धर्मार्थकाममोक्षाख्यं य इच्छेच्छ्रेय आत्मनः ।
एकमेव हरेस्तत्र कारणं पादसेवनम् ॥
( श्रीमद्भा० ४।८।४१ )
' जो कोई धर्म, अर्थ, काम या मोक्षरुप पुरुषार्थकी इच्छा करता हो, उसके लिये इन सबको देनेवाला इनका एकमात्र कारण श्रीहरिके श्रीचरणोंका सेवन ही हैं ।'
स्वायम्भुव मनुके दो पुत्र हुए - प्रियव्रत एवं उत्तानपाद । महाराज उत्तानपादकी दो रानियाँ थीं - सुनीति एवं सुरुचि । सुनीतिके पुत्र थे ध्रुव और सुरुचिके उत्तम । राजाको अपनी छोटी रानी सुरुचि अत्यन्त प्रिय थीं । सुनीतिसे महाराज उदासीनप्राय रहते थे । एक दिन महाराज उत्तानपाद सुरुचिके पुत्र उत्तमको गोदमें लेकर उससे स्नेह कर रहे थे, उसी समय वहाँ ध्रुव भी खेलते हुए पहुँचे और पिताकी गोदमें बैठनेकी उत्सुकता प्रकट करने लगे । राजाने उन्हें गोदमें नहीं उठाया तो वे मचलने लगे । वहाँ बैठी हुई छोटी रानीने अपनी सौतके पुत्र ध्रुवको मचलते देख ईर्ष्या और गर्वसे कहा - ' बेटा ! तूने मेरे पेटसे तो जन्म लिया नहीं है, फिर महाराजकी गोदमें बैठनेका प्रयत्न क्यों करता है ? तेरी यह इच्छा दुर्लभ वस्तुके लिये है । बच्चा होनेसे ही तू नहीं समझता कि किसी दूसरी स्त्रीका पुत्र राज्यासनपर नहीं बैठ सकता । यदि उत्तमकी भाँति तुझे भी राज्यासन या पिताकी गोदमें बैठना हो तो पहले तपस्या करके भगवानको प्रसन्न कर और उनकी कृपासे मेरे पेटसे जन्म ले ।'
तेजस्वी बालक ध्रुवको विमाताके ये वचन - बाण लग गये । उनका मुख क्रोधसे लाल हो गया, श्वास जोर - जोरसे चलने लगा । रोते हुए वे वहाँसे अपनी माताके पास चल पड़े । महाराज भी छोटी रानीकी बातें सुनकर प्रसन्न नहीं हुए; किंतु वे कुछ बोल न सके । ध्रुवकी माता सुनीतिने अपने रोते पुत्रको गोदमें उठा लिया । बड़े स्नेहसे पुचकारकर कारण पूछा । सब बातें सुनकर सुनीतिको बड़ी व्यथा हुई । वे भी रोती हुई बोलीं - ' बेटा ! सभी लोग अपने ही भाग्यसे सुख या दुःख पाते हैं, अतः दूसरेको अपने अमङ्गलका कारण नहीं मानना चाहिये । तुम्हारी विमाता ठीक ही कहती है कि तुमने दुर्भाग्यके कारण ही मुझ अभागिनीके गर्भसे जन्म लिया । मेरा अभाग्य इससे बड़ा और क्या होगा कि मेरे आराध्य महाराज मुझे अपनी भार्याकी भाँति राजसदनमें रखनेमें लज्जित होते हैं; परंतु बेटा ! तुम्हारी विमाताने जो शिक्षा दी है, वह निर्दोष है । तुम उसीका आचरण करो । यदि तुम्हें उत्तमकी भाँति राज्यासन चाहिये तो कमलनयन अघोक्षज भगवानके चरण - कमलोंकी आराधना करो । जिनके पादपद्मकी सेवा करके योगियोंके भी वन्दनीय परमेष्ठी - पदको ब्रह्माजीन प्राप्त किया तथा तुम्हारे पितामह भगवान् मनुने यज्ञोंके द्वारा जिनका यजन करके दूसरोंके लिये