अध्याय साँतवा - श्लोक १ से २०

देवताओंके शिल्पी विश्वकर्माने, देवगणोंके निवासके लिए जो वास्तुशास्त्र रचा, ये वही ’ विश्वकर्मप्रकाश ’ वास्तुशास्त्र है ।


इसके अनन्तर हे ब्राम्हणोंमें इन्द्र ! उत्तम द्वारके लक्षणोंको सुनो द्वारके विन्यासमें पन्द्रह १५ पक्ष कहे हैं, अर्थात पन्द्रह प्रकारके होते हैं ॥१॥

वे नभस्य ( भाद्रपद ) आदि तीन तीन मासोंमें क्रमसे होते हैं वास्तु पुरुषका मुख जिस दिशामें हो उसी दिशामें स्थानका द्वार शुभदायी होता है ॥२॥

अन्यदिशाके मुखका घर दु:ख शोक भयका दाता होता है तिससे वास्तुपुरुषके मुखकी दिशाका द्वारही श्रेष्ठ है अन्य दिशाका नहीं ॥३॥

अब दूसरे प्रकारको कहते हैं कन्या आदि राशियोंपर तीन तीन राशियोंपर सूर्यके स्थित होनेके समय पूर्व आदि दिशाओंमें द्वारको न बनवावे ॥४॥

अब तीसरे प्रकारको कहते हैं-कर्क और सिंहके सूर्यमें पूर्व और पश्चिममें मुख होता है, मेष और वृश्चिककें सूर्यमें उत्तर दक्षिणमें मुख होता है ॥५॥

अन्यथा जो गृहका द्वार बनाता है उसको व्याधि शोक और भय होता है. अन्य राशियोंके सूर्यमें द्वारको कदाचित न बनवावे ॥६॥

अब चौथे प्रकारको कहते हैं- सिंहके सूर्यमे पश्चिम द्बारको, तुलाके सूर्यमें उत्तर मुखके द्वारको, कर्कके सूर्यमें पूर्व दिशाके द्वारके द्वारको बनवावे, पश्चिम दिशाको छोडकर द्वार होता है ॥७॥

कर्क और सिंहके सूर्यमें पूर्वका द्वार श्रेष्ठ नहीं, तुला और वृश्चिकके सूर्यमें पश्चिम दिशाको छोडकर अन्यदिशामें द्वार बनवावे ॥८॥

कर्कके सिंहके सूर्यमें दक्षिणका द्वार शोभन नहीं, मकरके कुंभके सुर्यमें उत्तरका द्वार निन्दित है. मिथुन कन्या धन मीन इनके सूर्यमें द्वारको न बनवाने ॥९॥

द्वारका स्तंभ और काष्ठका संचय इनकोभी विशेषकर वर्ज दे । माघमें और सिंहमें काष्ठके छेदनको न करवावे, जो मूढ मोहसे करते हैं उनके घरमें अग्निका भय होता है ॥१०॥

अब पश्चम प्रकारको कहते है - पूर्णिमासे अष्टमीतक पूर्व मुखके द्वारको वर्जदे, नवमीसे चतुर्दशीपर्यन्त उत्तरमुखके द्वारको वर्जदे ॥११॥

अब छठे प्रकारको कहते हैं-ब्राम्हणोंके घरका द्वार पश्चिममुखका, क्षत्रियोंके उत्तरमुखका, वैश्योंके पूर्वमुखका, शूद्रोंका दक्षिणमुखका शुभ होता है ॥१२॥

अब सातवें प्रकारको कहते हैं-कर्क वृश्चिक मीन ये राशि ब्राम्हण कहाती हैं, मेष सिंह धनु ये राशि क्षत्रिय कहाती हैं ॥१३॥

वृष मृग कन्या ये राशि वैश्य कहाती हैं और शेष राशि शूद्र कहाती हैं. वर्णके क्रमसे पूर्व दक्षिण पश्चिम और उत्तरदिशाओंके द्वार होते हैं ॥१४॥

जिस मनुष्यकी जो राशि हो उसीसे उसका द्वार बनवावे, उसके विपरीत दिशामें द्वार बनवानेसे कर्ताको इष्टफ़ल नहीं होता ॥१५॥

अब आठवें प्रकारको कहते हैं-धन मेष सिंह इन राशियोंपर जब चद्रमा हो तो पूर्व दिशामें द्वार बनवावे, मकर कन्या और वृषका चद्रमा होय तो दक्षिणदिशामें द्वार बनवावे, तुला मिथुन कुम्भका चद्रमा होय तो पश्चिममुखके द्वारको बनवावे ॥१६॥

कर्क वृश्चिक मीनका होयतो उत्तरमें द्वारको बनवावे, अब नवमप्रकारको कहते हैं-कृत्तिकासे सात नक्षत्र पूर्वमें और मघा आदि सात नक्षत्र दक्षिणमें ॥१७॥

अनुराधा आदि सात नक्षत्र पश्चिममें और घनिष्ठा आदि सात नक्षत्र उत्तरमें जानने, जिस दिशाके नक्षत्रपर चद्रमा स्थित हो उस दिशामें द्वार बनाना शुभ है ॥१८॥

पीठ दक्षिण और वामभागके नक्षत्रपर द्वारको कदाचित न बनवावे. अब दशवें प्रकारको कहते हैं- हे द्विजो ! पूर्व आदि दिशाओंमें सव्य ( वाम ) मार्गसे वर्गोंको स्थापन करै ॥१९॥

सिंहमे उत्तर दिशा और पश्चिम दिशाके द्वारको वर्जदे, अब ग्यारहवें प्रकारको कहते हैं-पूर्व और दक्षिणमें मेषके सूर्यमें वृषमें पूर्व दिशमें द्वारको बनवावे, अन्यदिशामें नहीं ॥२०॥

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Last Updated : January 20, 2012

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