतिशय मनोहर है, खिले हुए कमलोंसे युक्त इन जलाशयोंमें जलपक्षिगण सुन्दर बोली बोलते रहते हैं, भक्ष्य, भोज्य आदि खाद्य पदार्थ, उबटन और वस्त्राभूषण आदि भोग तथा सुकोमल शय्यासनादि सभी मनके अनुकूल है; इस प्रकार हमारा गार्हस्थ यद्यापि सर्वसम्पत्तिसम्पन्न है ॥१०४॥

तथापि अपनी जन्मभूमिकी याद भला किसको नहीं आती ? ॥१०५॥

आपकी कृपासे यद्यपि सब कुछ मंगलमय है ॥१०६॥

तथापि मुझे एक बड़ा दूःख है कि हमारे पति ये महर्षि मेरे घरसे बाहर कभी नहीं जाते । अत्यन्त प्रीतिके कारण ये केवल मेरे ही पास रहते है, मेरी अन्य बहिनोंके पास ये जाते ही नहीं है ॥१०७॥

इस कारणसे मेरी बहिनें अति दूःखी होंगी । यहीं मेरे अति दूःखका कारण है । " उसके ऐसा कहनेपर राजाने दुसरे महलमें आकर अपनी कन्याका आलिंगन किया और आसनपर बैठनेके अनन्तर उससे भी इसी प्रकार पूछा ॥१०८॥

उसने भी उसी प्रकार महल आदि सम्पूर्ण उपभोगोंके सुखका वर्णन किया और कहा कि अतिशय प्रीतिके कारण महर्षि केवल मेरे ही पास रहते हैं और किसी बहिनके पास नहीं जाते । इस प्रकार पूर्ववत सुनकर राजा एक - एक करके प्रत्येक महलमें गये और प्रत्येक कन्यासे इसी प्रकार पूछा ॥१०९॥

और उन सबने भी वैसा ही उत्तर दिया । अन्तमें आनन्द और विस्मयके भारसे विवशचित्त होकर उन्होंने एकान्तमें स्थित भगवान् सौभरिकी पूजा करनेके अनन्तर उनसे कहा ॥११०॥

' भगवन् ! आपकी ही योगसिद्धिका यह महान् प्रभाव देखा है । इस प्रकारके महान् वैभवके साथ और किसीको भी विलास करते हुए हमने नहीं देखा; सो यह सब आपकी तपस्याका ही फल है । ' इस प्रकार उनका अभिवादन कर वे कुछ कालतक उन मुनिवरके साथ ही अभिमत भोग भोगते रहे और अन्तमें अपने नगरको चले आये ॥१११॥

कालक्रमसे उन राजकन्याओंसे सौभरि मुनिके डेढ़ सौ पुत्र हुए ॥११२॥

इस प्रकार दिन - दिन स्नेहका प्रसाद होनेसे उनका हृदय अतिशय ममतामय हो गया ॥११३॥

वे सोचने लगे - ' क्या मेरे ये पुत्र मधुर बोलीसे बोलेंगे ? अपने पाँवोंसे चलेंगे ? क्या ये युवावस्थाको प्राप्त होंगे ? उस समय क्या मैं इन्हें सपत्नीक देख सकूँगा ? फिर क्य इनके पुर होगें और मैं इन्हें अपने पुत्र-पौत्रोंसे युक्त देखुँगा ? ' इस प्रकार कालक्रमसे दिनानुदिन बढ़ते हुए इन मनोरथोंकी उपेक्षा कर वे सोचने लगे - ॥११४॥

' अहो ! मेरे मोहका कैसा विस्तार है ? ॥११५॥

इन मनोरथोंकी तो हजारों - लाखों वर्षोमें भी समाप्ति नहीं हो सकती । उनमेंसे यदि कुछ पूर्ण भी हो जाते हैं तो उनके स्थानपर अन्य नये मनोरथोंकी उप्तत्ति हो जाती है ॥११६॥

मेरे पुत्र पैरोंसे चलने लगे, फिर वे युवा हुए, उनका विवाह हुआ तथा उनके सन्ताने हुई - यह सब तो मैं देख चुका; किन्तु अब है ! ॥११७॥

यदि उनका जन्म भी मैंने देख लिया तो फिर मेरे चित्तमें दुसरा मनोरथ उठेगा और यदि वह भी पुरा हो गया तो अन्य मनोरथकी उप्तत्तिको ही कौन रोक सकता है ? ॥११८॥

मैंने अब भली प्रकार समझ लिया है कि मृत्युपर्यंन्त मनोरथोंका अन्त तो होना नहीं है और जिस चित्तमें मनोरथोकी आसक्ति होती है और जिस चित्तमें मनोरथोंकी आसक्ति होती है वह कभी परमार्थमें लग नहीं सकता ॥११९॥

