धन्वन्तरि n. देवताओं का वैद्य एवं ‘आयुर्वेदशास्त्र’ का प्रवर्तक देवता । समुद्रमंथन के समय, यह अमृत का श्वेत कमंडलु हाथ में रख कर समुद्र से प्रकट हुआ
[म.आ.१६.३७] । इसे आदिदेव, अमरवर, अमृतयोनि एवं अब्ज आदि नामांतर भी प्राप्त है । दुर्वासस् ने इंद्र को शाप दे कर, वैभवहीन बना दिया तब गतवैभव पुनः प्राप्त करने के लिये, देव दैत्यों ने क्षीरसमुद्र का मंथन किया । उस समुद्रमंथन से प्राप्त, चौदह रत्नों में से धन्वन्तरि एक था । समुद्र में से प्रकट होते समय, इसके हाथ में अमृतकलश था । जब यह समुद्र से निकला तब तेज से दिशाएँ जगमगा उठी
[ह.वं.२९.१३] । यह विष्णु का अवतार एवं ‘आयुर्वेदप्रवर्तक’ देवता था
[विष्णु.१.९.९६] ;
[भा.१.३.१७,८.८.३१-३५] । इसे आयुर्वेदशास्त्र का ज्ञान इंद्र के प्रसाद से एवं चिकित्साज्ञान भास्कर के प्रसाद से प्राप्त हुआ था
[भवि.१.७२] ;
[मत्स्य.२५१.४] । समुद्रमंथन से निकलने के पश्चात्, विष्णु भगवान् को इसने देखा । उसे देख कर यह ठिठक गया । विष्णु ने इसे ‘अब्ज’ (पानी से जिसका जनम हुआ) कह कर पुकारा । पश्चात् इसने विष्णु से प्रार्थना की, ‘यज्ञ में मेरा भाग एवं स्थान नियत कर दिया जाय’ । विष्णु ने कहा, ‘यज्ञ के भाग एवं स्थान तो बँट गये है । किंतु अगले जन्म में तुम्हारी यह इच्छा पूरी होगी । उस जन्म में तुम विशेष ख्याति प्राप्त करोंगे । ‘अणिमादि’ सिद्धियॉं तुम्हें गर्भ से ही प्राप्त होगी, एवं तुम सशरीर देवत्व प्राप्त करोंगे । तुम ‘आयुर्वेद’ को आठ भागों में विभक्त करोंगे । एवं उस कार्य के लिये, लोग तुम्हें मंत्र से आहुति देने लगेंगे’। विष्णु के उस आशिर्वचनानुसार, धन्वन्तरि ने द्वापरयुग में काशिराज धन्व (सौनहोत्र) के पुत्र के रुप में पुनर्जन्म लिया । उस जन्म में, इसने भरद्वाज ऋषिप्रणीत ‘आयुर्वेद’ आठ विभागों में विभक्त किया, एवं प्रजा को रोगमुक्त किया
[वायु.९२.९-२२] ; धन्वन्तरि २. देखिये । उस महान् कार्य के लिये, नित्यकर्मान्तर्गत पंचमहायज्ञ ‘वैश्वदेव’ में बलिहरण के समय, ‘धन्वंतरये स्वाहा’ कर के इसे यज्ञाहुति मिलने लगी । इस तरह इसकी विष्णु भगवान् के पास की गयी प्रार्थना सफल हुई । वैद्यक एवं शल्यशास्त्र में पारंगत व्यक्तिओं को आज भी ‘धन्वन्तरि’ कहा जाता है.
