ब्राम्हण आदिकोंको शुभदायी होत हैं और सब वर्णोंके लियेभी शोभन हैं उत्तम घरोंका शुभकालमें और शुध्दिविधिसे स्थापन करना ॥२१॥
काष्ठाआदिसे बनायेहुए घरोंमे कालकी अपेक्षाको न करै तृण और काष्ठके गृहारंभमें भी विकल्प न करै ॥२२॥
सुवर्णादिके गृहारंभमें मासका दोष नहीं होता. पश्चाड्न:के शुध्द कालमें प्रारभ करै. चैत्र भाद्रपद और पौष इनमें प्रवेश न करै ॥२३॥
महोत्सबमें प्र्वेश ( न ) करै. पक्कीईटोंसे बनाये हुए शिल्पके मानको कहते हैं ॥२४॥
काष्ठ आदिसे बनायेहुए घरमें स्तंभके मानको कहते है सुवर्ण आदिके घर्में हस्तप्रमाणको कहते हैं. लाखाआदिसे बनाये घरमेम किंचितभी प्रमाणकी नहीं कहते हैं ॥२५॥
पादुका और उपानह अंगुलके प्रमाणसे बनवाने, मंच आदि और आसनभी अंगुलसेही बनवावे ॥२६॥
प्रतिमा पीठिका लिंग और स्तंभ गवाक्षोंका प्रमाण और शिलाका मान ॥२७॥
खड्ग, चर्म और आयुध इनका प्रमाण अंगुलसेही होता है. विषम अंगुल पुरुषोंका सुखदायी और सम अंगुल पुरुषोंके सुखके नाशक होते हैं ॥२८॥
अब संक्षेपसे अंगुलके प्रमाणको कहता हुं-नव आठ सात छ: ये हैं पूर्व जिनके ऎसे अंगुल कहे हैं ॥२९॥
तीन प्रकारके भी हाथक प्रत्येक कर्म दिखाया है ग्राम खेट पुर आदिकोंका यह विभाग विना विस्तारसे है ॥३०॥
परिखा ( खाँई ) द्वार रथ्या (गली ) स्तम्भ जो प्रासाद ( घरों ) के होत हैं. उनके निकसनेके मार्गमें और सीमाके अन्तमें अन्त्रान्तर ॥३१॥
दिशान्तरोंका विभाग वस्त्र और आयोधनका विभाग और मार्गका परिमाण क्रोश गत्यूति और योजनोंसे होता है ॥३२॥
खात क्रकच इनकी राशि प्रासादका आंगन और आयत इनको नौ ९ जिसमें यव हों ऎसे अंगुलके हाथसे मापकर बनवावे ॥३३॥
अयोधनचर्म और चण्ड आयुध वापी कूपका और हाथी और घोडोंका प्रमाण ॥३४॥
इक्षुमन्त्र ( कोल्हू ) आरघण्ट हलयूप युग ( जूआ ) ध्वजा और जिनमें जल न हो ऎसी नाव और शिल्पियोंकी गजाआदि वस्तु ॥३५॥
पादुका वदशी ( कोठी ) छत्र धर्मके उद्दयान इनका प्रमाण आठ ८ जौके हाथसे करे और दण्डोंको न मापै ॥३६॥
जालन्धरमें हस्तकी संख्या और अवधमें द्ण्डकी और मध्यदेशमें क्रोशकी संख्या और द्वीपान्तरमें योजनकी संख्या होती है ॥३७॥
चौवीस अंगुलोंसे हाथका प्रमाण कहते हैं चार हाथका दण्ड और दो सहस्त्र हाथका क्रोश होता है ॥३८॥
चार क्रोशका योजन और दश हाथका एक वंश होता है बीस हाथका निवर्तन और चौवीस हाथका क्षेत्र होता है ॥३९॥
सौ घरोंका स्थान और गृह आदिकोंका निवर्तन इन सबका स्थान ८१ इक्यासी पर्दोंके वास्तुसे मापकर बनावै ॥४०॥