पृथु n. (स्वा.नाभि) एक राजा । विष्णुमतानुसार यह प्रसार राजा का पुत्र था ।
पृथु (वैन्य) n. पृथ्वी का पहला राजा एवं राजसंस्था का निर्माता
[श.ब्रा.५.३.४] ;
[क.सं.३७.४] ;
[तै.ब्रा.२.७.५.१] ;
[पद्म. भू. २८.२१] । इसी कारण प्राचीन ग्रंथो में, ‘आदिराज’, ‘प्रथमनृप’, ‘राजेंद्र’, ‘राजराज’, ‘चक्रवर्ति’, ‘विधाता’, ‘इन्द्र’, ‘प्रजापति’ आदि उपाधियों से यह विभूषित किया गया है । महाभारत मे सोलह श्रेष्ठ राजाओं में इसका निर्देश किया गया है
[म.द्रो.६९] ;
[म.शां.२९.१३२ परि.१] ;
[ऋ.९] ।
पृथु (वैन्य) n. इसने भूमि को अपनी कन्या मानकर उसका पोषण किया । इसी कारण ‘भू’ को ‘पृथुकन्या’ या पृथिवी’ कहते है
[विष्णु.१.१३] ;
[मत्स्य.१०] ;
[पद्म. भू.२८] ;
[ब्रह्म.४] ;
[ब्रह्मांड.२.३७.] ;
[भा.४.१८] ;
[म.शां.२९.१३२] । पृथु के द्वारा पृथ्वी के दोहन की जाने की रुपात्मक कथा वैदिक वाङ्मय से लेकर पुराणो तक चली आ रही है। इस कथा की वास्तविकता यही है कि, इसने सही अर्थो में पृथ्वी का सृजन सिंचन कर, उसे धन-धान्य से पूरित किया । मानवीय संस्कृति के इतिहास में, कृषी एवं नागरी व्यवस्था का यह आदि जनक था । इसके पूर्व, लोग पशुपक्षियों के समान इधर उधर घूमतें रहते थे, प्राणियों को मार कर उनका मॉंस भक्षण करते थे । इस प्रकार पृथ्वी की प्राणि-सृष्टि का विनाश होता जा रहा था, एवं उनके हत्या का पाप लोगों पर लगे रहता था । इसे रोकने के लिए पृथु ने कृषि व्यवस्था को देकर लोगों को अपनी जीवकोपार्जन के लिए एक नए मार्ग का निर्देशन किया । यह पहला व्यक्ति था, जिसने भूमि को समतल रुप दिया, उसने अन्नादि उपजाने की कला से लोगों को परोचित कराया, एवं इस तरह एक नई संस्कृति एवं सभ्यता का निर्माण किया । कृषि-कला के साथ साथ पृथु ने लोगों को एक जगह बस कर रहना भी सिखाया । इस प्रकार, ग्राम, पुर, पत्तन, दुर्ग, घोष, व्रज, शिबिर, आक्र, खेट, खर्वट-आदी नए नए स्थानों का निर्माण होने लगा । इसके साथ ही साथ लोगों को पृथ्वी के गर्भ में छिपी हुयी सकल औषधि, धान्य, रस, स्वर्णादि, धातृ, रत्नादि एवं दुग्ध आदि प्राप्त करने की कला से इसने बोध कराया
[भा.४.१८] । इसने पृथ्वी के सारे मनुष्य एवं प्राणियों को हिंसक पशुओं, चोरों एवं दैहिक विपत्तियों से मुक्त कराया । अपनी शासन-व्यवस्था द्वारा यक्ष राक्षस, द्विपाद चतुष्पाद सारे प्रणियों, एवं धर्म अर्थादि सारे पुरुषार्थों के जीवन को सुखकर बनाया । इसने अपने राज्य में धर्म को प्रमुखता दी, एवं राज्यशासन के लिए दण्डनीति की व्यवस्था दी । प्रजा की रक्षा एवं पालन, करने के कारण इसे ‘क्षत्रिय’ तथा ‘प्रजारंजसम्राज्’ उपाधि से विभूषित किया गया
