लकुलिन् n. एक शिवावतार, जे वारहकल्प के वैवस्थत मन्वंतर के अठ्ठाईस वें युगचक्र में उत्पन्न हुआ था । वायु के अनुसार शिव महेश्वर का यह अवतार, कृष्ण द्वैपावयन व्यास, एवं वासुदेव कृष्ण का समाकालीन था
[वायु २३] . । यह अवतार हाथ में डंडा उकुट, लगुड, अथवा लकुल धारण कर अवतीर्ण हुआ. जिस कारण इसे लकुलिन् नाम प्राप्त हुआ । समथान में डाले गए प्रेत के शरीर में योगमाया से प्रविष्ट हो कर, यह कायावतार अथवा कायावरोहण नामक तीर्थ में अवतीर्ण हुआ । इसके कुशिक, गर्ग, मित्र, एवं कौरुष्य नामक चार शिष्य थे, जो जाति से ब्राह्मण, वेदवेत्ता, एवं ऊर्ध्वरेतस् थे
[शिव. शत. ५] । इसके इन शिष्यों ने पाशुपत नामक शिवोपासना की प्रतिष्ठापना की । उदयपुर के उत्तर में १४ मैल पर स्थित नाथ-द्वार मंदीर में ई. स. ९७१ एक शिलालेख प्राप्त है, जहाँ भृगु ऋषि के द्वारा प्रार्थना किये जाने पर लकुलिन् नामक शिवावतार भृगुकच्छ गांव में अवतीर्ण होने का निर्देश प्राप्त है । ई. स. १२९६ के ‘चित्रप्रशस्ति’ नामक शिलालेख में ‘भट्टारक श्रीलकुलीश’ नामक शिवावतार लाट देश में कारोहण नामक ग्राम में निवास करने का निर्देश प्राप्त है । मैसूर राज्य में हेमावती ग्राम में प्राप्त ई. स. ९४३ के अन्य एक शिलालेख में लकुलिन् के द्वारा मुनिनाथ चिल्लुक नाम से पुन: अवतार लेने का निर्देश प्राप्त है
[डॉ. भांडारकर, वैष्णविजम. पृ. १६६] डॉ. भांडारकरजी के अनुसार, लकुलिन् एक जीवित व्यक्ति था, जिसने पाशुपत नामक आद्य शैव सांप्रदाय की स्थापना की । इसके वासुदेव कृष्ण का समकालीन होने के पुराणों में प्राप्त निर्देशों से प्रतीत होता है कि, पाशुपत सांप्रदाय स्थापन करने की प्रेरणा इसे पांचरात्र नामक वैष्णव संप्रदाय से प्राप्त हुई थी । इसी कारण, इसका काल ई. पू. २ री शताब्दी माना जाता है (रुद्र-शिव देखिये) ।