दुष्प्राप्य भूलोक तथा स्वर्गलोकके भोग एवं मोक्ष प्राप्त किया, उन्हीं भक्तवत्सल भगवानका आश्रय लो । अनन्यभावसे अपने मनको उनमें ही लगाकर उनका भजन करो । उन कमल - लोचन भगवानके अतिरिक्त तुम्हारा दुःख दूर करनेवाला और कोई नहीं है । भगवान् तो समस्त ऐश्वयोंके स्वामी हैं । जिन लक्ष्मीजीका दूसरे सब अन्वेषण करते हैं, वे भी हाथमें कमल लिये उन परम पुरुषके पीछे उनको ही ढूँढ़ती चलती हैं । अतएव तुम उन दयामय नारायणकी ही शरण लो ।'
माताकी बात सुनकर ध्रुवने अपने चित्तको स्थिर किया और पिताके नगरको छोड़कर वे वनकी ओर चल पड़े । जब कोई भगवानपर विश्वास करके उनकी ओर चल पड़ता है, तब वे दयामय उसकी सारी चिन्ता स्वयं करते हैं । आजकल गुरु ढूँढ़नेका, संत ढूँढ़नेका प्रयत्न बहुत लोग करते है; किंतु जाननेकी बात यह है कि ढूँढ़नेसे संत या गुरु नहीं मिला करते । संत तो भगवानके स्वरुप होते हैं । भगवानकी कृपासे सच्चे अधिकारीको ही वे मिलते हैं । उनको पानेका प्रयत्न नहीं करना पड़ता, वे स्वयं आते हैं । ध्रुव जब सब कुछ छोड़कर चल पड़े, तब उन्हें मार्गमें नारदजी मिले । देवर्षिने ध्रुवको समझाकर उन्हें लोभ और भय दिखलाकर लौटाना चाहा; किंतु उनकी दृढ़ निष्ठा और निश्चय देखकर द्वादशाक्षर मन्त्र ' ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ' की दीक्षा दी और भगवानकी पूजा तथा ध्यान - विधि बताकर यमुनातटपर मधुवनमें जानेका आदेश दिया । ध्रुवको भेजकर नारदजी महाराज उत्तानपादके पास आये । राजाने जबसे सुना था कि ध्रुव वनका चले गये, तबसे वे अत्यन्त चिन्तित थे । अपन व्यवहारपर उन्हे बड़ी ग्लानि हो रही थी । देवर्षिने आश्वासने देकर शान्त किया ।
भगवान् हैं, वे दयामय हैं और हमें मिलेंगे - जबतक ऐसी श्रद्धा पक्की न हो, तबतक भजनमें दृढ़ता तथा प्रेम नहीं आता । जो वस्तु मिलनी सम्भव न जान पड़ती हो, उसे पानेके लिये न तो इच्छा होती है और न प्रयत्न । जबतक मनमें यह बैठा है कि हमें भगवत्प्राप्ति भला कैसे होगी, तबतक भजनमें मन नहीं लगता । तभीतक हदयमें अनुराग जाग्रत् नहीं होता । हम चाहे जैसे हों, चाहे जितने पापी और अधम हों; पर भगवानकी कृपा हमारे पाप एवं अपराधोंसे अनन्त महान् है । वे उदारचक्र - चूड़ामणि अवश्य - अवश्य हमें अपनायेंगे । हम उन्हें पायेंगे, अवश्य पायेंगे, पाकर रहेंगे; क्योंकि वे करुणासागर हमें अपनाये बिना रह नहीं सकते । ऐसा दृढ़ विश्वास हो जानेपर ही भजन होता है । ध्रुवको तनिक भी सन्देह नहीं था भगवत्प्राप्तिमें । वे मधुवनमें यमुनातटपर पहुँचे । श्रीकालिन्दीके पापहारी प्रवाहमें स्त्रान करके जो कुछ फल - पुष्प मिल जाता, उससे भगवानकी पूजा