[म.शां.५९.१०४-१४०] । पृथु के पृथ्वी पर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यादि वर्गोकी प्रतिष्ठापना की, एवं हर एक व्यक्ति को अपनी वृत्ति के अनुसार उपजीविका का साधन उपलब्ध कराया । इसी कारण यह संसार में मान्य एवं पूज्य बना
[ब्रह्मांड.२.३७.१-११] । महाभारत के अनुसार, कृतयुग में धर्म का राज्य था । अतएव दण्डनीति की आवश्यकता उस काल में प्रतीत न हुयी । कालान्तर में लोग मोहवश होकर राज्यव्यवस्था को क्षीण करने लगे । इसी कारण शासन के लिए राजनीति, शासनव्यवस्था एवं राजा की आवश्यकता पडी । पृथु ही पृथ्वी का प्रथम प्रशासक था । पृथु के ‘पृथ्वीदोह्न’ की कथा पद्मपुराण में इस प्रकार दी गयी है । प्रजा के जीवन-निर्वाह व्यवस्था के लिए यह धनुष-बाण लेकर पृथ्वी के पीछे दौडा । भयभीत होकर पृथ्वी ने गाय का रुप धारण किया । इससे विनती की, ‘तुम मूझे न मारकर, मेरा दोहन कर, सर्व प्रकार के वैभव प्राप्त कर सकते हो’। पृथ्वी की यह प्रार्थना पृथु ने मान ली एवं इसने पृथ्वी का दोहन किया
[पद्म.सृ.८] ।
पृथु (वैन्य) n. पृथ्वी की नानविध वस्तुओं के दोहन करनेवाले देव, गंधर्व, मनुष्य, आदि की तालिका अथर्ववेद में एवं ब्रह्मादि पुराणों में दी गयी है । उनमें से अथर्ववेद में प्राप्त तालिका इस प्रकार है
[अ.वे.८.२८] :---
१
वर्ग - असुर
दोहन करनेवाला - द्विमूर्धन्
वत्स - विरोचन
पात्र - लोह
दूध - माया
२
वर्ग - पितर
दोहन करनेवाला - अंतक
वत्स - यम
पात्र - रौप्य
दूध - स्वधा
३
वर्ग - मनुष्य
दोहन करनेवाला - पृथुवैन्य
वत्स - वैवस्वतमनु
पात्र - पृथ्वी
दूध - कृषि एव सस्य
४
वर्ग - ऋषि
दोहन करनेवाला - बृहस्पति
वत्स - सोम
पात्र - छंदस्
दूध - तप तथा वेद
५
वर्ग - देव
दोहन करनेवाला - रवि
वत्स - इन्द्र
पात्र - चमस्
दूध - बल
६
वर्ग - गंधर्व
दोहन करनेवाला - वसुरुचि
वत्स - चित्ररथ
पात्र - कमल
दूध - सुगंध
७
वर्ग - यक्ष
दोहन करनेवाला - रजतनाभि
वत्स - कुबेर
पात्र - मृण्मय
दूध - अंतर्धान
८
वर्ग - सर्प
दोहन करनेवाला - धृतराष्ट्र
वत्स - तक्षक
पात्र - तूंबा
दूध - विष
९
वर्ग - राक्षस
दोहन करनेवाला - जातुनाभ
वत्स - सुमाली
पात्र - परल
दूध - रक्त
१०
वर्ग - वृक्ष
दोहन करनेवाला - शाल ( जिसेस राल बनते हैं )
वत्स - पिंपरी
पात्र - पलस
दूध - तोड जाने पर भी पुन निर्माण होना
११
वर्ग - पर्वत
दोहन करनेवाला - मेरु
वत्स - हिमालय
पात्र - पत्थर
दूध - महौषधि तथा रत्न
इस तालिका अनुसार, मानवों के जातियों में से असुर, पितर आदि ‘वर्गो’ ने पृथ्वी से माया,स्वधा आदि वस्तुओं का दोहन किया (प्राप्ति की), जिन पर उन विसिष्ट वर्गो का गुजारा होता है । इस तालिका में, मनुष्य जाति का प्रतिनिधि पृथु वैन्य को मानकर उसने पृथ्वी से ‘कृषि’ एवं ‘सत्य’ को प्राप्त किया ऐसा कहा गया है । पृथु वैन्य चाक्षुष मन्वन्तर में पैदा हुआ माना जाता है । ध्रुव उत्तानपाद राजा के पश्चात् एवं मरुतों के उत्पत्ति के अनंतर, पृथ वैन्य का युगारंभ होगा है । पृथ वैन्य के पश्चात् पृथ्वी वैवस्वत मनु एवं उसके वंश का राज्य शुरु होता है । एक उदारदाता, कृषि का आविष्कर्ता, एवं मनुष्य तथा पशुओं के आधिपति के रुप में वैदिक साहित्य में, इसका निर्देश प्राप्त है