[उ.सु.सं.टी. सू.१.३] ।
धन्वन्तरि n. धन्वन्तरि देवता का स्वरुप वर्णन प्राचीन ग्रंथ में उपलब्ध है
[भा.८.८.३१-३५] । आधुनिक भिषग्वर एवं वैद्य उसे ‘धन्वन्तरि स्तोत्र’ नाम से नित्य पठन करते हैः---
अथोदधेर्मथ्यमानात् काश्यपैरमृतार्थिभिः । उदतिष्ठन्महाराज पुरुषः परमाद्भुतः॥
दीर्घपीवरदोर्दण्डः कम्बुग्रीवोऽरुणेक्षणः। श्यामलस्तरुणः स्त्रग्वी सर्वाभरणभूषितः॥
पीतवासा महोरस्कः सुमृष्टमणिकुण्डलः । स्निग्धकुञ्चितकेशान्तः सुभगः सिंहविक्रमः ॥
अमृतापृर्णकलशं बिभ्रद् वलयभूषितः । स वै भगवतः साक्षाद् विष्णोरंशांशसंभवः ॥
धन्वन्तरिरिति ख्यातः आयुर्वेददृग् इज्यभाक्।
धन्वन्तरि की मूर्ति के बारे में, दक्षिण भारतीय तथा उत्तर भारतीय ऐसे कुल दो पाठ उपलब्ध हैं । उस प्रकार की मूर्तियॉं भी प्राप्त है । दक्षिण की धन्वन्तरि की मूर्ति आंध्र फार्मसी ने मद्रासे में तैयार की है । उत्तर की मूर्ति, गीर्वाणेंद्र सरस्वति कृत ‘प्रपंच सार’ ग्रंथानुसार तैयार की गयी है, एवं वह काशी में वैद्य त्र्यंबक शास्त्री के पास थी । दोनों मूर्तियों की तुलना करने पर पता चलता है कि, वे समान नहीं हैं । उन में दाहिनी ओर की वस्तुएँ बायीं ओर, तथा बायीं ओर की वस्तुएँ दाहिनी ओर दिखायी दी गयी हैं । दक्षिण की मूर्ति में दाहिने उपरवाले हाथ में चक्र है । काशी की मूर्ति के उसी हाथ में शंख है । दक्षिण के नीचवाले दाहिने के हाथ में जोंक है, तो काशी की मूर्ति के हाथ में अमृतकुंभ है । बाई ओर के हाथों के बारे में भी यही फर्क दिखाई देता हैं ।
धन्वन्तरि (अमृताचार्य) n. एक आयुर्वेदशास्त्रज्ञ । यह अंबष्ठ ज्ञाति में पैदा हुआ था । आद्य धन्वन्तरि से इसका निश्चित क्या संबंध है, यह कह नही सकते । इसके जन्म के बारे में निम्नलिखित कथा उपलब्ध हैः
धन्वन्तरि (दिवोदास) n. (सो. काश्य.) काशी के धन्वन्तरि राजा का पौत्र एवं आयुर्वेदशास्त्र का एक प्रमुख आचार्य । बाल्यकाल से ही यह विरक्त था । बडी प्रयत्न से इसे काशी का राजा बनाया गया
[भवि.१.१] । विश्वामित्र का पुत्र सुश्रुत एवं वृद्ध नामक ब्राह्मण इसके प्रमुख शिष्य थे
[भवि.प्रति.४.२०] ;
[अग्नि.२६९.१] । इसने ‘काल्पवेद’ (काल्प-रोगों से क्षीण हुआ देह) की रचना की । काल्पवेद के दर्शन से रोग नष्ट हो जाते थे । सूश्रुत ने उसक पठन कर, सौ अध्यायों का ‘अश्रुत तंत्र’ का निर्माण किया
[भवि.प्रति.४.९.१६-२३] । कई प्राचीन ग्रंथो में, इसे कल्पदत्त ब्राह्मण का पुत्र कहा गया है । विष्णु ने गरुड को आयुर्वेद सिखाया, एवं इसने वह गरुड से सीख लिया
[गरुड.१.१९७.५५] । ब्रह्मवैवर्तपुराण में इसे शंकर का उपशिष्य कहा है
[ब्रह्मवै. ३.५१] । अन्य कई स्थानों में, इसे कृष्णचैतन्य का शिष्य कहा है । एक बार यह कृष्णचैतन्य के पास गया । प्रकृति श्रेष्ठ या पुरुष श्रेष्ठ, इसके बारे में, इसका एवं कृष्णचैतन्य का विवाद हुआ । इसका कहना था, ‘प्रकृति से पुरुष श्रेष्ठ है’। किन्तु कृष्ण चैतन्य ने कहा, ‘दोनों भी श्रेष्ठ है’। कृष्णजी का कहना इसे मान्य हुआ एवं यह उसका शिष्य बन गया । कृष्णचैतन्य के शिष्यत्व की यह कहानी धन्वन्तरि ‘दिवोदास’ की ही है, या किसी अन्य धन्वन्तरि की, यह निश्चित रुप से कहना मुष्किल है ।
