यत्प्रातः संस्कृतं चान्नं सायं तच्च विनश्यति ।
तदीयरससम्पुष्टे काये का नाम नित्यता ॥
' जो भोजन आज प्रातःकाल बनाया गया है, शामतक बह नष्ट हो जायगा -- सड़ने लगेगा । ऐसे अन्नके रससे ही वह शरीर पुष्ट हुआ है, फिर उसमें नित्यता या टिकाऊपन कैसा ?'
सुभद्राकुमार अभिमन्युकी पत्नी महाराज विराटकी पुत्री उत्तरा गर्भवती थीं । उनके उदरमें कौरव एवं पाण्डवोंका एकमात्र वंशधर था । अश्वत्थामाने उस गर्भस्थ बालकका विनाश करनेके लिये ब्रह्मास्त्रका प्रयोग किया । भयविह्नल उत्तरा भगवान् श्रीकृष्णकी शरणमें गयी । भगवानने उसे अभयदान दिया और बालककी रक्षाके लिये वे सूक्ष्मरुपसे उत्तराके गर्भमें स्वयं पहुँच गये । गर्भस्थ शिशुने देखा कि एक प्रचण्ड तेज चारों ओरसे समुद्रकी भाँति उमड़ता हुआ उसे भस्म करने आ रहा है । इसी समय बालकने अँगूठेके बराबर ज्योतिर्मय भगवानको अपने पास देखा । भगवान् अपने कमलनेत्रोंसे बालकको स्नेहपूर्वक देख रहे थे । उनके सुन्दर श्याम - वर्णपर पीताम्बरकी अद्भुत शोभा थी । मुकुट, कुण्डल, अङ्गद, किङ्किणी प्रभृति मणिमय आभरण उन्होंने धारण कर रक्खे थे । उनके चार भुजाएँ थी औ र उनमें शङ्ख, चक्र, गदा, पद्म थे । अपनी गदाको उल्काके समान चारों ओर शीघ्रतासे घुमाकर भगवान् उस उमड़ते आते अस्र - तेजको बराबर नष्ट करते जा रहे थे । बालक दस महीनेतक भगवानको देखता रहा । वह सोचता ही रहा -- ' ये कौन हैं ?' जन्मका समय आनेपर भगवान् वहाँसे अदृश्य हो गये । बालक मृत - सा उत्पन्न हुआ; क्योंकि जन्मके समय उसपर ब्रह्मास्रका प्रभाव पड़ गया था । तुरंत श्रीकृष्णचन्द्र प्रसूतिकागृहमें आये और उन्होंने उस शिशुको जीवित कर दिया । यही बालक परीक्षितके नामसे प्रसिद्ध हुआ ।
जब परीक्षित् बड़े हुए, पाण्डवोंने इन्हें राज्य सौंप दिया और स्वयं हिमालयपर चले गये । प्रतापी एवं धर्मात्मा परीक्षितने राज्यमें पूरी सुव्यवस्था स्थापित की । एक दिन जब थे दिग्विजय करने निकले थे, इन्होंने एक उज्ज्वल साँड़ देखा, जिसके तीन पैर टूट गये थे । केवल एक ही पैर शेष था । पास ही एक गाय रोती हुई उदास खड़ी थी । एक काले रंगका शूद्र राजाओंकी भाँति मुकुट पहने, हाथमें डंडा लिये गाय और बैलको पीट रहा था । यह जाननेपर कि गौ पृथ्वीदेवी हैं और वृषभ साक्षात् धर्म है तथा यह कलियुग शूद्र बनकर उन्हें ताड़ना दे रहा है -- परीक्षितने उस शूद्रको मारनेके लिये तलवार खींच ली । शूद्रने अपना मुकुट उतार दिया और वह परीक्षितके पैरोंपर गिर पड़ा । महाराजने कहा -- ' कलि ! तुम मेरे राज्यमें मत रहो । तुम जहाँ रहते हो, वहाँ असत्य, दम्भ, छल - कपट आदि अधर्म रहते हैं ।' कलिने प्रार्थना की - ' आप तो चक्रवर्ती सम्राट् हैं; अतः मैं कहाँ रहूँ, यह आप ही मुझे बता दें । मैं कभी आपकी आज्ञा नहीं तोडूँगा ।' परीक्षितने कलिको रहनेके लिये जुआ, शराब, स्त्री, हिंसा और स्वर्ण -- ये पाँच स्थान बता दिये । ये ही पाँचों अधर्मरुप कलिके निवास हैं । इनसे प्रत्येक कल्याणकामीको बचना चाहिये ।
एक दिन आखेट करते हुए परीक्षित् वनमें भटक गये । भूख और प्याससे व्याकुल वे एक ऋषिके आश्रममें पहुँचे । ऋषि उस समय ध्यानस्थ थे । राजाने उनसे जल माँगा, पुकारा; पर ऋषिको कुछ पता नहीं लगा । इसी समय कलिने राजापर अपना प्रभाव जनाया । उन्हें लगा कि जान - बूझकर ये मुनि मेरा अपमान करते हैं । पासमें ही एक मरा सर्प पड़ा था । उन्होंने उसे धनुपसे उठाकर ऋषिके गलेमें डाला -- यह परीक्षा करनेके लिये कि ऋषि ध्यानस्थ हैं या नहीं; और फिर वे राजधानी लौट गये । बालकोंके साथ खेलते हुए उन ऋषिके तेजस्वी पुत्रने जब यह समाचार पाया, तब शाप दे दिया -- ' इस दुष्ट राजाको आजके सातवें दिन तक्षक काट लेगा ।'
घर पहुँचनेपर परीक्षितको स्मरण आया कि ' मुझसे आज बहुत बड़ा अपराध हो गया ।' वे पश्चात्ताप कर ही रहे थे, इतनेमें शापकी बातका उन्हें पता लगा । इससे राजाको तनिक भी दुःख नहीं हुआ । अपने पुत्र जनमेजयको राज्य देकर वे गङ्गातटपर जा बैठे । सात दिनोंतक उन्होंने निर्जल व्रतका निश्चय किया । उनके पास उस समय बहुत - से ऋषि मुनि आये । परीक्षितने कहा -- ' ऋषिगण ! मुझे शाप मिला, यह तो मुझपर भगवानकी कृपा ही हुई । मैं विषयभोगोंमें आसक्त हो रहा था, दयामय भगवानने शापके बहाने मुझे उनसे अलग कर दिया । अब आप मुझे भगवानका पावन चरित सुनाइये ।' उसी समय वहाँ धूमते हुए श्रीशुकदेवजी पहुँच गये । परीक्षितने उनका पूजन किया । उनके पूछनेपर शुकदेवजीने सात दिनोंमें उन्हें पूरे श्रीमद्भागवतका उपदेश किया । अन्तमें परीक्षितने अपना चित्त भगवानमें लगा दिया । तक्षकने आकर उन्हें काटा और उसके विषसे उनका देह भस्म हो गया; पर वे तो पहले ही शरीरसे ऊपर उठ चुके थे । उनको इस सबका पतातक नहीं चला ।