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त्रिलोचन - परिचय
कवि त्रिलोचन को हिन्दी साहित्य की प्रगतिशील काव्यधारा का प्रमुख हस्ताक्षर माना जाता है।
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कवी त्रिलोचन - वसंत
कवि त्रिलोचन को हिन्दी साहित्य की प्रगतिशील काव्यधारा का प्रमुख हस्ताक्षर माना जाता है।
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कवी त्रिलोचन - दुखों की छाया
कवि त्रिलोचन को हिन्दी साहित्य की प्रगतिशील काव्यधारा का प्रमुख हस्ताक्षर माना जाता है।
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कवी त्रिलोचन - आकांक्षा
कवि त्रिलोचन को हिन्दी साहित्य की प्रगतिशील काव्यधारा का प्रमुख हस्ताक्षर माना जाता है।
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कवी त्रिलोचन - इच्छा
कवि त्रिलोचन को हिन्दी साहित्य की प्रगतिशील काव्यधारा का प्रमुख हस्ताक्षर माना जाता है।
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कवी त्रिलोचन - कला के अभ्यासी
कवि त्रिलोचन को हिन्दी साहित्य की प्रगतिशील काव्यधारा का प्रमुख हस्ताक्षर माना जाता है।
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कवी त्रिलोचन - विनिमय
कवि त्रिलोचन को हिन्दी साहित्य की प्रगतिशील काव्यधारा का प्रमुख हस्ताक्षर माना जाता है।
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कवी त्रिलोचन - मैं कृतज्ञ हूँ
कवि त्रिलोचन को हिन्दी साहित्य की प्रगतिशील काव्यधारा का प्रमुख हस्ताक्षर माना जाता है।
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कवी त्रिलोचन - मार्ग
कवि त्रिलोचन को हिन्दी साहित्य की प्रगतिशील काव्यधारा का प्रमुख हस्ताक्षर माना जाता है।
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कवी त्रिलोचन - असमंजस
कवि त्रिलोचन को हिन्दी साहित्य की प्रगतिशील काव्यधारा का प्रमुख हस्ताक्षर माना जाता है।
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कवी त्रिलोचन - रजनीगंधा
कवि त्रिलोचन को हिन्दी साहित्य की प्रगतिशील काव्यधारा का प्रमुख हस्ताक्षर माना जाता है।
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कवी त्रिलोचन - हृदय की लिपि
कवि त्रिलोचन को हिन्दी साहित्य की प्रगतिशील काव्यधारा का प्रमुख हस्ताक्षर माना जाता है।
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कवी त्रिलोचन - कवि शमशेर से
कवि त्रिलोचन को हिन्दी साहित्य की प्रगतिशील काव्यधारा का प्रमुख हस्ताक्षर माना जाता है।
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कवी त्रिलोचन - कर्म की भाषा
कवि त्रिलोचन को हिन्दी साहित्य की प्रगतिशील काव्यधारा का प्रमुख हस्ताक्षर माना जाता है।
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कवी त्रिलोचन - अनुराग
कवि त्रिलोचन को हिन्दी साहित्य की प्रगतिशील काव्यधारा का प्रमुख हस्ताक्षर माना जाता है।
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कवी त्रिलोचन - मधुमालती
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कवी त्रिलोचन - विपर्याय
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कवी त्रिलोचन - जो है सो है
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कवी त्रिलोचन - ऐसा ही था
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कवी त्रिलोचन - कह नहीं सकता
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कवी त्रिलोचन - पयोद और धरणी
कवि त्रिलोचन को हिन्दी साहित्य की प्रगतिशील काव्यधारा का प्रमुख हस्ताक्षर माना जाता है।
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कवी त्रिलोचन - नन्हे
कवि त्रिलोचन को हिन्दी साहित्य की प्रगतिशील काव्यधारा का प्रमुख हस्ताक्षर माना जाता है।
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त्रिलोचन
