आरण्यक


भक्तो और महात्माओंके चरित्र मनन करनेसे हृदयमे पवित्र भावोंकी स्फूर्ति होती है ।


राम नाम बिनु गिरा न सोहा । देखु बिचारि त्यागि मद मोहा ॥

त्रेतायुगमें भगवान् श्रीरामका अवतार हुआ, उससे पहलेकी बात है । आरण्यक मुनि परमात्मतत्त्वको जानकर परम शान्ति पानेके लिये घोर तपस्या कर रहे थे । दीर्घकालीन तपसे भी जब सफलता नहीं मिली, तब मुनि किसी ज्ञानी महापुरुषकी खोज करने लगे । वे अनेक तीथोंमें घूमे, बहुत लोगोंसे मिले; पर उनको सन्तोष नहीं हुआ । एक दिन उन्होंने तीर्थयात्राके लिये तपोलोकसे पृथ्वीपर उतरते दीर्घजीवी लोमश ऋषिके दर्शन किये । वे ऋषिके समीप गये और चरणोंमें प्रणाम करके नम्रतापूर्वक प्रार्थना की - ' भगवान् ! दुर्लभ मनुष्य शरीर पाकर जीव किस उपायसे दुस्तर संसारसागरको पार कर सकता है ? आप दया करके मुझे कोई ऐसा व्रत, दान, जप, यज्ञ या देवाराधन बतलाइये, जिससे मैं इस भवसागरसे पार हो सकूँ ।'
महर्षि लोमशने कहा - ' दान, तीर्थ, व्रत, यम, नियम, यज्ञ, योग, तप आदि सभी उत्तम कर्म हैं; किंतु इनका फल स्वर्ग है । जबतक पुण्य रहता है, प्राणी स्वर्गके सुख भोगता है और पुण्य समाप्त होनेपर नीचे गिर जाता है । जो लोग स्वर्गसुखके लिये ही पुण्यकर्म करते हैं, वे कुछ भी शुभ कर्म न करनेवाले मूढ़ लोगोंसे तो उत्तम हैं; पर बुद्धिमान् नहीं हैं । देखो, मैं तुम्हें एक उत्तम रहस्य बतलाता हूँ -- ' भगवान् श्रीरामसे बड़ा कोई देवता नहीं, रामसे उत्तम कोई व्रत नहीं, रामसे श्रेष्ठ कोई योग नहीं और रामसे उत्कृष्ट कोई यज्ञ नहीं । श्रीराम नामका जप तथा श्रीरामका पूजन करनेसे मनुष्य इस लोक तथा परलोकमें भी सुखी होता है । श्रीरामकी शरण लेकर प्राणी अनायास संसार - सागरको पार कर जाता है । श्रीरामका स्मरण - ध्यान करनेसे मनुष्यकी सभी कामनाएँ पूर्ण होती हैं और उसे परम पद प्राप्त करानेवाली भक्ति भी श्रीराम देते हैं । जो उत्तम कुलमें उत्पन्न हुए हैं, उनकी तो चर्चा ही क्या, चाण्डाल भी श्रीरामका प्रेमपूर्वक स्मरण करके परम गति पाता है । श्रीराम ही एकमात्र परम देवता है, श्रीरामका पूजन ही प्रधान व्रत हैं, राम - नाम ही सर्वोत्तम मन्त्र है और जिनमें रामकी स्तुति है, वे ही उत्तम शास्त्र हैं । अतएव तुम मन लगाकर श्रीरामका ही भजन, पूजन एवं ध्यान करो ।'
