दानव्रततपोहोमजपस्वाध्यायसंयमैः ।
श्रेयोभिर्विविधैश्चान्यैः कृष्णे भक्तिर्हि साध्यते ॥
( श्रीमद्भा० १० । ४७ । २४ )
' दान, व्रत, तपस्या, यज्ञ, जप, वेदाध्ययन, इन्द्रियसंयम तथा अन्य अनेक प्रकारके पुण्यकमोद्वारा श्रीकृष्णचन्द्रकी भक्ति ही प्राप्त की जाती है । भक्तिकी प्राप्तिमें ही इन सब साधनोंकी सफलता हैं ।'
उद्धवजी साक्षात् देवगुरु बृहस्पतिके शिष्य थे । इनका शरीर श्रीकृष्णचन्द्रके समान ही श्यामवर्णका था और नेत्र कमलके समान सुन्दर थे । ये नीति और तत्त्व - ज्ञानकी मूर्ति थे । मथुरा आनेपर श्यामसुन्दरने इन्हें अपना अन्तरङ्ग सखा तथा मन्त्री बना लिया । भगवानने अपना सन्देश पहुँचाने तथा गोपियोंको सान्त्वना देने इनको व्रज भेजा । वस्तुतः दयामय भक्तवत्सल प्रभु अपने प्रिय भक्त उद्धवजीको व्रज एवं व्रजवासियोंके लोकोत्तर प्रेमका दर्शन कराना चाहते थे । उद्धवजी जब व्रज पहुँचे, नन्दबाबाने इनका बड़े स्नेहसे सत्कार किया । एकान्त मिलनेपर गोपियोंने घेरकर श्यामसुन्दरका समाचार पूछा । उद्धवजीने कहा -- ' व्रजदेवियो ! श्रीकृष्णचन्द्र तो सर्वव्यापी हैं । वे तुम्हारे हदयमें तथा समस्त जड - चेतनमें व्याप्त हैं । उनसे तुम्हारा वियोग कभी हो नहीं सकता । उनमें भगवदबुद्धि करके तुम सर्वत्र उनको ही देखो ।'
गोपीयाँ रो पड़ी । उनके नेत्र झरने लगे । उन्होंने कहा -- ' उद्धवजी ! आप ठीक कहते हैं । हमें भी सर्वत्र वे मयूर - मुकुटधारी ही दीखते हैं । यमुना - पुलिनमें, वृक्षोंमें लताओंमें, कुज्जोंमें -- सर्वत्र वे कमललोचन ही दिखायी पड़ते हैं हमें । उनकी वह श्याममूर्ति हदयसे एक क्षणको भी हटती नहीं ।' अनेक प्रकारसे वे विलाप करने लगीं ।
उद्धवजीमें जो तनिक - सा तत्त्वज्ञानकी प्राप्तिका गर्व था, वह व्रजके इस अलौकिक प्रेमको देखकर गल गया । वे कहने लगे -- ' मैं तो इन गोपकुमारियोंकी चरण - रजकी चन्दना करता हूँ, जिनके द्वारा गायी गयी श्रीहरिकी कथा तीनों लोकोंको पवित्र करती हैं । इस पृथ्वीपर जन्म लेना तो इन गोपाङ्गनाओंका ही सार्थक है; क्योंकि भवभयसे भीत मुनिगण तथा हम सब भी जिसकी इच्छा करते हैं, निखिलात्मा श्रीनन्दनन्दनमें इनका वही दृढ अनुराग है । श्रुति जिन भगवान् मुकुन्दका अबतक अन्वेषण ही करती है, उन्होंको इन लोगोंको स्वजन तथा घरकी आसक्ति एवं आर्यपथ -- लौकिक मर्यादाका मोह छोड़कर प्राप्त कर लिया । अतः मेरी तो इतनी ही लालसा है कि मैं इस वृन्दावनमें कोई भी लता, वीरुध, तृण आदि हो जाऊँ, जिसमें इनकी पदधूलि मुझे मिलती रहे ।'
उद्धवजी व्रजके प्रेम - रससे आप्लुत होकर लौटे । भगवानके साथ वे द्वारका गये । द्वारकामें श्यामसुन्दर इन्हें सदा प्रायः साथ रखते थे और राज्यकार्योंमें इनसे सम्मति लिया करते थे । जब द्वारकामें अपशकुन होने लगे, तब उद्धवजीने पहले ही भगवानके स्वधाम पधारनेका अनुमान कर लिया । भगवानके चरणोंमें इन्होंने प्रार्थना की -- ' प्रभो ! मैं तो आपका दास हूँ । आपका उच्छिष्ट प्रसाद, आपके उतारे वस्त्राभरण ही मैंने सदा उपयोगमें लिये हैं । आप मेरा त्याग न करें । मुझे भी आप अपने साथ ही अपने धाम ले चलें ।' भगवानने उद्धवजीको आश्वासन देकर तत्त्वज्ञानका उपदेश किया और बदरिकाश्रम जाकर रहनेकी आज्ञा दी ।
श्रीकृष्णचन्द्रने कहा है -- ' उद्धव ही मेरे इस लोकसे चले जानेपर मेरे ज्ञानकी रक्षा करेंगे । वे गुणोंमें मुझसे तनिक भी कम नहीं हैं । अतएव अधिकारियोंको उपदेश करनेके लिये वे यहाँ रहें ।'
भगवानके स्वधाम पधारनेपर उद्धवजी द्वारकासे मथुरा आये । यहीं विदुरजीसे उनकी भेंट हुई । अपने एक स्थूलरुपसे तो वे बदरिकाश्रम चले गये भगवानके आज्ञानुसार । और दूसरे सूक्ष्मरुपसे व्रजमें गोवर्धनके पास लता - वृक्षोंमें छिपकर निवास करने लगे । महर्षि शाण्डिल्यके उपदेशसे वज्रनाभने जब गोवर्धनके समीप संकीर्तन - महोत्सव किया, तब लताकुञ्जोंसे उद्धवजी प्रकट हो गये और एक महीनेतक वज्र तथा श्रीकृष्णकी रानियोको श्रीमद्भागवत सुनाकर अपने साथ नित्य व्रजभूमिमें वे ले गये ।
श्रीभगवानने स्वयं भक्तोंकी प्रशंसा करते हुए उद्धवसे कहा है --
न तथा मे प्रियतम आत्मयोनिर्न शङ्करः ।
न च सङ्कर्षणो न श्री र्नैवात्मा च यथा भवान् ॥
( श्रीमद्भा० ११ । १४ । १५ )
' मुझे तुम्हारे - जैसे प्रेमी भक्त जितने प्रिय हैं, उतने प्रिय मेरे पुत्र ब्रह्मा, आत्मा शङ्कर, श्रीबलरामजी, श्रीलक्ष्मीजी भी नहीं हैं । अधिक क्या, मेरा आत्मा भी मुझे उतना प्रिय नहीं है ।'