कवि त्रिलोचन को हिन्दी साहित्य की प्रगतिशील काव्यधारा का प्रमुख हस्ताक्षर माना जाता है।
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कवी त्रिलोचन - कातिक का पयान
कवि त्रिलोचन को हिन्दी साहित्य की प्रगतिशील काव्यधारा का प्रमुख हस्ताक्षर माना जाता है।
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कवी त्रिलोचन - टूटा हृदय
कवि त्रिलोचन को हिन्दी साहित्य की प्रगतिशील काव्यधारा का प्रमुख हस्ताक्षर माना जाता है।
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कवी त्रिलोचन - अच्छाई
कवि त्रिलोचन को हिन्दी साहित्य की प्रगतिशील काव्यधारा का प्रमुख हस्ताक्षर माना जाता है।
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कवी त्रिलोचन - पवन शान्त नहीं है
कवि त्रिलोचन को हिन्दी साहित्य की प्रगतिशील काव्यधारा का प्रमुख हस्ताक्षर माना जाता है।
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कवी त्रिलोचन - अधिभूत
कवि त्रिलोचन को हिन्दी साहित्य की प्रगतिशील काव्यधारा का प्रमुख हस्ताक्षर माना जाता है।
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कवी त्रिलोचन - झापस
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कवी त्रिलोचन - प्रकाश के रंग
कवि त्रिलोचन को हिन्दी साहित्य की प्रगतिशील काव्यधारा का प्रमुख हस्ताक्षर माना जाता है।
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कवी त्रिलोचन - सारनाथ
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कवी त्रिलोचन - स्वर
कवि त्रिलोचन को हिन्दी साहित्य की प्रगतिशील काव्यधारा का प्रमुख हस्ताक्षर माना जाता है।
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कवी त्रिलोचन - घटना
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कवी त्रिलोचन - कठिन यात्रा
कवि त्रिलोचन को हिन्दी साहित्य की प्रगतिशील काव्यधारा का प्रमुख हस्ताक्षर माना जाता है।
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कवी त्रिलोचन - क्षण की खिड़की
कवि त्रिलोचन को हिन्दी साहित्य की प्रगतिशील काव्यधारा का प्रमुख हस्ताक्षर माना जाता है।
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कवी त्रिलोचन - बात क्या है
कवि त्रिलोचन को हिन्दी साहित्य की प्रगतिशील काव्यधारा का प्रमुख हस्ताक्षर माना जाता है।
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कविता संग्रह - चैती
कवि त्रिलोचन को हिन्दी साहित्य की प्रगतिशील काव्यधारा का प्रमुख हस्ताक्षर माना जाता है।
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त्रिलोचन
Meanings: 12; in Dictionaries: 4
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शिवपंचाक्षरस्तोत्र - ॐ नागेन्द्रहाराय त्रिलोचन...
देवी देवतांची स्तुती करताना म्हणावयाच्या रचना म्हणजेच स्तोत्रे. स्तोत्रे स्तुतीपर असल्याने, त्यांना कोणतेही वैदिक नियम नाहीत. स्तोत्रांचे पठण केल्याने इच्छित फल प्राप्त होते. In Hinduism, a Stotra is a hymn of praise, that praise aspects of Devi and Devtas. Stotras are invariably uttered aloud and consist of chanting verses conveying the glory and attributes of God.
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भजन - गावैं गुनी , गनिका , गन्ध...
हरिभक्त कवियोंकी भक्तिपूर्ण रचनाओंसे जगत्को सुख-शांती एवं आनंदकी प्राप्ति होती है।
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भूपाळी शंकराची - उठोनिया प्रात: काळीं । वद...
वेदान्तशास्त्र हे नुसते बुध्दिगम्य व वाक्चातुर्यदर्शक शास्त्र नसून प्रत्यक्ष अनुभवगम्य शास्त्र आहे हे या ग्रन्थातून स्पष्ट होते.
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घोटणें
Meanings: 5; in Dictionaries: 2
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भैरोनाथ जी - जै जै भैरव बाबा, स्वामी ज...