आरण्यक मुनिको बड़ी प्रसन्नता हुई यह उपदेश सुनकर । उन्होंने महर्षि लोमशसे ध्यान करनेके लिये श्रीरामके स्वरुपको जानना चाहा । महर्षिने कहा - ' रमणीय अयोध्या नगरीमें कल्पतरुके नीचे विचित्र मण्डपमें भगवान् श्रीरामचन्द्र विराजमान हैं । महामरकतमणि, नीलकान्तमणि और स्वर्णसे बना हुआ अत्यन्त मनोहर उनका सिंहासन है । सिंहासनकी प्रभा चारों ओर छिटक रही है । नवदूर्वादलश्याम सौन्दर्यसागर देवेन्द्रपूजित भगवान् श्रीरघुनाथजी सिंहासनपर बैठे अपनी छटासे मुनियोंका मन हरण कर रहे हैं । उनका मनोमुग्धकारी मुखमण्डल करोड़ों चन्द्रमाओंकी छविको लज्जित कर रहा है । उनके कानोंमें दिव्य मकराकृति कुण्डल झलमला रहे हैं, मस्तकपर किरीट सुशोभित है । किरीटमें जड़ी हुई मणियोंकी रंग - बिरंगी प्रभासे सारा शरीर रञ्जित हो रहा है । मस्तकपर काले घुँघराले केश हैं । उनके मुखमें सुधाकरकी किरणों - जैसी दन्तपंक्ति शोभा पा रही है । उनके होठ और अधर विद्रुममणि - जैसे मनोहर कान्तिमय हैं । जिसमें अन्यान्य शास्त्रोंसहित ऋक्, साम आदि चारों वेदोंकी नित्य - स्फूर्ति हो रही है, जवाकुसुमके समान ऐसी मधुमय रसना उनके मुखके भीतर शोभा पा रही है । उनकी सुन्दर देह कम्बु - जैसे कमनीय कण्ठसे सुशोभित है । उनके दोनों कन्धे सिंह - स्कन्धोंकी तरह ऊँचे और मांसल हैं । उनकी लंबी भुजाएँ घुटनोंतक पहुँची हुई हैं । अँगूठीमें जड़े हुए हीरोंकी आभासे अँगुलियाँ चमक रही हैं । केयूर और कङ्कण निराली ही शोभा दे रहे हैं । उनका सुमनोहर विशाल वक्षःस्थल श्रीलक्ष्मी और श्रीवत्सादि विचित्र चिह्नोंसे विभूषित है । उदरमें त्रिवली है, गम्भीर नाभि है और मनोहर कटिदेश मणियोंकी करधनीसे सुशोभित है । उनकी सुन्दर निर्मल जंघाएँ और मनोहर घुटने हैं । योगिराजोंके ध्येय उनके परम मङ्गलमय चरणयुगलमें वज्र, अङ्कुश, जौ और ध्वजादिके चिह्न अङ्कित हैं । हाथोंमें धनुष - बाण और कन्धेपर तरकस शोभित है । मस्तकपर सुन्दर तिलक है और अपनी इस छविसे वे सबका चित्त जबरदस्ती अपनी ओर खींच रहे हैं ।'
इस प्रकार भगवानके मङ्गलमय तथा छविमय दिव्य स्वरुपका वर्णन करके लोमशजीने कहा - ' मुनि ! तुम इस प्रकार भगवान् श्रीरामका ध्यान और स्मरण करोगे तो अनायास ही संसार - सागरसे पार हो जाओगे ।'
लोमशजीकी बात सुनकर आरण्यक मुनिने उनसे विनम्र शब्दोंमें कहा - ' भगवन् ! आपने कृपा करके मुझे भगवान् श्रीरामका ध्यान बतलाया सो बड़ा ही अच्छा किया, मैं आपके उपकारके भारसे दब गया हूँ; परंतु नाथ ! इतना और बतलाइये कि ये श्रीराम कौन है, इनका मूलस्वरुप क्या है और ये अवतार क्यों लेते हैं ?'