करते हुए वे नारदजीसे प्राप्त द्वादशाक्षर मन्त्रका अखण्ड जप करने लगे । पहले महीने तीन दिन उपवास करके, चौथे दिन कैथ और बेर खा लिया करते थे । दूसरे महीनेमें सप्ताहमें एक बार वृक्षसे स्वयं टूटकर गिरे पत्ते या सूखे तृणका भोजन करके ध्रुव भगवानके ध्यानमें तन्मय रहने लगे । तीसरे महीने नौ दिन बीत जानेपर केवल एक बार वे जल पीते थे । चौथे महीने तो बारह दिनपर एक बार वायु - भोजन करना प्रारम्भ कर दिया उन्होंने और पाँचवें महीनेमें श्वास लेना भी छोड़ दिया । प्राणको वशमें करके भगवानका ध्यान करते हुए पाँच वर्षके बालक ध्रुव एक पैरसे निश्चल खड़े रहने लगे ।
पाँच वर्षके बालक ध्रुवने समस्त लोकोंके आधार, समस्त तत्त्वोंके अधिष्ठान भगवानको हदयमें स्थिररुपसे धारण कर लिया था । वे भगवन्मय हो गये थे । जब वे एक पैर बदलकर दूसरा रखते, तब उनके भारसे पृथ्वी जलमें नौकाकी भाँति डगमगाने लगती थी । उनके श्वास न लेनेसे तीनों लोकोंके प्राणियोंका श्वास बंद होने लगा । श्वासरोधसे पीड़ित देवता भगवानकी शरणमें गये । भगवानने देवताओंको आश्वासन दिया - ' बालक ध्रुव सम्पूर्ण रुपसे मुझमें चित्त लगाकर प्राण रोके हुए है, अतः उसके प्राणायामसे ही आप सबका श्वास रुका है । अब मैं जाकर उसे इस तपसे निवृन करुँगा ।'
भगवान् गरुड़पर बैठकर ध्रुवके पास आये; किंतु ध्रुव इतने तन्मय होकर ध्यान कर रहे थे कि उन्हें कुछ भी पत्ता नहीं लगा । श्रीहरिने अपना स्वरुप ध्रुवके हदयमेंसे अन्तर्हित कर दिया । हदयमें भगवानका दर्शन न पाकर व्याकुल होकर जब ध्रुवने नेत्र खोले तो अनन्त - सौन्दर्य - माधुर्यधाम भगवानको सामने देखकर उनके आनन्दकी सीमा नहीं रही । हाथ जोड़कर वे भगवानकी स्तुति करनेके लिये उत्सुक हुए; पर क्या स्तुति करें, यह समझ ही न सके । दयामय प्रभुने ध्रुवकी उत्कण्ठा देखी । अपने निखिल - श्रुतिरुप शङ्खसे बालकके कपोलको उन्होंने छू दिया । बस, उसी क्षण ध्रुवके हदयमें तत्त्वज्ञानका प्रकाश हो गया । वे सम्पूर्ण विद्याओंसे सम्पन्न हो गये । बड़े प्रेमसे बड़ी ही भावपूर्ण स्तुति की उन्होंने ।
भगवानने ध्रुवको वरदान देते हुए कहा - ' बेटा ध्रुव । तुमने माँगा नहीं, किंतु मैं तुम्हारी हार्दिक इच्छाको जानता हूँ । तुम्हें वह पद देता हूँ, जो दूसरोंके लिये दुष्प्राप्य है । उस पदपर अबतक दूसरा कोई भी पहुँचा नहीं है । सभी ग्रह, नक्षत्र, तारामण्डल उसकी प्रदक्षिणा करते हैं । पिताके वानप्रस्थ लेनेपर तुम पृथ्वीका दीर्घकालतक शासन करोगे और फिर अन्तमें मेरा स्मरण करते हुए उस सर्वश्रेष्ठ, ब्रह्माण्डके केन्द्रभूत धाममें पहुँचोगे, जहाँ जाकर फिर संसारमें लौटना नहीं पड़ता ।' इस प्रकार वरदान देकर भगवान् अन्तर्धान हो गये ।
