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प्रतर्दन n. (सो. काश्य.) काशी जनपद् का सुविख्यात राजा, एवं एक वैदिक सूक्तद्रष्टा [ऋ.९.९६,१०.१७९.२] । यह ययाति राजा की कन्या माधवी का पुत्र था । वैदिक साहित्य में इसे काशिराज दैवोदासि कहा गया है । इसके पुत्र का नाम भरद्वाज था [क.सं.२२१.९०] । भरद्वाज ऋषि ने क्षत्रश्री प्रतर्दनि राजा की दानस्तुति की थी, जिससे पता चलता है कि प्रतर्दन राजा को क्षत्रश्री नामक एक और पुत्र था [ऋ.६.२६.८] । कौषीतकि ब्राह्मण के अनुसार, नैमिषारण्य में ऋषियों द्वारा किये यज्ञ में उपस्थित हुआ, और ऋषियों इसने से प्रश्न किया, ‘यज्ञ की, त्रुटियों का परिमार्जन किस प्रकार किया जा सकता है ।’ उस यज्ञ में उपस्थित अलीकयु नामक ऋषि इसके इस प्रश्न का उत्तर न दे सका था [श.ब्रा.२.६.५] । कौषीतकि उपनिषद् के अनुसार, युद्ध में मृत्यु हो जाने पर यह इन्द्रलोक चला गया था [कौ.उ.३.१] । वहॉं इसने बडी चतुरता के साथ इन्द्र को अपनी बातों में फँसा कर, उससे ब्रह्मविद्या का ज्ञान एवं इन्द्रलोक प्राप्त किया [कौ.उ.३.३.१] । वैदिक वाङ्मय में, इसे दैवोदासि उपाधि दी गयी है, जो इसका वैदिक राजा सुदास के बीच सम्बन्ध स्थापित कराती है । इसका भरद्वाज नामक एक पुरोहित भी था, जो इसके और सुदास राजा के बीच का सम्बन्ध पुष्ट करता है । भाषा-विज्ञान की दृष्टि से, इसका प्रतर्दन नाम ‘तृत्सु’ एवं ‘प्रतृद्’ लोगो के नामों से सम्बन्ध रखता है, क्योंकि उक्त तीनों शब्दों में ‘तर्द’ धातु है । पौराणिक साहित्य में इसे सर्वत्र काशी नरेश कहा गया है । किन्तु वैदिक ग्रन्थों में इस प्रकार का निर्देश आप्राप्य है । महाभारत में इसे ययाति की कन्या माधवी से उत्पन्न पुत्र कहा गया है [म.स.८] ;[म.व. परि.१.क्र.२१.६ पंक्ति ९७] ;[म.उ.११५. १५] । ययाति से जोडा गया इसका यह सम्बन्ध कालदृष्ति से असंगत है । भीमरथ प्रतर्दन ने शूर-वीरता के कारण ही द्युमत्, शत्रुजित्, कुवलयाक्ष, ऋतध्वज, वत्स आदि नाम प्राप्त किये थे । [विष्णु.४.५-७] । भीमरथ को काशिराज दिवोदास नामक पुत्र भारद्वाज के प्रसाद से हुआ था । दिवोदास के पितामह हर्यश्व को हैहय राजाओं ने अत्यधिक त्रस्त किया, तथा उसका राज्य छीन लिया । हर्यश्व का पुत्र सुदेव तथा पौत्र दिवोदास दोनों हैहयों को पराजित न कर सके । इसलिये दिवोदास ने हैहयों का पराभव करने वाला प्रतर्दन नामक पुत्र भारद्वाज से मॉंगा । यह जन्म लेते ही तेरह वर्ष का था, एवं सब विद्याओं में पारंगत था [म.अनु.३०.३०] ।
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प्रतर्दन n. माहिष्मती के हैहयवंश में पैदा हुये चक्रवर्ती कार्तवीर्य अर्जुन ने नर्मदा से लेकर हिमालचप्रदेश तक अपना साम्राज्य स्थापित किया था । काशी के दिवोदास आदि राजा कार्तवीर्य से परास्त होकर अपने प्रदेश से भाग गये । काशी राज्य जंगल में बदल गया, और उसे नरभक्षक राक्षसों ने अपना अड्डा बना लिया । पिता के दुःख का कारण ज्ञात होते ही, प्रतर्दन ने हैहयवंशीय तालजंघ, वीतहव्य