[ऋ.१०.९३.१४] ;
[वे.८.१०.२४] ;
[पं.ब्रा.१३.५.१९] । वेन का वंशज होने के कारण इसे ‘वैन्य’ उपाधि प्राप्त थी
[ऋ. ८.९.१०] । शतपथ ब्राह्मण में इसका निर्देश ‘पृथु’ नाम से किया गया है, किन्तु सायणभाष्य में सर्वत्र इसे ‘पृथिन्’ कहा गया हैं । अथर्ववेद में भी ‘पृथिन्’ पाठ उपलब्ध है
[अ.वे.८.२८.११] ।
पृथु (वैन्य) n. शतपथ ब्राह्मण के अनुसार, पृथ्वी में सर्वप्रथम पृथु का राज्याभिषेक हुआ । इसी कारण राज्याभिषेक का धार्मिक विधियों में किये जानेवाले ‘पूर्वात्तरांगभूत’ होम को ‘पार्थहोम’ कहते हैं । इस राज्याभिषेक के कारण ग्राम्य एवं आरण्यक व्यक्तियों एवं पशुओं का पृथु राजा हुआ
[श.ब्रा.५.३.५.४] । इसने ‘पार्थ’ नामक साम कहकर समस्त पृथ्वी का आधिपत्य प्राप्त किया
[पं.ब्रा.१३.५.२०] । एक ऋषि एवं तत्त्वज्ञानी के नाते भी इसका निर्देश प्राप्त है
[जै.उ.ब्रा.१.१०.९] ;
[ऋ.१०.१४८.५] । इसका राज्यभिषेक महारण अथवा दंडकारण्य में संपन्न हुआ
[म.शां.२९.१२९] । इसके राज्याभिषेक के समय, भिन्न भिन्न देवों ने इसे विभिन्न प्रकार के उपहार प्रदान किये । इन्द्र ने अक्षय्य धनुष्य एवं स्वर्ण मुकुट, कुबेर ने स्वर्णासन, यम ने दण्ड, बृहस्पति ने कवच, विष्णु सुदर्शन चक्र, रुद्र ने चन्द्रभिम्बांकित तलवार, त्त्वष्टु ने रथ एवं समुद्र ने शंख दिया । पुराणों में इसे वैन्य अथवा वेण्य कहा गया है । यह चक्षुर्मनु के वंश के वेन राजा का पुत्र था
[पद्म. सृ.,२] । वेन राजा अत्यधिक दुष्ट था जिससे प्रजा बडी त्रस्त थी । उस समय के महर्षियो ने पूजा के साथ सद्व्यवहार करने के लिए बहु उपदेश दिया, पर उसका कोई प्रभाव न पडा । संतप्त होकर ऋषियों ने वेन को मार डाला । राजा के अभाव में अराजकता फैल गयी, जनता चोर, डाकुओं से पीडित हो उठी । पश्चात, सब ऋषियों ने मिलकर वेन की दाहिनी भुजा का, तथा विष्णु के अनुसार दाहिनी जंघा का मंथन किया । इस मंथन से सर्व प्रथम विन्घ्यनिवासी निषाद तथा धीवर उत्पन्न हुए । तत्पश्चात् वेन की दाहिनी भुजा से पृथु नामक पुत्र एवं अर्चि नामक कन्या उत्पन्न हुयी
[भा.४.१५.१-२] । पृथु विष्णु का अंशावतार था एवं जन्म से ही धनुष एवं कवच धारण किये हुए उत्पन्न हुआ था । उसके अवतीर्ण होते ही महर्षि आदि प्रसन्न हुए तथा उन्होंने इसे सम्राट बनाया
