धर्मव्याध n. मिथिला नगरी में रहनेवाला एक धर्म परायण व्याध । इसने कौशिक नामक गर्वोद्धत ब्राह्मण को, मातापिता की सेवा का माहात्म्य बता कर विदा किया
[म.व.१९७.२०६] । इसे अर्जुन तथा अर्जुनी नामक अपत्य थे । उनमें से अर्जुनी विवाह योग्य होने के पश्चात्, मतंग ऋषि के पुत्र प्रसन्न से उसका विवाह हुआ । धर्मव्याध अत्यंत धार्मिक था । पंच महायज्ञ, अग्नि परिचर्या तथा श्राद्धादि कर्म यह बहुत ही भाविकता से हररोज करता था । परंतु यह सारे धर्मकृत्य यह मृगया करते करते ही करता था । एक बार, अर्जुनी की सास ने उसे व्यंग वचन कहे, ‘यह तो जीवघात करनेवालों की कन्या है । यह, तप करने वालों के आचार भला क्या समझेंगी? धर्मव्याध को इसका पता चल गया । मतंग को इसने समझया, ‘शाकाहारि होते हुए भी तुम जीवघातक हो’। पश्चात् इसने संसार के सास ससुरों को शाप दिया, सासससुर पर बहुएँ कभी भी विश्वास नही रखेगी, तथा यह भी न चाहेंगी कि उन्हें सासससुर हों
[वराह.८.] । पूर्वजन्म में यह एक सामान्य व्याध था । काश्मीराधिपति वसु राजा को इसने पूर्वजन्म का ज्ञान दिया । उस कारण वसु राजा ने इसे वर दिया, ‘अगले जन्म में तुम धर्मव्याध बनोगे’
[वराह.६] । महाभारत में यही कथा कुछ अलग ढंग से दी गयी है । पूर्व में यह वेद पारंगत ब्राह्मण था । परंतु एक राजा की संगत में आकर क्षात्रधर्म में एवं धनुर्विद्या में इसे रुची उत्पन्न हो गयी । एक बार यह उस राजा के साथ शिकार के लिये गया । अनजाने में इसके हाथ के ऋषि का वध हो गया । ऋषि ने इसे शाप दिया, ‘तुम शूद्रयोनि में व्याध बनोगे’ । अनजाने में अपराध हो गया आदि प्रार्थना ऋषि से करने पर, उसने उःशाप दिया, ‘व्याध होते हुए भी तुम धर्मज्ञ बनोंगे । पूर्वजन्म का स्मरण तुम्हें रहेगा, एवं अपने मातापिता की सेवा तुम करोंगे’
[म.व.२०५] ; कौशिक ७. देखिये । महाभारत में धर्मव्याध के द्वारा, निम्नलिखित विषयों पर विवरण किया गया हैः--वर्णधर्म का वर्णन
[म.व.१९८.१९-५५] ;शिष्टाचार का वर्णन
[म.व.१९८.५७-९४] । हिंसा एवं अहिंसा का वर्णन
[म.व.१९९] ; धर्मकर्मविषयक मीमांसा
[म.व.२००] ; विषयसेवन से हानी एवं ब्राह्मीविद्या का वर्णन
[म.व.२०१] ; इंद्रियनिग्रह का वर्णन
[म.व.२०२] । कालंजरगिरि पर इन्द्र के साथ सोम पीने का सम्मान इसे मिला था
[ब्रह्म.१३.३९] ।