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रैक्व (सयुग्वा) n. एक तत्त्वज्ञानी आचार्य, जिसका जीवनचरित्र एवं तत्त्वज्ञान छांदोग्योपनिषद में प्राप्त हैं । यह सदैव बैलों के गाडी के नीचे ही निवास करता था, जिस कारण इसे ‘सयुग्वा’ (गाडी के नीचे रहनेवाला) उपाधि प्राप्त हुई थी । रैक्व (सयुग्वा) n. एक बार जानश्रुति नामक राजा जंगल में शिकार के लिये घूमता था, जिस समय उसने दो हंसी के बीच हुआ संवाद सहजवश सुन लिया । इस संवाद में एक हंस दूसरे से कहता था, ‘जिस प्रकार पाँसों का अंतिम डाव जीतनेवाले को उस खेल के सारे दान प्राप्त होते है, उसी प्रकार सृष्टि के हरएक पुण्यवान् व्यक्ति के द्वारा किया गया पुण्यसंचय, गाडी के नीचे निवास करनेवाले रैक्व ऋषि तक पहुँचता हैं’ । हंसों का यहा संवाद सुन कर, जानश्रुति को अत्यंत आश्चर्य हुआ, एवं वह इसे ढूँडते ढूँडते वहाँ तक पहुँच गया, जहाँ खुजली को खुजलाते यह गाडी के नीचे बैठा था, राजा ने इसे अनेक गायें, सुवर्ण का रत्नहार, आदि अनेक उपहार देना चाहा, किंतु इसने उनका स्वीकार न कर, अपनी गाडी ही राजा को दान में दे दी । पश्चात जानश्रुति ने अपनी कन्या इसे विवाह में दे दी, एवं इसको प्रसन्न कर इससे तत्त्वज्ञान की शिक्षा पा ली । जानश्रुति ने इसे एक गाँव भी प्रदान किया था, जो महावृष देश में रैक्वपर्ण नाम से सुविख्यात हुआ [छां. उ. ४.३.१-२] ;[स्कंद. ३.१.२६] । रैक्व (सयुग्वा) n. रैक्व का कहना था कि, इंद्रद्दुम्न के समान समरत सृष्टि का आदिकारण एवं अदिदैवत वायु ही है, जिसमें सृष्टि की सारी वस्तुएँ विलीन होती है । इस प्रकार, आग्नि को बुझाने पर वह वायु में विलीन होता है; सूर्य एवं चंद्र अस्तंगत होने पर वे भी वायु में अंतर्धान होते हैं । रैक्व का यह तत्त्वजान ग्रीक तत्त्वज्ञ अँनाँक्झेमिनीज् के तत्त्वज्ञान से काफी मिलता जुलता है, जिसके अनुसार वायु को समस्त सृष्टि का आदि एवं अन्त माना गया है । वायु के कारण सृष्टि की सारी वस्तुएँ विनष्ट कैसी हो जाती है, इसका स्पष्टीकरण रैक्व के द्वारा नहीं दिया गया है । किन्तु जिस प्राचीन काल में. अप एवं अग्नि को सृष्टि का आदि कारण माना जाता था, उस समय सृष्टि के अन्य वस्तुओं के समान, अप एवं अग्नि स्वयं वायु में ही विलीन होते हैं, यह क्रन्तिदर्शी तत्त्वज्ञान रैक्व के द्वारा प्रस्थापित किया गया । पद्म में भी रैक्व का निर्देश प्राप्त है, जहाँ इसने जानधुनि को गीता के छठवे अध्याय के पठन से मन:शान्ति प्राप्त करने का उपदेश प्रदान करने की कथा प्राप्त है [पद्म. उ. १७६] ।
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