अहो ! मेरी वह समाधि जलवासके साथी मत्स्यके संगसे अकस्मात नष्ट हो गयी और उस संगके कारण ही मैंने स्त्री और धन आदिका परिग्रह किया तथा परिग्रहके कारण ही अब मेरी तृष्णा बढ़ गयी है ॥१२०॥

एक शरीरका ग्रहण करना ही महान दुःख है और मैंने तो इन राजकन्याओंका परिग्रह करके उसे पचास गुना कर दिया है । तथा अनेक पुत्रोंके कारण अब वह बहुत ही बढ़ गया है ॥१२१॥

अब आगे भी पुत्रोंके पुत्र तथा उनके पुत्रोंसे और उनका पुनः - पुनः विवाह सम्बन्ध करनेसे वह और भी बढे़गा । यह ममतारूप विवाहसम्बन्ध अवश्य बड़े ही दुःखका कारण है ॥१२२॥

जलाशयमें रहकर मैंने जो तपस्या की थी उसकी फलस्वरूपा यह सम्पत्ति तपस्याकी बाधक है । मत्स्यके संगसे मेरे चित्तमें जो पुत्र आदिका राग उप्तन्न हुआ था उसीने मुझे ठग लिया ॥१२३॥

निःसंगता ही यतियोंको मुक्ति देनेवाली है, सम्पूर्ण दोष संगसे ही उप्तन्न होते है । संगके कारण तो योगारुढ यति भी पतित हो जाते हैं, फिर मन्दगति मनुष्योंके तो बात ही क्या है ? ॥१२४॥

परिग्रहरूपी ग्राहने मेरी बुद्धिको पकड़ा हुआ है । इस समय मैं ऐसा उपाय करुँगा जिससे दोषोंसे मुक्त होकर फिर अपने कुटुम्बियोंके दुःखसे दुःखी न होऊँ ॥१२५॥

अब मैं सबके विधाता, अचिन्त्यरूप, अणुसे भी अणु और सबसे महान् सत्त्व एवं तमः स्वरूप तथा ईश्वरोंके भी ईश्वर भगवान विष्णुकी तपस्या करके आराधना करूँगा ॥१२६॥

उन सम्पूर्णतेजोमय , सर्वस्वरूप, अव्यक्त, विस्पष्टशरीर, अनन्त श्रीविष्णुभगवान्‌में मेरा दोषरहित चित्त सदा निश्वल रहे जिससे मुझे फिर जन्म न लेना पड़े ॥१२७॥

जिस सर्वरूप, अमल, अनन्त, सर्वश्वर और आदि - मध्य- शून्यसे पृथक और कुछ भी नहीं है उस गुरुजनोंके भी परम गुरु भगवान विष्णुकी मैं शरण लेता हूँ ' ॥१२८॥

श्रीपराशरजी बोले -

इस प्रकार मन - ही - मन सोचकर सौभरि मुनि पुत्र, गृह, आसन, परिच्छद आदि सम्पूर्ण पदार्थोको छोड़कर अपनी समस्त स्त्रियोंके सहित वनमें चले गये ॥१२९॥

वहाँ, वानप्रस्थोंके योग्य समस्त क्रियाकलापका अनुष्ठान करते हुए सम्पूर्ण पापोंका क्षय हो जानेपर तथा मनोवृत्तिके राग - द्वेषहीन हो जानेपर, आहवनीयादि अग्नियोंको अपनेमें स्थापित कर संन्यासी हो गये ॥१३०॥

फिर भगवान्‌में आसक्त हो सम्पूर्ण कर्मकलापका त्याग कर परमात्मपरायण पुरुषोंके अच्युतपद ( मोक्ष ) को प्राप्त किया, जो अजन्मा, अनादि, अविनाशी, विकार और मरणादि धर्मोसे रहित, इन्द्रियांदिसे अतीत तथा अनन्त है ॥१३१॥

इस प्रकार मान्धाताकी कन्याओंके सम्बन्धमें मैंने इस चरित्रका वर्णन किया है । जो कोई इस सौभरि चरित्रका स्मरण करता है, अथवा पढ़ता-पढ़ता, सुनता-सुनता, धारण करता - करता, लिखता-लिखवाता तथा सीखता-सिखाता अथवा उपदेश करता है उसके छः जन्मोंतक दुःसन्तति, असद्धर्म और वाणी अथवा मनकी कुमार्गमें प्रवृति तथा किसी भी पदार्थमें ममता नहीं होती ॥१३२-१३३॥

इति श्रीविष्णुपुराणे चतुर्थे‍ऽशे द्वितीयोऽध्यायः ॥२॥


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Last Updated : April 26, 2009

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