स्तंभके वेधमें और पाषाणके वेधमें स्त्रीका नाश होता है, देवताके संनिधानमें घर होय तो घरके स्वामीका क्षय होता है ॥८१॥
श्मशानके संमुख घरमें राक्षसोंसे भय होता है इससे चतु:षष्टिपद वास्तुविधिको करके मध्यमें द्वारको बनवावे ॥८२॥
विस्तारसे दूनी ऊंचाई और ऊंचाईका तीसरा भाग पृष्ठ होता है और विस्तारसे आधा गर्भ ( चौक ) होता है और वित्तकी योनि चारोंतरफ़ होती है ॥८३॥
गर्भके पादसे विस्तीर्ण और द्विगुण ऊंचा द्वार होता है. ऊंचाईसे पादमात्र विस्तारकी ( गूलर ) देहलीकी द्वारशाखा होती है ॥८४॥
विस्तारके पादकी बराबर शाखाओंका बाहुल्य कहा है, तीन, पांच, सात, नौ, शाखाओंका द्वार इष्ट होता है ॥८५॥
उसको कनिष्ठ मध्यम ज्येष्ठ यथायोग्य बनवावे. विस्तारसे दूनी ऊंचाई होती है वह चालीस हस्तोंसे उत्तम कही है ॥८६॥
उत्तम घर धन्य आयुका दाता धन्यधान्यका वर्द्वक होता है घरमें १८० एकसौ अस्सी ऐसी खिडकी हों जिनमें पवनका गमन आगमन होता हो ॥८७॥
किसी प्रकार दशअधिक शत ११०वा सोलहसे अधिक शत ११६ अथवा शत हो, वा तृतीय ७५ हो अथवा अशीति ८० ऐसे द्वार बनवावे ॥८८॥
ये दश प्रकारके द्वार क्रमसे सदैव कहे हैं. अन्य जो मनके उद्वेग करनेवाले द्वार है वे सदैव वर्जित हैं ॥८९॥
द्वारके वेधको तो यत्नसे सर्वथा वर्ज दे घरकी ऊंचाईसे दूनी भूमिमें छोडकर बाह्य भागमें द्वार स्थित रहता है ॥९०॥
एक घरका वेध गृहके स्वामीको नहीं होता है घरका आधा भाग गृहिणी जानना वह गृहसे पूर्व और उत्तरमें शुभ है ॥९१॥
वा पक्षिणी होती है इस प्रकारसे अन्यके बनवाये घर सिध्दिके दाता नहीं होते हैं मुखके द्वारका जिससे अवरोध ( रोक ) हो ऐसे पृष्ठ द्वारको कदाचित न बनवाने ॥९२॥
यदि द्वारके मुखका अवरोध होजाय तो निश्चयसे कुलका नाश होता है पृष्ठके द्वारमें सबका नाश होता है. स्वयं उध्दटित ( खोले ) में भी यही अनिष्ट फ़ल होते हैं अर्थात शास्त्रोक्त रीतिसे द्वारको बनवावे अपने इच्छासे नहीं ॥९३॥
प्रमाणसे न्यूनमें दु:ख होता है. प्रमाणसे अधिकमें राजाका भय होता है, यदि द्वार आधा खण्डित होय तो अस्तके वेधको कहते हैं ॥९४॥
जो कपाटका छिद्र होय तो कपाटछिद्रवेधको कहते हैं, यदि यन्त्रसे विध्द द्वार होय तो प्रासादमें धनका नाश होता है ॥९५॥
जिस द्वारके स्तंभमें शब्द होता हो उसके वंशका नाश होता है तिकोना शकटकी तुल्य सूप व्यंजन इनके समान जो द्वार है ॥९६॥
मुरजाकार वर्तुल द्वारोंको और प्रमाणसे हीन द्वारोंको वर्जदे, त्रिकोणके द्वार में नारीको पीडा होती है, शकटके द्वारमें स्वामीको भय होता है ॥९७॥
सूपके समान द्वारमें धनका नाश होता है, धनुषाकारमें कलह कहा है मुरजमें धनका नाश होता है वर्तुल ( गोल ) द्वारमें कन्याओंका जन्म होता है ॥९८॥
जो द्वार मध्यभागसे हीन होता है वह नानाशोकरुप फ़लोंको देता है, स्तंभके अग्रभागपर काष्ठ रक्खे पाषणका धारण कदाचित न करे ॥९९॥
राजाके मन्दिर और देवताके घरमें पाषाणोंकेही द्वार और शाखाओंको बनवावे. राजाओंके घरमें द्वारशाखाभी पाषाणोंसेही बनीहुई होती है ॥१००॥