[पद्म. भू.२८] । राज्याभिषेक होने के उपरांत पृथु ने प्राचीन सरस्वती नदी के किनारे ब्रह्मावर्त में सौ अश्वमेध करने का संकल्प किया । निन्यायवे यज्ञ पूरे ही जाने के बाद इन्द्र को शंका हुई कि, कहीं यह मेरा इन्द्रासन न छील ले । अतएव उसने यज्ञ के अश्व को चुरा लिया । यही नहीं, कापालिक वेष धारण कर इन्द्र ने पृथु का यज्ञ न होने दिया । इस पर क्रोधित होकर पृथु इन्द्र का वध करने को उद्यत हुआ । दोनों में काफी संघर्ष न हो, इस भय से बृहस्पति तथा विष्णु ने मध्यस्थ होकर, दोनों में मैत्री की स्थापना कराई । भागवत के अनुसार अत्रि ऋषि की सहायता से पृथु-पुत्र विजिताश्व ने इन्द्र को पराजित किया
[भा.४.१९] । इसने महर्षियों को आश्वासन दिया, ‘मैं धर्म के साथ राज्य करुँगा । आप मेरी सहायता कीजिये’। महर्षियो ने इस पर ‘तथास्तु’ कहा । तत्पश्चात् शुक्र इसका पुरोहित बना, एवं निम्नलिखित ऋषि इसके अष्टमंत्री बनेः--वालखिल्य-सारस्वत्य, गर्ग-सांवत्सर, अत्रि-वेदकारक, नारद-इतिहास, सूत,मागध,बंदि
[म.शां.५९.११६ ११८, १३१] । पुरोहित, सारस्वत्य सांवत्सर, वेदकारक, इतिहास, और राजा ये छः नाम मिलते है । बाकी दो नाम का निर्देश नहीं है । सूत-मागध ये बंदिजन अलग है । सम्भव है मध्ययुगीन काल में, महाराष्ट्र के छत्रपति शिवाजी ने अष्टप्रधान की शासनव्यवस्था यही से अपनायी हो ।
पृथु (वैन्य) n. राज्याधिकार प्राप्त करने के पूर्व, ऋषियों ने पृथु वैन्य से निम्नलिखित शपथ ग्रहण करने को कहा-- “नियतो यत्र धर्मो वै, तमशङ्कः समाचर । प्रियप्रिये परित्यज्य, समः सर्वेषु जन्तुषु ॥ कामक्रोधौं न लोभं च, मानं चोत्सृज्य दूरतः । यश्व धर्मात्प्रविचलेल्लोके, कश्वन मानवः ॥ निग्राह्यस्ते से बाहुभ्यां, शश्वद्धर्ममवेक्षतः । प्रतिज्ञां चाधिरोहस्व, मनसा कर्मणा गिरा ॥ प्रालयिष्याम्यहं भौम, ब्रह्म इत्येव चासकृत्। " [में नियत धर्म को निर्भयता के साथ आचरण में लाऊँगा । अपनी, रुचि तथा अभिरुचि को महत्त्व ने देकर समस्त प्राणियों के साथ समता का व्यवहार करुँगा । मैं, काम, क्रोध,लोभ और मान को छोडकर धर्मच्युत व्यक्तियों को शाश्वत धर्म के अनुसार दण्ड दूँगा । मैं मनसा वाचा कर्मणा’ बार बार प्रतिज्ञा करता हूँ कि प्रजाजन को भौमब्रह्म समझकर उसका पालन करुँगा म.शां.५९.१०९-११६।] राजनीति की दृष्टि से इस प्रतिज्ञा में नियतधर्म एवं शाश्वधर्म के पालन पर जो जो दिया गया है, वह अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है । राज्य में विभिन्न धर्मो के माननेवाले व्यक्ति होते हैं, पर राजा उन सबको एकसूत्र में बॉंधकर जिस धर्म के द्वारा राज्य करता है वह समन्वय वादी, समतापूर्ण, सर्वजनहिताय होता है । इसी को इसे प्रतिज्ञा में ‘नियत’ एवं शाश्वत ‘धर्म’ कहा गया है । यह शाश्वत धर्म के पालन की कल्पना प्राचीन भारतीय संस्कृति की देन है । पृथु वैन्य की यह प्रतिज्ञा इग्लैण्ड आदि की राज्य-प्रतिज्ञा से काफी मिलती है । अन्तर