धन्वन्तरि II. n. (सो. काश्य.) काशी देश का राजा, एवं ‘अष्टांग’ आयुर्वेदशास्त्र का प्रवर्तक । यह काशी देश के धन्व (धर्म) राजा पुत्र एवं दीर्घतपस् राजा की वंशज था । विष्णु भगवान् के आशीर्वाद से, समुद्रमंथन से उत्पन्न धन्वन्तरि नामक विष्णु के अवतार ने पृथ्वी पर पुनर्जन्म लिया । वही पुनरावतार यह था (धन्वन्तरि १. देखिये) । दूसरे युगपर्याय में से द्वापर युग में, काशिराज धन्व ने पुत्र के लिये, तपस्या एवं अब्जदेव की आराधना की । अब्जदेव ने धन्व के घर स्वयं अवतार लिया । गर्भ में से ही अणिमादि सिद्धियॉं इसे प्राप्त हो गयी थी । भारद्वाज ऋषि से इसने भिषक् क्रिया के साथ आयुर्वेद सीख लिया, एवं अपने प्रजा को रोगमुक्त किया । उस महान् कार्य के लिये, इसे देवत्व प्राप्त हो गया । इसने आयुर्वेदशास्त्र ‘अष्टांगों’ (आठ विभाग) में विभक्त किया । वे विभाग इस प्रकार हैः--१. काय (शरीरशास्त्र), २. बाल (बालरोग), ३. ग्र (भूतप्रेतादि विकार), ४. उर्ध्वाग (शिरोनेत्रादि विकार), ५. शल्य (शस्त्राघातादि विकार), ६. दंष्ट्रा (विषचिकित्सा), ७. जरा (रसायन), ८. वृष (वाजीकरण)
[ह.वं.२९.२०] । इसे केतु नामक पुत्र था
[ब्रह्म.१३.६५] ;
[वायु.९.२२,९२] ;
[ब्रह्मांड.३.६७.] ;
[दे.भा.९.४१] । सुविख्यात आयुर्वेदाचार्य धन्वन्तरि दिवोदास इसका पौत्र वा प्रपौत्र था । उसके सिवा, इसके परंपरा के भेल, पालकाप्य आदि भिषग्वर भी ‘धन्वन्तरि’ नाम से ही संबोधित किये जाते है । विक्रमादित्य के नौ रत्नों में भी धन्वन्तरि नामक एक भिषग्वर था ।
धन्वन्तरि II. n. सर्पदेवता मनसा तथा वैद्यविद्यासंपन्न धन्वन्तरि राजा के परस्परविरोध की एक कथा ब्रह्मवैवर्त पुराण कृष्णजन्मखंड में दी गयी है । एक दिन, धन्वन्तरि अपने शिष्यों के साथ कैलास की ओर जा रहा था । मार्ग में तक्षक सर्प अपने विषारी फूत्कार डालते हुए, इन पर दौडा । शिष्यों में से एक को औषधि मालूम होने के कारण, बडे ही अभिमान से वह आगे बढा । उसने तक्षक को पकड कर, उसके सिर का मणि निकाल कर, जमीन पर फेंक दिया । यह वार्ता सर्पराज वासुकि को ज्ञात हुई । उसने हजारों विषारी सर्प द्रोण, कालीय कर्कोट, पुंडरिक तथा धनंजय के नेतृत्व में भेजे । उनके श्वासोच्छवास के द्वारा बाहर आई विषारी वायु से, धन्वन्तरि के शिष्य मूर्च्छित हो गये । धन्वन्तरि ने, वनस्पतिजन्य औषध से उन्हें सावधान कर के, उन सर्पो कों अचेत किया । वासुकि को यह ज्ञात हुआ । उसने शिवशिष्य मनसा को भेजा । मनसा तथा गढूर शिवभक्त थे । धन्वन्तरि, गढूर का अनुयायी था । जहॉं धन्वन्तरि था, वहॉं मनसा आई । उसने धन्वन्तरी के सब शिष्यों को अचेत कर दिया । इस समय स्वयं धन्वन्तरि भी, शिष्यों को सावधान न कर सका । मनसा ने स्वयं धन्वन्तरि को भी, मंत्रतंत्र से अपाय करने का प्रयत्न किया । किंतु वह असफल रही । तब शिव द्वारा दिया गया ब्रह्म वहॉं आये । उन्होंने वह झगडा मिटाया । अंत में मनसा तथा धन्वन्तरि ने एक दूसरे की पूजा की । उसके बाद सब सर्प, देव, मनसा तथा धन्वन्तरि, अपने स्थान खाना हुएँ
[ब्रह्मवै. कृष्ण. १.५१] ।
धन्वन्तरि II. n. धन्वन्तरि के नाम पर निम्नलिखित ग्रंथ प्रसिद्ध हैं---१. चिकित्सातत्त्व विज्ञान, २. चिकित्सादर्शन, ३. चिकित्साकौमुदी, ४. अर्जीर्णामृतमंजरी, ५. रोगनिदान, ६. वैद्यचिंतामणि, ७. वैद्य प्रकाश चिकित्सा, ८. विद्याप्रकाशचिकित्सा, ९. धन्वन्तरीय निघंटु, १०. चिकित्सासारसंग्रह, ११. भास्करसंहिता का चिकित्सातत्त्व विज्ञानतंत्र, १२. धातुकल्प, १३. वैद्यक स्वरोदय
[ब्रह्मवै.२.१६] । इनके सिवा, इसने वृक्षायुर्वेद, अश्वायुवेंद तथा गजायुर्वेद का भी निर्माण किया था
[अग्नि.२८२] ।