आरती हिन्दू उपासना की एक विधि है Aarti, ãrti, arathi, or ãrati is a Hindu ritual
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गणपतीची आरती - जय जय सिद्धिविनायक गणपत स...
Ganapati Arati - Prayer to Lord Ganesha गणपतीची आरती - जय जय सिद्धिविनायक
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शंकराची आरती - आरती परम ईश्वराची । दिगं...
देवीदेवतांची काव्यबद्ध स्तुती म्हणजेच आरती. The poem composed in praise of God is Aarti.
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अथैकोनसप्ततितमः पटलः - शाकिनीसदाशिवस्तवनम
शाकिणीसदाशिवस्तवनमङ्गलाष्टोत्तरसहस्त्रनामविन्यासः
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केदारखण्डः - अध्यायः २६
॥ लोमश उवाच ॥ तत्रोपविविशुः सर्वे सत्कृताश्च हिमाद्रिणा ॥ ते देवाः सपरिवाराः सहर्षाश्च सवाहनाः ॥१॥ तत्रैव च महामात्रं निर्मितं विश्वकर्मणा ॥ दीप्त्या परमया युक्तं निवासार्थं स्वयम्भुवः ॥२॥ तथैव विष्णोस्त्वपरं भवनं स्वयमेव हि ॥ भास्वरं सुविचित्र च कृतं त्वष्ट्रा मनोरमम् ॥ वण्डीगृहं मनोज्ञं च तथैव कृतवान्स्वयम् ॥३॥ तथैव श्वेतं परमं मनोज्ञं महाप्रभं देववरैः सुपूजितम् ॥ कैलासलक्ष्मीप्रभया महत्या सुशोभितं तद्भवनं चकार ॥४॥ तत्रैव शंभुः परया विभूत्या स स्थापितस्तेन हिमाद्रिणा वै ॥५॥ एतस्मिन्नंतरे मेना समायाता सखीगणैः ॥ नीराजनार्थं शंभुं च ऋषिभिः परिवारिता ॥६॥ तदा वादित्रदिर्घोपैर्नादितं भुवनत्रयम् ॥ नीराजनं कृतं तस्य मेनया च तपस्विनः ॥७॥ अवलोक्य परा साध्वी मेनाऽजानाद्धरं तदा ॥ गिरिजोक्तमनुस्मृत्य मेना विस्मयमागता ॥८॥ यद्वै पुरोक्तं च तया पार्वत्या मम सन्निधौ ॥ ततोऽधिकं प्रपश्यामि सौंदर्यं परमेष्ठिनः ॥ महेशस्य मया दृष्टमनिर्वाच्यं च संप्रति ॥९॥ एवं विस्मयमापन्ना विप्रपत्नीभिरावृता ॥ अहतां बरयुग्मेन शोभिता वरवर्णिनी ॥१०॥ कंचुकी परमा दिव्या नानारत्नैश्च शोभिता ॥ अंगीकृता तदा देव्या रराज परया श्रिया ॥११॥ बिभ्रती च तदा हारं दिव्यरत्नविभूषितम् ॥ वलयानि महार्हाणि शुद्धचामीकराणि च ॥१२॥ तत्रोपविष्टा सुभगा ध्यायंती परमेश्वरम् ॥ सखीभिः सेव्यमाना सा विप्रपत्नीभिरेव च ॥१३॥ एतस्मिन्नंतरे तत्र गर्गो वाक्यमभाषत ॥ पाणिग्रहार्थं शंभुं च आनयध्वं स्वमंदिरम् ॥ त्वरितेनैव वेलायामस्यामेव विचक्षणाः ॥१४॥ तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य गर्गस्य च महात्मनः ॥ अभ्युत्थानपराः सर्वे पर्वताः सकलत्रकाः ॥१५॥ महाविभूत्या संयुक्ताः सर्वे मंगलपाणयः ॥ सालंकृतास्तदा तेषां पत्न्योलंकारमंडिताः ॥१६॥ उपायनान्यनेकानि जगृहुः स्निग्धलोचनाः ॥ तदा वादित्रघोषेण ब्रह्मघोषेण भूयसा ॥१७॥ आजग्मुः सकलात्रास्ते यत्र देवो महेश्वरः ॥ प्रमथैरावृतस्तत्र चंड्या चैवाभिसेवितः ॥१८॥ तथा महर्षिभिस्तत्र तथा देवगणैः सह ॥ एभिः परिवृतः श्रीमाञ्छंकरो लोकशंकरः ॥१९॥ श्रुत्वा वादित्रनिर्घोषं सर्वे शंकरसेवकाः ॥ उत्थिता ऐकापद्येन देवैर्ऋषिभिरावृताः ॥२०॥ तथोद्यतो योगिनाचक्रयुक्ता गणा गणानां गणानां पतिरेकवर्चसाम् ॥ शिवंपुरस्कृत्य तदानुभावास्तथैव सर्वे गणनायकाश्च ॥२१॥ तद्योगिनी चक्रमतिप्रचंडं टंकारभेरीरवनिस्वनेन ॥ चंडीं पुरस्कृत्य भयानकां तदा महाविभूत्या समलंकृतां तदा ॥२२॥ कंठे कर्कोटकं नागं हारभूतं च कार सा ॥ पदकं वृश्चिकानां च दंदशूकांश्च बिभ्रती ॥२३॥ कर्णावतंसान्सा दध्रे पाणिपादमयांस्तथा ॥ रणे हतानां वीराणां शिरांस्युरसिचापरान् ॥२४॥ द्वीपिचर्मपरीधाना योगिनीचक्रसंयुता ॥ क्षेत्रपालावृता तद्वद्भैरवैः परिवारिता ॥२५॥ तथा प्रेतैश्च भूतैश्च कपटैः परिवारिता ॥ वीरभद्रादयश्चैव गणाः परमदारुणाः ॥ ये दक्षयज्ञनाशार्थे शिवेनाज्ञापितास्तदा ॥२६॥ तथा काली भैरवी च माया चैव भयावहा ॥ त्रिपुरा च जया चैव तथा क्षेमकरी शुभा ॥२७॥ अन्याश्चैव तथा सर्वाः पुरस्कृत्य सदाशिवम् ॥ गंतुकामाश्चोग्रतरा भूतैः प्रेतैः समावृताः ॥२८॥ एताः सर्वा विलोक्याथ शिवभक्तो जनार्द्दनः ॥ महर्षीश्च पुरस्कृत्य ह्यमरांश्च तथैव च ॥ अनसूयां पुरस्कृत्य तथैव च ह्यरुंधतीम् ॥२९॥ ॥विष्णुरुवाच ॥ चण्डीं कुरु समीपस्थां लोकपालनतां प्रभो ॥३०॥ तदुक्तं विष्णुना वाक्यं निशम्य जगदीश्वरः ॥ उवाच प्रहसन्नेव चंडीं प्रति सदाशिवः ॥३१॥ अत्रैव स्थीयतां चंडीं यावदुद्वहनं भवेत् ॥ मम भावान्विजानासि कार्याकार्ये सुशोभने ॥३२॥ एवमाकर्ण्य वचनं शंभोरमिततेजसः ॥ उवाच कुपिता चंडी विष्णुमुद्दिश्य सादरम् ॥३३॥ तथान्ये प्रमथाः सर्वे विष्णुमूचुः प्रकोपिताः ॥ यत्रयत्र शिवो भाति तत्रतत्र वयं प्रभो ॥