केवल इतना है, कि वहॉं की प्रतिज्ञा किसी विशेष धर्म-प्रणाली में ही आबद्ध है, पर पृथु द्वारा ग्रहण की गयी प्रतिज्ञा अखिल मानव-धर्म को ही राजधर्म मानकर उसे ही प्रतिस्थापित करने की बात कहती है । कालिदास के रघुवंश में प्राप्त रघु राजा की प्रशस्ति में भी, ‘प्रकृतिरंजन’ प्रजा का ‘विनयाधान’ एवं ‘पोषण’ आदि शब्दों द्वारा यही कल्पना दोहरायी, गयी है । महाभारत के अनुसार, पृथु के अश्वमेध यज्ञ में अत्रि ऋषि ने इसे ‘प्रथमनृप’ ‘विधाता’ ‘इंद्र’ और ‘प्रजापति’ कहकर इसका गौरवगान किया । यह गौतम को असहनीय था अतएव उसने अत्रि ऋषि से वाद-विवाद किया । इस वाद-विवाद में सनत्कुमार ने अत्रि का पक्ष लेकर उसका समर्थन किया । तत्पश्चात् पृथु ने अत्रि को बहुत सा धन देकर उसका सत्कार किया
[म.व..१८३] । पृथु की राजपद्धति प्रजा के लिए अत्यधिक सुखकारी सिद्ध हुयी । इसकी राजधानी यमुना नदी के तट पर थी । सूत एवं मागध नामक स्तुति पाठक जाति की उत्पत्ति इसी के राज्यकाल में हुयी । उनमें से सूतों को इसने अनूप देश एवं मागधों को मगध एवं कलिंग देश पुरस्कार के रुप में प्रदान किया
[वायु.६२.१४७] ;
[ब्रह्मांड २.३६.१७२] ;
[ब्रह्म.४.६७] ;
[पद्म. भू. १६.२८] ;
[अग्नि. १८.८५] ;
[वा.रा.बा.३५.५-३५] ;
[कूर्म. पू. १.६] ;
[शिव.वाय. ५६.३०-५६.३०-३१] । काफी समय तक राज्य करने के उपरांत पृथु को वन में जाने की इच्छा हुयी । और यह अपनी पत्नी अर्चि को साथ लेकर वन गया । वन में इसकी मृत्यु हो गयी और इसके साथ इसकी पत्नी भी सती हो गयी
[भा.४.२३] ।
पृथु (वैन्य) n. भागवत के अनुसार पृथु को कुल पॉंच पुत्र थे, जिनके नाम इस प्रकार थेः---विजिताश्व (अन्तर्धान), धूम्रकेश, हर्यक्ष, द्रविण एवं वृक
[भा.४.२२.५४] । विष्णु के अनुसार, इसके अंतर्धि तथा पालित नामक दो ही पुत्र थे
[विष्णु.१.१४.१] ।
पृथु (वैन्य) n. पृथुवंश की जानकारी ब्रह्मांड पुराण में दी अंतर्धान । कन्या का नाम शिखण्डिनी था, जिसके पुत्र का नाम हविर्धान था । हविर्धान को आग्नेयी धिपणा नामक पत्नी से कुल छः पुत्र हुए, जिनके नाम निम्नलिखित हैः---प्राचीनबर्हिष, शुल्क, गय, कृष्ण, प्रज, अजित इनमें इसे प्राचीनबर्हिष का विवाह समुद्रतनया सवर्णा से हुआ, जिससे उसे दस प्रचेतस् उत्पन्न हुए । प्रेचेतसों का विवाह वृक्षकन्या मारिषा से हुआ जिससे उन्हें दक्ष प्रजापति नामक पुत्र उत्पन्न हुआ । पृथु-वंश में पृथु से लेकर यक्ष प्रजापति तक की संतति ‘अयोनिज’ सन्तति कहलाती है । दक्ष प्रजापति के पश्चात मैथुनज सन्तति का आरम्भ हुआ ।पृथुक---रैवत मन्वंतर का देवगण । इस गण में निम्नलिखित आठ देवता सम्मिलित हैः---अजित, ओजिष्ठ, जीगीषु, वानहृष्ट, विजय, शकुन, संत्कृत और सत्यदृष्टि
[ब्रह्मांड.२.३६.७३] ।
पृथु II. n. दक्षसावर्णि मनु का पुत्र ।