महर्षि लोमशजीने कहा - ' हे वत्स ! पूर्ण सनातन परात्पर परमात्मा ही श्रीराम हैं । समस्त विश्व - ब्रह्माण्डोंकी उत्पत्ति इन्हीसे हुई है; यही सबके आधार, सबमें फैले हुए, सबके स्वामी, सबके सृजन, पालन और संहार करनेवाले हैं । सारा विश्व इन्हींकी लीलाका विकास है । समस्त योगेश्वरोंके भी परम ईश्वर दयासागर ये प्रभु जीवोंकी दुर्गति देखकर उन्हें घोर नरकसे बचानेके लिये जगतमें अपनी लीला और गुणोंका विस्तार करते हैं, जिनका गान करके पापी - से - पापी मनुष्य भी तर जाते हैं । ये श्रीराम इसी हेतु अवतार धारण करते हैं ।'
इसके बाद लोमशजीने भगवान् श्रीरामका पवित्र चरित्र संक्षेपमें सुनाया और कहा - ' त्रेताके अन्तमें भगवान् श्रीराम अवतार धारण करेंगे । उस समय जब वे अश्वमेध यज्ञ करने लगेंगे, तब अश्वके साथ उनके छोटे भाई शत्रुघ्नजी आपके आश्रममें पधारेगें । तब आप श्रीरामके दर्शन करके उनमें लीन हो सकेंगे ।'
महर्षि लोमशके उपदेशानुसार आरण्यक मुनि रेवा नदीके किनारे एक कुटिया बनाकर रहने लगे । वे निरन्तर राम - नामका जप करते थे और श्रीरामके पूजन - ध्यानमें ही लगे रहते थे । बहुत समय बीत जानेपर जब अयोध्यामें मर्यादापुरुषोत्तमने श्रीराघवेन्द्रके रुपमें अवतार धारण करके लंका - विजय आदि लीलाएँ सम्पन्न कर लीं और अयोध्यामें वे अश्वमेध यज्ञ करने लगे, तब यज्ञका अश्व छोड़ा गया । अश्वके पीछे - पीछे उसकी रक्षा करते हुए बड़ी भारी सेनाके साथ शत्रुघ्नजी चल रहे थे । अश्व जब रेवातपटर मुनिके आश्रमके समीप पहुँचा, शत्रुघ्नजीने अपने साथी सुमतिसे पूछा - ' यह किसका आश्रम है ?' सुमतिसे परिचय प्राप्त कर वे मुनिकी कुटियापर गये । मुनिने उनका स्वागत किया और शत्रुघ्नजीका परिचय पाकर तो वे आनन्दमग्न हो गये । ' अब मेरी बहुत दिनोंकी इच्छा पूरी होगी । अब मैं अपने नेत्रोंसे भगवान् श्रीरामके दर्शन करुँगा । मेरा जीवन धारण करना अब सफल हो जायगा ।' इस प्रकार सोचते हुए मुनि अयोध्याकी ओर चल पड़े ।
आरण्यक मुनि देवदुर्लभ परम रमणीय अयोध्या नगरीमें पहुँचे । उन्होंने सरयूके तटपर यज्ञशालामें यज्ञकी दीक्षा लिये, नियमके कारण आभूषणरहित, मृगचर्मका उत्तरीय बनाये, हाथमें कुश लिये, नवदूर्वादलश्याम श्रीरामको देखा । वहाँ दीन - दरिद्रोंको मनमानी वस्तुएँ दी जा रही थीं । विप्रोंका सत्कार हो रहा था । ऋषिगण मन्त्रपाठ कर रहे थे; परंतु आरण्यक मुनि तो एकटक श्रीरामकी रुप माधुरी देखते हुए जहाँ - के - तहाँ खड़े रह गये । उनका शरीर पुलकित हो गया । वे वेसुध - से होकर उस भुवनमङ्गल छविको देखते ही रहे । मर्यादापुरुषोत्तमने तपस्वी मुनिको देखा और देखते ही वे उठ खड़े हुए । इन्द्रादि देवता तथा लोकपाल भी जिनके चरणोंमें मस्तक झुकाते हैं, वे ही सर्वेश्वर श्रीराम ' मुनिवर ! आज आपके पधारनेसे मैं पवित्र हो गया ।' यह कहकर मुनिके चरणोंपर गिर पड़े । तपस्वी आरण्यक मुनिने झटपट अपनी भुजाओंसे उठाकर श्रीरामको हदयसे लगा लिया । इसके पश्चात् मुनिको उच्चासनपर बैठाकर राघवेन्द्रने स्वयं अपने हाथसे उनके चरण धोये और वह चरणोदक अपने मस्तकपर छिड़क लिया । भगवान् ब्रह्मण्यदेव हैं । उन्होंने ब्राह्मणकी स्तुति की - ' मुनिश्रेष्ठ ! आपके चरणजलसे मैं अपने बन्धु - बान्धवोंके साथ पवित्र हो गया । आपके पधारनेसे मेरा अश्वमेध यज्ञ सफल हो गया । अब निश्चय ही मैं आपकी चरणरजसे पवित्र होकर इस यज्ञद्वारा रावण - कुम्भकर्णादि ब्राह्मण - सन्तानके वधके दोषसे छूट जाऊँगा ।'
भगवानकी प्रार्थना सुनकर मुनिने कुछ हँसते हुए कहा - ' प्रभो ! मर्यादाके आप ही रक्षक हैं, वेद तथा ब्राह्मण आपकी ही मूर्ति हैं । अतएव आपके लिये ऐसी बातें करना ठीक ही है । दूसरे राजाओंके सामने उच्च आदर्श रखनेके लिये ही आप ऐसा आचरण कर रहे हैं । ब्रह्महत्याके पापसे छूटनेके लिये आप अश्वमेध यज्ञ कर रहे हैं, यह सुनकर मैं अपनी हँसी रोक नहीं पाता । मर्यादापुरुषोत्तम ! आपका मर्यादापालन धन्य है । सारे शास्त्रोंके विपरीत आचरण करनेवाला सर्वथा मूर्ख और महापापी भी जिसका नाम - स्मरण करते ही पापोंके समुद्रको भी लाँघकर परमपद पा जाता है, वह ब्रह्महत्याके पापसे छूटनेके लिये अश्वमेध यज्ञ करे - यह क्या कम हँसीकी बात है ? भगवन् ! जबतक मनुष्य आपके नामका भलीभाँति उच्चारण नहीं करता, तभीतक उसे भय देनेके लिये बड़े - बड़े पाप गरजा करते हैं । रामानामरुपी सिंहकी गर्जना सुनते ही महापापरुपी गजोंका पतातक नहीं लगता । मैंने मुनियोसे सुना है कि जबतक रामनामका भलीभाँति उच्चारण नहीं होता, तभीतक पापी मनुष्योंको पाप - ताप भयभीत करते हैं । श्रीराम ! आज मैं धन्य हो गया । आज आपके दर्शन पाकर मैं संसारके तापसे छूट गया ।'
भगवान् श्रीरामने मुनिके वचन सुनकर उनका पूजन किया । सभी ऋषि - मुनि भगवानकी यह लीला खकर कहा - ' मुनिगण ! आपलोग मेरे भाग्यको तो देखें कि सर्वलोकमहेश्वर श्रीराम मुझे प्रणाम करते हैं । ये सबके परमाराध्य मेरा स्वागत करते हैं । श्रुतियाँ जिनके चरणकमलोंकी खोज करती हैं, वे मेरा चरणोदक लेकर अपनेको पवित्र मानते हैं । मैं आज धन्य हो गया !' यह कहते - कहने सबके सामने ही मुनिका ब्रह्मरन्ध्र फट गया । बड़े जोरका धड़ाका हुआ । स्वर्गमें दुन्दुभियाँ बजने लगीं । देवता फूलोंकी वर्षा करने लगे । ऋषि - मुनियोंने देखा कि आरण्यक मुनिके मस्तकसे एक विचित्र तेज निकला और वह श्रीरामके मुखमें प्रविष्ट हो गया !

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Last Updated : September 19, 2011

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