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सवितृ n. एक सुविख्यात देवता, जो अदिति का पुत्र माना जाता है । इसी कारण इसे ‘आदित्य’ अथवा ‘आदितेय’ नामान्तर भी प्राप्त थे [ऋ. १.५०.१३, ८.१०१.११, १०.८८.११] । ऋग्वेद में आदित्य, सूर्य, विवस्वत्, पूषन्, आर्यमन्, वरुण, मित्र, भग आदि देवताओं को यद्यपि विभिन्न देवता माना गया है, फिर भी वे सारे एक ही सूर्य अथवा सवितृ देवता के विभिन्न रूप प्रतीत होते है [ऋ. ५.८१.४, १०.१३३.१] ; विवस्वत् देखिये । सायण के अनुसार, उदित होनेवाले सूर्य को ऋग्वेद में ‘सवितृ’ कहा गया है, एवं उदय से अस्तकाल तक आकाश में भ्रमण करनेवाले सूर्य को वहाँ ‘सूर्य’ कहा गया है [ऋ. ८.५.११. सायणभाष्य] ।
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सवितृ n. सवितृ की उत्पत्ति किस प्रकार हुई इस सबंध में अनेक निर्देश प्राप्त है । ऋग्वेद में निम्नलिखित देवताओं के द्वारा सवितृ की उत्पत्ति होने का निर्देश प्राप्त हैः-- १. इंद्र [ऋ. २.१२.७] ; २. मित्रावरुण [ऋ. ४.१३.२] ; ३. सोम [ऋ. ६.४४.२३] ; ४. इंद्र-सोम [ऋ. ६.७२.२] ; ५. इंद्र एवं विष्णु [ऋ. ७.९९.४] ; ६. इंद्र-वरुण [ऋ. ७.८२.३] ; ७. अग्नि एवं धातृ [ऋ. १०.१९०.३] ; ८. अंगिरस् [ऋ. १०.६२.३] ।
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सवितृ n. सूर्य के गुणवैशिष्ट्य के संबंध में अनेकानेक काव्यमय वर्णन ऋग्वेद में प्राप्त हैं। मनुष्यजाति की सारी शारीरिक व्याधियाँ दूर कर (अनमीवा), यह उनका आयुष्य बढ़ाता है [ऋ. ८.४८.७, १०.३७.७] । इस सृष्टि के सारे प्राणि इस पर निर्भर रहते है [ऋ. १.१६४.१०] । यह सारे विश्र्व को उत्पन्न करता है, जिस कारण इसे ‘विश्र्वकर्मन्’ कहा जाता है [ऋ. १०.१७०.४] । यह देवों का पुरोहित है [ऋ. ८.१०१.१२] । यह मित्र, वरुण आदि अन्य देवताओं का मित्र है । इसी कारण इन देवताओं की की गयी प्रार्थना इसके द्वारा ही उन्हें पहुँचती है [ऋ. ६०.१] । ऋग्वेद में सूर्यबिंब का उल्लेख कर अन्य भी बहुत सारा वर्णन प्राप्त है । किन्तु इसे मानव मान कर जितना भी वर्णन ऋग्वेद में दिया है, इतना ही ऊपर दिया गया है । ऋग्वेद में प्राप्त सवितृ के वर्णन में सारी मानवीय सृष्टि इसी पर निर्भर रहती है, यह मध्यवर्ति कल्पना प्रमुख है [ऋ. १.११५.१] । इसी कारण संध्यावंदन जैसे धार्मिक नित्यकर्म में इसे प्रतिदिन अर्घ्य दे कर, इस संसार को त्रस्त करनेवाले असुरों से संरक्षण करने के लिए इसकी प्रार्थना की जाती है [तै. आ. २] ;[ऐ. ब्रा. ४.४] । स्वरूपवर्णन---यह स्वर्णनेत्र, स्वर्णहस्त एवं स्वर्ण जिह्वावाला बताया गया है [ऋ. १.३५] ; ६.७१ । इसकी भुजाएँ भी स्वर्णमय है, एवं इसके केश पीले है [ऋ. ६.७१.१०.१३९] । यह पिशंग वेषधारी है, एवं इसके पास स्वर्णस्तंभवाला स्वर्णरथ है [ऋ. ४.५३.१.३५] । इसका यह रथ दो प्रकाशमान अश्वों के द्वारा खींच जाता है । यह महान् वैभव (अमति) से युक्त है, एवं इस वैभव को यह वायु, आकाश पृथ्वी आदि को प्रकाशमय कर तीनों लोगों में प्रसृत कर देता है [ऋ. ७.३८.१] । अपने सुवर्ण ध्वजाओं को उँचा उठा कर यह सभी प्राणियों को जागृत कर देता है, एवं उन्हें आशीर्वाद देता है [ऋ. २.३८] ।
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सवितृ n. इस साहित्य में इसे कश्यप, प्रजापति एवं अदिति का कनिष्ठ पुत्र कहा गया है [विष्णुधर्म. १.१०६] । जन्म से ही इसके अवयवरहित होने के कारण, इसे ‘मार्तंड’ नामान्तर प्राप्त था । अन्य देवताओं से पहले निर्माण होने के कारण इसे ‘आदित्य’ भी कहते थे [भवि. ब्राह्म. ७५] । इसी पुराण में अन्यत्र इसे ब्रह्मा के वंशान्तर्गत मरीचि ऋषि का पुत्र कहा गया है [भवि. ब्राह्म. १५५] । इसके ज्येष्ठ भाई का नाम अरुण था ।
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