तथा उसके पुत्रों को, पराक्रम के बल पर युद्ध में परास्त कर, काशीप्रान्त को पुनः प्राप्त किया । क्षेमकादि राक्षसों का वध कर, एक बार फिर से काशीप्रदेश को बसा कर इसने उसे सुगठित राज्य का रुप दिया । यह शूरवीर होने के साथ साथ परमदयालु एवं ब्राह्मणभक्त भी था । इसके द्वारा अपने सब पुत्रो को मरते देखकर वीतहव्य घबरा कर भार्गव के आश्रय में गया । भार्गव ने उसको उबारने के लिये प्रतर्दन से कहा, ‘यह ब्राह्मण है, अतएव इसका वध न होना चाहिये’। पश्चात् प्रतर्दन ने उसे छोड दिया । एक बार इसने अपना पुत्र ब्राह्मण को दान दे दिया था, यही नहीं इसने ब्राह्मण को अपनी ऑखे [म.शां.२४०.२०] तथा शरीर [म.अनु १३७-५] तक ब्राह्मण को दान स्वरुप दी थीं । इसका पितामह ययाति स्वर्ग ने नीचे गिरा, तब इसने अपना पुण्य देकर उसे पुनः स्वर्ग भेजा था [म.आ.८७.१४-१५] । एक बार यह नारद के साथ रथ में बैठकर जा रहा था, तब एक ब्राह्मण ने इसके रथ के अश्व मॉंग लिये । यह स्वयं अपना रथ खींचकर ले जाने लगा । बाद में कुछ ब्राह्मणदि और आये और उन्होंने भी अश्व मॉंगे । परन्तु पास एवं अश्व न होने के कारण यह ब्राह्मणों की मॉंग पूरी न कर सका, और त्रस्त होकर इसने उन्हें कुछ अपशब्द भी कहे । अतः भाइयों के साथ स्वर्ग जाते जाते आधे मार्ग से यह नीचे गिर गया [म.व.परि.१ क्र.२१. ६. पंक्ति. ११०-१२५] । इसे अलर्क के सिवाय अन्य पुत्र भी थे, पर अलर्क ही इसके बाद सिंहासन का अधिकारी हुआ [भा.९.१७.६] ।
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प्रतर्दन n. कौषीतकी उपनिषद् में इंद्र प्रतर्दन संवाद से प्रतर्दन के तत्त्वज्ञान का परिचय प्राप्त है । दिवोदास का पुत्र प्रतर्दन तत्त्वज्ञान की शिक्षा प्राप्त करने के लिये इन्द्र के पास गया । इन्द्र ने इसे बताया---‘ज्ञान से परम कल्याण प्राप्त होता हैं । ज्ञाता सर्व दोषों से और पापों से मुक्त होता है । प्राणही आत्मा है । संसार का मूल तत्त्व प्राण है । प्राण से ही सब दुनिया चलती है । हस्तपादनेत्रादि विरहितों के सारे व्यवहारों को देखने से पता चलता है कि, संसार में प्राण ही मुख्य तत्त्व है।’ उपनिर्दिष्ट इन्द्रप्रतर्दन संवाद में इन्द्र काल्पनिक है । प्रस्तुत संवाद में इन्द्र द्वारा प्रतिपादित समस्त तत्वज्ञान प्रतर्दन द्वारा ही विरचित है । इस संवाद से प्रतर्दन की प्रत्यक्ष प्रमाणवादिता स्पष्ट है । महाभारत एवं पुराणों में निर्दिष्ट प्रतर्दन दो व्यक्ति न होकर, एक ही व्यक्ति का बोध कराते हैं । जिस दिवोदास राजा के वंश में यह पैदा हुआ, उसकी वंशावलि महाभारत तथा पुराणों में कुछ विभिन्न प्रकार से दी गयी है । इसीलिए इस प्रकार का भ्रम हो जाता है पर वास्तव में महाभारत तथा पुराणों में दिवोदास दो अलग अलग व्यक्ति हैं । उनमें से महाभारत में निर्दिष्ट दिवोदास का वंशज प्रतर्दन था ।
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प्रतर्दनः [pratardanḥ] 1 N. of the son of Divodāsa.
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