भगवानके सच्चे भक्त अपने स्वामीसे उनके अतिरिक्त और कुछ नहीं माँगते । ध्रुवको भगवानके अन्तर्धान होनेपर बड़ा खेद हुआ । वे मन - ही - मन कहने लगे - ' मेरी बहिमुखता कितनी बड़ी है, मैं कितना मन्दभाग्य हूँ कि संसारचक्रको सर्वथा समाप्त कर देनेवाले श्रीनारायणके चरणोंको प्राप्त करके भी मैंने उनसे केवल नश्वर भोग माँगे ( कल्पान्तमें अन्ततः वह ब्रह्माण्डकेन्द्र भी नष्ट ही होगा ) । अवश्य ही असहिष्णु देवताओंने मेरी बुद्धिमें भ्रम उत्पन्न कर दिया था । देवर्षिने तो मुझसे ठीक ही कहा था । उन्होंने तो मुझे मोक्षके लिये की भगवानको प्राप्त करनेका आदेश दिया और ईर्ष्या - द्वेष, मानापमानको तुच्छ मानकर छोड़ देनेको कहा; पर मैंने उनकी तथ्यपूर्ण वाणीको ग्रहण नहीं किया । मैंने जो श्रेष्ठ पद माँगा, वह तो नश्वर है; व्यर्थ ही मैंने उसकी याचना की । जगदात्मा, परम दुर्लभ, भवभयहारी भगवानको तपसे प्रसन्न करके भी मैंने संसार - संसारका ही भोग ( ध्रुवपद ) माँगा । मैं कितना अभागा हूँ ।' इस प्रकार अपनेको धिक्कारते हुए वे धरको लौटे । जो भगवानकी ओर लग जाता है, उसकी सभी प्रतिकूलताएँ अनुकूलतामें बदल जाती हैं । जिसपर वे निखिलात्मा भगवान् प्रसन्न हो जाते हैं, उसपर सभी प्राणी प्रसन्न हो जाते हैं । सभी उसका आदर करते हैं । शत्रु भी शत्रुता छोड़कर उसके मित्र बन जाते हैं । ध्रुवके वन जाते ही महाराज उत्तानपादके हदयमें बड़ा भारी परिवर्तन हो गया । वे पुत्रके अनुरागसे व्याकुल हो गये । वे ध्रुवकी माताका बहुत अधिक सम्मान करने लगे । राज्य, भोग तथा सब सुख उन्हें फीके लगने लगे । वे केवल ध्रुवका ही रात - दिन चिन्तन करने लगे । जब उन्हें ध्रुवके लौटनेका समाचार मिला, तब उनके हर्षका पार न रहा । बड़े उत्साहसे बाजे - गाजेसे हाथियोंको सजाकर रानियों, मन्त्रियों, ब्राह्मणोंके साथ वे पुत्रको आगे लेने गये । नगरसे बाहर जैसे ही बालक ध्रुव आते दीख पड़े, राजा हाथीसे भूमिपर उतर पड़े । उन्होंने भूमिपर लेटकर प्रणाम करते पुत्रको गोदमें उठाकर हदयसे लगा लिया । उनके नेत्रोंसे आँसुओंकी धारा चलने लगी । ध्रुवने पिताके पश्चात् विमाता सुरुचिको प्रणाम किया । सुरुचिने भी उन्हें गोदमे ले लिया और वह कण्ठ रुक जानेके केवल इतना बोल सकी - ' बेटा ! जीते रहो ।' माता सुनीतिको तो अपने प्राणोंके समान पुत्र मिला था । सब लोग सुनीतिके पुण्य - प्रभावकी त्रशंसा कर रहे थे । नगर भलीभाँति सजाया गया था । बड़े सत्कारपूर्वक ध्रुवको महाराज राजभवनमें ले आये ।
