अध्याय पाँचवा - श्लोक १४१ से १६०

देवताओंके शिल्पी विश्वकर्माने, देवगणोंके निवासके लिए जो वास्तुशास्त्र रचा, ये वही ’ विश्वकर्मप्रकाश ’ वास्तुशास्त्र है ।


ईशानमें भीम रोगको कपोत और सुराकी बलि दे और वसा रुधिर मांस और कृशर अन्नकी बलिभी दे ॥१४१॥

आग्नेयमें अदिति सन्धारि त्रिपुरान्तक रुपघृक और नैऋतमें अग्निजिह्यको सैन्धव मिले दूधकी बलि दे ॥१४२॥

और मांस रुधिरको बलि उस दिक्पालको नमस्कार है यह कह कर दे. अग्नि वैतालिकको दक्षिणमें रुधिर मांसकी बलि है ॥१४४॥

पश्चिममें कालाख्यको मांसौदनकी बलि दे, उत्तरमें एकपादकी कृशराकी बलि दे ॥१४५॥

अग्नि और पूर्वके मध्यमें वितानकको गन्धमाल्य दे नैऋत और पश्चिमके मध्यमें ज्वालास्य देवता कहा है ॥१४६॥

उसको दही अक्षतोंसे युक्त मोदकोंको दे, दिक्पालोंको बलि देकर फ़िर क्षेत्रपालको आगमोक्तमंत्र वा वेदोक्त मंत्रसे बलि दे ॥१४७॥

क्षेत्रपालकी बलिका अपने अंगमेम किंकिणी ज्वालामुख भैरवको तुरु मुरुमुरुललषषषषषकेंकार दुरित दिड:मुख रुप है महाबाहो ! आज करने योग्य वास्तुकर्ममें अमुक नाम यजमानकी रक्षा करो, आयुका कर्ता कुशलका कर्ता और दीपक सहित इस पशुको और माषभक्त बलिको ग्रहण करो स्बाहा० इस मन्त्रसे क्षेत्रपालको बलि देकर ॥१४८॥

सन्ध्याके समयमें नैऋत्य दिशामें भुतोंको शास्त्रोक्त विधानसे बलिको मन्त्रक ज्ञाता द और रात्रिमें भोजन करै संयमसे रहै. पुरोहित यजमाने गुडौदन ॥१४९॥

कुल्माष ( रनास जिसमें मिलाहो ) ऎसे जो अपूप और बहुतसे पक्वान्न जिनमें हो और बालकोंको खिलोने ॥१५०॥

फ़ल अनारके बीज और मनोहर समयके फ़ूल इनकी मात्रा जो भोजनके योग्य न हो अर्थात अल्प अल्प बलिकर्ममें कही है ॥१५१॥

उनके मन्त्र ये हैं कि, देवी देवता मुनींद्र त्रिभुवनके पति दानव सर्व सिध्द यक्ष राक्षस नाग गरुड हैं मुख्य जिनमें ऎसे पक्षी गुह्यक देवताओंके देव डाकिनी देवताओंकी वेश्या हरि समुद्रके पति मातर विघ्ननाथ प्रेत भूत पिशाच श्मशान और नगर आदिके अधिपति और क्षेत्रपाल ॥१५२॥

गन्धर्व और संपूर्ण किन्नर जटाधारी पितर ग्रह कूष्माण्डपूतना रोग वैतालिक शिव ॥१५३॥

रुधिरसे युक्त और पिशुन ( चुगल ) और अनेक प्रकारके मांसके भक्षक लम्बक्रोड दीर्घ शुक्ल ॥१५४॥

खड्ग ( लँगडे ) स्थूल एकाक्ष अनेक प्रकारके वे जिनके पक्षियोंके समान मुख हों सर्पके समान जिनके मुख हों और उष्ट्मुख और मुखसे हीन और क्रोड ( छाती ) से हीन ॥१५५॥

धमनके समान जिनकी कान्ति और तमालके समान जिनकी कान्ति है हाथीसे समान मेघकी समान जिनकी कान्ति बगलेके समान और क्षितिके तुल्य वज्रके शब्दके समान हैं शब्द जिनका ॥१५६॥

शीघ्रगामी पवनके समान जिनका वेग और वायुके तुल्य जिनका वेग है जिनके अनेक मुख हैं अनेक शिर हैं और अनेक भुजाओंसे जो युक्त हैं ॥१५७॥

जिनके बहुत पाद है और जिनके बहुत नेत्र हैं जो संपूर्ण भूषणोंसे भुषित हैं जिनका विकट रुप है और जो मुकुटके धारी हैं और जो रत्नके धारी हैं ॥१५८॥

जिनका कोटियों सूर्यके समान तेज है और जिनका बिज्लीके समान तेज हैं, जिनका कपिल रंग है और समान वर्ण है एसे जो अनेक रुपके प्रमथ हैं ॥१५९॥

वे संपूर्ण बलिको ग्रहण करो. तृप्त होकर जाओ उनके प्रति नमस्कार है फ़िर आचार्य मन्त्रोंसे अभिमंत्रित किये हुए कलशको लेकर ॥१६०॥

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Last Updated : January 20, 2012

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