३४॥ त्वया निवारिताः कस्माद्वयमाभ्युदये परे ॥ तेषां तद्वचनं श्रुत्वा केशवोवाक्यमब्रवीत् ॥३५॥ चण्डीमुद्दिश्य प्रमथानन्यांश्चैव तथाविधान् ॥ यूयं चैव मया प्रोक्ता मा कोपं कर्त्तुमर्हथ ॥३६॥ एवमुक्तास्तदा तेन चंडीमुख्या गणास्तदा ॥ एकांतमाश्रिताः सर्वे विष्णुवाक्याज्ज्वलद्धृदः ॥३७॥ तावत्सर्वे समायाताः पर्वतेंद्रस्य मंत्रिणः ॥ सकलत्राः संभ्रमेण महेशं प्रति सत्वरम् ॥३८॥ पंचवाद्यप्रघोषेण ब्रह्मघोषेण भूयसा ॥ योषिद्भिः संवृतास्तत्र गीतशब्देन भूयसा ॥३९॥ एवं प्राप्ता यत्र शंभुः सकलैः परिवारितः ॥ आगत्य कलशैः साकं स्नापितो हि सदाशिवः ॥ स्त्रीभिर्मंगलगीतेन सर्वाभरणभूषितः ॥४०॥ ऋषयो देवगंधर्वास्तथान्ये पर्वतोत्तमाः ॥ शंभ्यग्रगास्तदा जग्मुः स्त्रियश्चैव सुपूजिताः ॥ बभौ छत्रेण महता ध्रिमाणेन मूर्द्धनि ॥४१॥ चामरै वीर्ज्यमानोऽसौ मुकुटेन विराजितः ॥ ब्रह्मा विष्णुस्तथा चंद्रो लोकपालस्तथैव च ॥४२॥ अग्रगा ह्यपि शोभंतः श्रिया परमया युताः ॥ तथा शंखाश्च भेर्यश्च पटहानकगोमुखाः ॥४३॥ तथैव गायकाः सर्वे परममंगलम् ॥ पुनः पुनरवाद्यंत वादित्राणि महोत्सवे ॥४४॥ अरुंधती महाभागा अनसूया तथैव च ॥ सावित्री च तथा लक्ष्मीर्मातृभिः परिवारिताः ॥४५॥ एभिः समेतो जगदेकबंधुर्बभौ तदानीं परमेण वर्चसा ॥ सचंद्रसूर्यानिलवायुना वृतः सलोकपालप्रवरैर्महर्षिभिः ॥४६॥ स वीज्यमानः पवनेनः साक्षाच्छत्रं च तस्मै शशिना ह्यधिष्ठितम् ॥ सूर्यः पुरस्तादभवत्प्रकाशकः श्रियान्वितो विष्णुरभूच्च सन्निधौ ॥४७॥ पुष्पैर्ववर्षुर्ह्यवकीर्यमाणा देवास्तदानीं मुनिभिः समेताः ॥ ययौ गृहं कांचनकुट्टिमं महन्महावि भूत्यापरिशोभितं तदा ॥ विवेश शंभुः परया सपर्यया संपूज्यमानो नरदेवदानवैः ॥४८॥ एवं समागतः शंभुः प्रविष्टो यज्ञमण्डपम् ॥ संस्तूयमानो विबुधैः स्तुतिभिः परमेश्वरः ॥४९॥ गजादुत्तारयामास महेशं पर्वतोत्तमः ॥ उपविश्य ततः पीठे कृत्वा नीराजनं महत् ॥५०॥ मेनया सखिभिः साकं तथैव च पुरोधसा ॥ मधुपर्कादिकं सर्वं यत्कृतं चैव तत्र वै ॥५१॥ ब्रह्मणा नोदितः सद्यः पुरोधाः कृतवान्प्रभुः ॥ मंगलं शुभकल्याणं प्रस्तावसदृशं बहु ॥५२॥ अंतर्वेद्यां संप्रवेश्य यत्र सा पार्वती स्थिता ॥ वेदिकोपरि तन्वंगी सर्वाभरणभूषिता ॥५३॥ तत्रानीतो हरः साक्षाद्विष्णुना ब्रह्मणा सह ॥ लग्नं निरीक्षमाणास्ते वाचस्पतिपुरोगमाः ॥५४॥ गर्गो मुनिश्चोपविष्टस्तत्रैव घटिकालये ॥ यावत्पूर्णा घटी जाता तावत्प्रणवभाषणम् ॥५५॥ ॐपुण्येति प्रणिगदन्गर्गो वध्वंजलिं दधे ॥ पार्वत्यक्षतपूर्णं च शिवोपरि ववर्ष वै ॥५६॥ तया संपूजितो रुद्रो दध्यक्षतकुशादिभिः ॥ मुदा परमया युक्ता पार्वती रुचिरानना ॥५७॥ विलोकयंती शंभुं तं यदर्थे परमं तपः ॥ कृतं पुरा महादेव्या परेषां परमं महत् ॥५८॥ तपसा तेन संप्राप्तो जगज्जीवनजीवनः ॥ नारदेन ततः प्रोक्तो महादेवो वृषध्वजः ॥५९॥ तथा गंगादिभिश्चन्यैर्मुनिभिः सनकादिभिः ॥ प्रति पूजां कुरु क्षिप्रं पार्वत्याश्च त्रिलोचन ॥ तदा शिवेन सा तन्वी पूजितार्घ्याक्षतादिभिः ॥६०॥ एवं परस्परं तौ च पार्वतीपरमेश्वरौ ॥ अर्च्यमानौ तदानीं च शुशुभाते जगन्मयौ ॥६१॥ त्रैलोक्यलक्ष्म्या संवीतौ निरीक्षंतौ परस्परम् ॥ तदा नीराजितौ लक्ष्म्या सावित्र्या च विशेषतः ॥ अरुंधत्या तदा तौ च दंपती परमेश्वरौ ॥६२॥ अनसूया तथा शंभुं पार्वतीं च यशस्विनीम् ॥ दृष्ट्वा नीराजयामास प्रीत्युत्कलितलोचना ॥६३॥ तथैव सर्वा द्विजयोषितश्च नीराजयामासुरहो पुनः पुनः ॥ सतीं च शंभुं च विलोकयंत्यस्तथैव सर्वा मुदिता हसंत्यः ॥६४॥ ॥ लोमश उवाच ॥ एतस्मिन्नंतरे तत्र गर्गाचार्यप्रणोदितः ॥ हिमवान्मेनया सार्द्धं कन्यां दातुं प्रचक्रमे ॥६५॥ हैमं कलशमादाय मेना चार्द्धां गामाश्रिता ॥ हिमाद्रेश्च महाभागा सर्वाभरणभूषिता ॥६६॥ तदा हिमाद्रिणा प्रोक्तो विश्वनाथो वरप्रदः ॥ ब्रह्मणा सह संगत्य विष्णुना च तथैव च ॥६७॥ सार्द्धं पुरोधसा चैव गर्गेण सुमहात्मना ॥ कन्यादानं करोम्यद्य देवदेवस्य शूलिनः ॥६८॥ प्रयोगो भण्यतां ब्रह्मन्नस्मिन्समय आगते ॥ तथेति मत्वा ते सर्वे कालज्ञा द्विजसत्तमाः ॥६९॥ कथ्यतां तात गोत्रं स्वं कुलं चैव विशेषतः ॥ कथयस्व महाभाग इत्याकर्ण्य वचस्तथा ॥ सुमुखेन विमुखः सद्यो ह्यशोच्यः शोच्यतां गतः ॥७०॥ एवंविधः सुरवरैर्ऋषिभिस्तदानीं गंधर्वयक्षमुनिसिद्धगणैस्तथैव ॥ दृष्टो निरुत्तरमुखो भगवान्महेशो हास्यं चकार सुभृशं त्वथ नारदश्च ॥७१॥ वीणां प्रकटयामास ब्रह्मपुत्रोऽथ नारदः ॥ तदानीं वारितो धीमान्वीणां मा वादय प्रभो ॥७२॥ इत्युक्तः पर्वतेनैव नारदो वाक्यमब्रवीत् ॥ त्वया पृष्टो भवः साक्षात्स्वगोत्रकथनं प्रति ॥७३॥ अस्य गोत्रं कुलं चैव नाद एव परं गिरे ॥ नादे प्रतिष्ठितः शंभुर्नादो ह्यस्मिन्प्रतिष्ठितः ॥७४॥ तस्मान्नादमयः शंभुर्नादाच्च प्रतिलभ्यते ॥ तस्माद्वीणा मया चाद्य वादिता हि परंतप ॥७५॥ अस्य गोत्रं कुलं नाम न जानंति हि पर्वत ॥ ब्रह्मादयो हि विवुधा अन्येषां चैव का कथा ॥७६॥ त्वं हि मूढत्वमापन्नो न जानासि हि किंचन ॥ वाच्यावाच्यं महेशस्य विषया हि बहिर्मुखाः ॥७७॥ येये आगमिकाश्चाद्रे नष्टास्ते नात्र संशयः ॥ अरूपोयं विरूपाक्षो ह्यकुलीनोऽयमुच्यते ॥७८॥ अगोत्रोऽयं गिरिश्रेष्ठ जामाता ते न संशयः ॥ न कर्त्तव्यो विमर्शोऽत्र भवता विबुधेन हि ॥७९॥ न जानंति हरं सर्वे किं बहूक्त्या मम प्रभो ॥ यस्याज्ञानान्महाभाग मोहिता ऋषयो ह्यमी ॥८०॥ ब्रह्मापि तं न जानाति मस्तकं परमेष्ठिनः ॥ विष्णुर्गतो हि पातालं न दृष्टो हि तथैव च ॥८१॥ तेन लिंगेन महता ह्यगाधेन जगत्त्रयम् ॥ व्याप्तमस्तीति तद्विद्धि किमनेन प्रयोजनम् ॥८२॥ अनयाराधितं नूनं तव पुत्र्या हिमालय ॥ तत्त्वतो हि न जानासि कथं चैव महागिरे ॥८३॥ आभ्यामुत्पाद्यते विश्वमाभ्यां चैव प्रतिष्ठितम् ॥ एतच्छ्रुत्वा वचस्तस्य नारदस्य महात्मनः ॥८४॥ हिमाद्रिप्रमुखाः सर्वे तथा चेंद्रपुरोगमाः ॥ साधुसाध्विति ते सर्वे ऊचुर्विस्मितमानसाः ॥८५॥ ईश्वरस्य तु गांभीर्यं ज्ञात्वा सर्वे विचक्षणाः ॥ विस्मयेन समाश्लिष्टा ऊचुः सर्वे परस्परम् ॥८६॥ ॥ ऋषय ऊचुः ॥ यस्याज्ञया जगदिदं च विशालमेव जातं परात्परमिदं निजबोधरूपम् ॥ सर्वं स्वतंत्रपरमेश्वरभागम्यं सोऽसौ त्रिलोकनिजरूपयुतो महात्मा ॥८७॥ इति श्रीस्कांदे महापुराण एकाशीतिसाहस्र्यां संहितायां प्रथमे माहेश्वरखण्डे केदारखंडे शिवशास्त्रे शिवपार्वतीविवाहवर्णनंनाम पंचविंशोऽध्यायः ॥२५॥
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मल्हारी मार्तंड विजय - अध्याय नववा
श्री माणिकप्रभु विरचित श्री मल्हारी मार्तंड विजय.
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श्रीकाशीक्षेत्रस्थप्रार्थना
महाराष्ट्रकविवर्य श्रीमयूरविरचिते ग्रन्थ ‘ संस्कृतकाव्यानि ’
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स्वबलनिदेशनाख्यं पञ्चमं स्तोत्रम्
श्रीमदुत्पलदेवाचार्यविरचिता शिवस्तोत्रावली
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