कुछ दिनोंके पीछे महाराजको वैराग्य हो गया । ध्रुवका उन्होंने राज्याभिषेक कर दिया और स्वयं भगवानका भजन करने तपोवन चले गये । ध्रुवकी विमाता सुरुचिके पुत्र उत्तमका विवाह नहीं हुआ था । एक दिन वनमें आखेट करते समय वे कुबेरकी अलकापुरीके पास हिमालयपर पहुँच गये । वहाँ यक्षोंसे विवाद हो गया और यक्षोंने उन्हें मार डाला । भाईकी मृत्यु सुनकर ध्रुवको बड़ा क्षोभ हुआ । उन्होंने भक्षपुरीपर आक्रमण कर दिया । बड़ा ही प्रचण्ड संग्राम हुआ । बहुत - से यक्ष मारे गये । अन्तमें ब्रह्मलोकसे आकर भगवान् मनुने ध्रुवको समझाया - ' बेटा ! ये यक्ष उपदेव हैं । इनके स्वामी कुबेरजी भगवान् शङ्करके सखा हैं । तुम्हें उनका सम्मान करना चाहिये । प्राणी अपने ही कर्मसे जीवन या मृत्यु पाता है । यक्ष तो निरपराध हैं । यदि किसीने अपराध किया भी हो तो एकके अपराधके बदले दूसरे बहुतोंको दण्ड देना उचित नहीं हैं । क्रोध छोड़कर तुम कुबेरजीसे क्षमा माँग लो ।' ध्रुवने पितामहकी आज्ञा स्वीकार कर ली । उनके युद्धसे अलग हो जानेपर कुबेरजीने उन्हे दर्शन दिया और वरदान माँगनेको कहा । ध्रुवने वरदान माँगा - ' भगवानके चरणोंमें मेरा अविचल अनुरोग हो ।' वरदान देकर कुबेरजी अदृश्य हो गये । ध्रुव अपनी राजधानीको लौट आये ।
भोगोंसे विरक्त होकर, चित्तको भगवानमें लगाये हुए दीर्घकालतक ध्रुवने राज्य किया । अन्तमें वे सम्पूर्ण भूमण्डलके अधिपति भोगोंसे विरक्त होकर बदरिकाश्रम पहुँचे । वहाँ मन्दाकिनीमें स्त्रान करके वे भगवानका एकान्त चित्तसे ध्यान करने लगे । उसी समय आकाशसीक दिव्य विमान आया । विमानके साथ भगवानके पार्षद भी आये । भगवत्पार्षदोंको देखकर भगवन्नामोंका कीर्तन करते हुए ध्रुवने उन्हें साष्टाङ्ग प्रणिपात किया । पार्षदोने कहा - ' राजन् ! हम भगवान् नारायणके पार्षद हैं । आपने भगवानको अपने तपसे प्रसन्न किया था । अब आप इस विमानपर बैठकर उस दिव्य लोकको चलें, जिसकी सभी ग्रह - नक्षत्रादि प्रदक्षिणा करते हैं ।'
ध्रुवने स्नान किया । वहाँके ऋषि - मुनियोंको प्रणाम किया । उनका आशीर्वाद लेकर जब वे विमानमें बैठने लगे, तब उनका शरीर दिव्य हो गया । उसी समय वहाँ मृत्युदेवता आये । मृत्युने कहा - ' मेरा स्पर्श किये बिना कोई इस लोकसे न जाय, ऐसी मर्यादा हैं ।' ध्रुवने उन मृत्युदेवके मस्तकपर पैर रक्खा और विमानपर चढ़ गये । भगवानके भक्तोंका चरण - स्पर्श पाकर मृत्युदेव भी धन्य होते हैं । विमानमें जाते हुए ध्रुवने अपनी माताका स्मरण किया । भगवानके पार्षदोंने आगे - आगे विमानसे जाती सुनीतिदेवीको दिखाया । ऐसे पुत्रकी जननी धन्य है । भगवदभक्त अपने पूरे कुलको तार देता है ! ध्रुव आज भी अपने अविचल धाममें भगवानका भजन करते निवास करते हैं । ध्रुवतारा उनका वही ज्योतिर्मय धाम है ।