पृथु III. n. तामसमनु का पुत्र ।
पृथु IV. n. तामस मन्वंतर के सप्तर्षियों में से एक ।
पृथु IX. n. (सो. वृष्णि.) एक राजा । भागवत के अनुसार यह चित्ररथ राजा का पुत्र था ।
पृथु V. n. द्युआदि अष्ट वसुओं में से एक । भाइयों के कथना नुसार इसने वसिष्ठ की गाय चुराई । अतः वसिष्ठ ने इसे तथा इसके अन्य भाइयों को शाप दिया, ‘तुम्हें मनुष्य जन्म प्राप्त होगा ।’ बाद में यह शंतनु से गंगा के उदर में अपने अन्य भाइयों के साथ जन्मा । परंतु द्यु को छोड कर, अन्य वसुओं को जन्मतः ही पानी में डुबों देने के कारण, यह पुर्ण वसु के जन्म में आया
[म.आ.९३] ।
पृथु VI. n. (सू.इ.) एक राजा । भागवत तथा विष्णु के अनुसार, यह इक्ष्वाकुवंशीय अनेनस् राजा का पुत्र था । वायु में अनेनस् को पृथुरोमन् नामांतर दिया गया है । इसने सौ यज्ञ किये थे । इसके पुत्र का नाम विश्वगश्व था
[म.व.१९३.२-३] । रामायण में इसे अनरण्य राजा का पुत्र कहा गया हैं, और इसके पुत्र का नाम त्रिशंकु दिया गया है
[वा.रा.बा.७०.२४] ।
पृथु VII. n. (सो. अज.) । एक राजा । विष्णु तथा मत्स्य के अनुसार यह पार द्वितीय राज का पुत्र था । इसे वृषु नामांतर भी प्राप्त है ।
पृथु VIII. n. (सो.नील.) एक राजा । मत्स्य के अनुसर यह पुरुजानु राजा का पुत्र था (चक्षु २ देखिये) ।
पृथु X. n. ०. (सो. वृष्णि.) एक राजा । मत्स्य के अनुसार यह अक्रूर का पुत्र एवं इसकी माता का नाम अश्विनी है ।
पृथु XI. n. १. (सो. वृष्णि.) एक वृष्णिवंशीय राजा । भागवत के अनुसार यह रुचक राजा का पुत्र था । यह द्रौपदी स्वयंवर में उपस्थित था
[म.आ.१७७.१७] । रैवतक पर्वत के उत्सव में यह शामिल था
[म.आ.२११.१०] । हरिवंश में इसे ‘पृथुरुक्म, कहा गया है । संभव है, पृथु तथा रुक्म को मिलाकर ही इसे यह नाम प्राप्त हुआ हो ।
पृथु XII. n. २. शुक के पॉंच पुत्रों में से प्रभु का नामांतर ।
पृथु XIII. n. ३. ऋग्वेद में निर्दिष्ट एक मानव संघ
[ऋ.७.८३.१] । इनका निर्देश प्रायः ‘पर्शु’ लोगो के साथ आता है । लुडविग के अनुसार, आधुनिक पार्शियन एवं पर्शियन लोग ही प्राचीन ‘पृथु’ एवं ’पर्शु’ लोग होंगे ।
पृथु XIV. n. ४. लेक सदाचारसंपन्न ब्राह्मण । एक बार यह तीर्थयात्रा करने जा रहा था । इसे पॉंच विद्रूप प्रेतपुरुष दिखलायी पडे । वे सब अन्नदान के अभाव तथा याचकों के साथ अशिष्ठ व्यवहार के कारण निंद्य प्रेतयोनि में गये थे । उनमें से प्रत्येक व्यक्ति विकलांगी था । ‘पर्युषित’ वेदाह्व था । ‘सूचिमुख’ सुई के समान था । शीध्रग पंगु था । ‘रोहक’ गर्दन न उठा सकता था, तथा ‘लेखक’ को चलते समय अत्यधिक कष्ट होता था । बाद में, इस ब्राह्मण ने उन्हें प्रेतत्व की निवृत्ति के लिए आहार, आचार तथा व्रत बतलाये, तब उन सबका उद्धार हुआ
[पद्म.सू.२७.१८-४६] ।