देवमित्र (शाकल्य) n. मांडुकेय ऋषि का पुत्र । इसने सौभरि आदि शिष्यों को संहिता कथन की । भागवत में इसे शाकल्य का साथी माना गया है । परंतु वायु तथा ब्रह्मांड के मत में, यह शाकल्य का शिष्य था । देवमित्र शाकल्य ने पॉंच संहितायें पॉंच शिष्यों को सिखाई उनके शिष्यों के नाम-मुद्गल, गोखल, मत्स्य, खालीय तथा शैशिरेय । इसके नाम का वेदमित्र पाठभेद भी प्राप्त है (वेदमित्र, याज्ञवल्क्य तथा व्यास देखिये) । अपने अश्वमेध यज्ञ में समय, जनक राजा ने एक प्रण जाहिर किया । सम्मीलित ब्राह्मणों में जो सर्वश्रेष्ठ साबित हो, उसे हजार गायें, उनसे कई गुना अधिक सुवर्ण, ग्राम, रत्न तथा असंख्य सेवक दिये जायेंगे, ऐसा प्रस्ताव उसने ब्राह्मणों के सामने रखा । अनेक ब्राह्मण स्पर्धा के कारण झगडने लगे । इतने में ब्रह्मवाहसुत याज्ञवल्क्य वहॉं आया । उसने अपने शिष्यों से कहा, ‘यह सारा धन ले चलो, क्योंकि मेरी बरोबरी करनेवाला वेदवेत्ता यहॉं कोई नहीं है । जिसे यह अमान्य होगा, वह मेरा आह्रान स्वीकार करे’। अनेक ब्राह्मण वाद के लिये सामने आये तथा अनेक महत्त्वपूर्ण विषय पर विवाद हुएँ । सब को जीतने पर याज्ञवल्क्य ने शाकल्य से कुछ उपमर्दकारक बातें कहीं । वह बोला, ‘ब्राह्मण अबल विद्या तथा तत्त्वज्ञान में नैपुण्य होता है । किसी भी प्रश्न का उत्तर देने के लिये मैं तयार हूँ । इसलिये कौन सा भी प्रश्न पूछने का मैं तुम्हें आह्रान देता हूँ’। यह सुन कर, शाकल्य क्रोध से पागल सा हो गया । याज्ञवल्क्य के कथनानुसार इसने उसे ह्यजार प्रश्न पूछे । उन सारे प्रश्नों के उत्तर याज्ञवल्क्य ने दिये । पश्चात् याज्ञवल्क्य ने शर्त लगायी, ‘इन प्रश्नों का उत्तर न दे सके, तो शाकल्क्य को मृत्यु स्वीकारना पडेगी’। शाकल्य ने वह शर्त स्वीकार की । पश्चात याज्ञवल्क्य ने प्रश्न पूछे, परंतु शाकल्य उनके उत्तर ने दे सका । इसलिये शाकल्य ने मृत्यु का स्वीकार किया । देवमित्र शाकल्य की मृत्यु के कारण, सब ब्राह्मणों को ब्रह्महत्या का पातक लगा । अतः पवनपुर जा कर वहॉं उन्होंने द्वादशार्क, वालुकेश्वर तथा ग्यारह रुद्रों का दर्शन लिया । चार कुंडों में स्नान किया । वाडवादित्य के प्रसाद से उत्तरेश्वर का दर्शन कर, वे सारे मुक्त हो गये
[वायु.६०.६९] ।