पापयक्ष्मा पीतवर्णका सूर्य रश्मि० इस मन्त्रसे पूजित करना, कोणमें स्थित रोग रक्तवर्णं है उसकी पूजा शिरो मे० इस मन्त्रसे करनी ॥८१॥
वायु कोणमे द्विपद रक्त उसकी पूजाका मन्त्र नमोस्तु सर्पेभ्य:० यह है मुख्य रक्तशरीर बनाना और इषेत्वा० इस मंत्रसे पूजना ॥८२॥
भल्लाटक कृष्णवर्ण बण्महां असि० इस मन्त्रसे पूजना । श्वेतवर्णका सोम उत्तरमें स्थित होता है उसका वयं सोम० इस मंत्रसे पूजन करना ॥८३॥
सर्प कृष्णवर्णका उसका उदुत्य जातवेदसं० इस मंत्रसे पूजन करना । अदिति पीतवर्णंकी उसकी उतनोहिर्बुध्न्य० इस मंत्रसे पूजा करनी ॥८४॥
दिति पीत वर्णकी उसकी पूजा अदितिद्यो० इस मंत्रसे ईशानकोणमें करनी. ईशान आदि क्रमसे ही इनका स्थापन और पूजन अपने अपने मन्त्रसे करना ॥८५॥
अथवा नाममंत्रसे स्थान पूजन क्रमसे करना अथवा ॐकार है आदिमें जिनके ऎसे भूर्भव: स्व: इस मंत्रसे नाम ले लेकर पूजन करना ॥८६॥
रेखाओंसे बाह्य देशमें ईशानकोणके विषे चरकी स्थापन करे और उसका स्थापन और पूजन बडे यत्नसे ईशावास्य० इस मंत्रसे करे ॥८७॥
विदारिका रक्तवर्णं उसका अग्निन्दूतम० इस मंत्रसे पूजन करे, पूत्रना पीली और हरितवर्णंकी उसका नमस्तुत्याय० इस मंत्रसे पूजन कर ॥८८॥
पापराक्षसी कृष्णवर्णकी उसके पूजन वायव्यै: इस मंत्रसे करे और बहिर्देशमें पूर्वाआदि क्रमसे उसके अनन्तर पूजन करे ॥८९॥
स्कन्धघटी रक्त और कृष्ण्वर्ण एह्यत्रमय० इस मंत्रसे पूजित करनी, अर्यमा दक्षिणमें कृष्णवर्णकी अर्यम्णाच बृहस्पति० इस मंत्रसे दक्षिण दिशामें पूजित करना ॥९०॥
पश्चिममें रक्त वर्णका जम्भक कहा है उसका पूजन सरोभ्यो भैरवं० इस मत्रका उच्चारण करके करे ॥९१॥
पिलिपिच्छिक पीत वर्णका उसका पूजन कारंभमर० इस मंत्रसे कर, ईशानमें भीमरुप रक्त वर्णका उसका पूजन यमायत्वा इस मंत्रसे करे ॥९२॥
त्रिपुरारि कृष्णवर्ण है उसका त्र्यम्बक० इस मंत्रसे अग्निकोणमें पुजन करे, नैऋतमें पीतवर्णंका अग्नि जिह्य उसका पूजन ‘असुन्वन्त०’ इस मंत्रसे करे ॥९३॥
कराल रक्त वर्ण उसका पुजन ‘वातोहत्वाहणास्थित:०’ इस मंत्रसे करे हेतुक पूर्व दिशामें कृष्णवर्णका उसका पुजन ‘ हेमन्ते ऋतुना०’ इस मन्त्रसे करे ॥९४॥
अग्निवेताल दक्षिण दिशामें उसका पुजन दक्षिणदिशामें अग्निंदूतम०इस मन्त्रसे करे, काल पश्चिम दिशामें कृष्णवर्णका उसका ‘ वरुणस्योत्तम्भनमसि०’ इस मंत्रसे पूजन करे ॥ एकपद उत्तरमें पीतवर्णक उसका ‘कुविदंग ’ इस मंत्रसे पूजन करे, ईशान और पूर्व दिशाके मध्यमें पीत वर्णका गन्धमाल्य होता है ॥९५॥९६॥
उसका पूजन अन्तरिक्षमें ‘गधद्बारा० ’ इस मंत्रसे करे नैऋति दिशामें बुध्दिके मध्यमें स्थित श्वेतरुपधारी ज्वालास्य है ॥९७॥
विधिसे पूजन ‘महीद्यो:०’ इस मंत्रसे करे हो बाह्य देवता कहे है उनके पूजन प्रासादमें करै ॥९८॥
दुर्ग और देवालय और शल्योद्वारमें विशेषकर पुजन करे और चतुष्षष्टि हैं पद जिसमें ऎसे वास्तुकोभी बनावे ॥९९॥
कलशके विषे वरुणदेवका स्थापन करै और उस कलशको तीर्थके जल और सर्व बीजोंसे पूरित करै ॥१००॥