अध्याय दसवाँ - श्लोक ६१ से ८०

देवताओंके शिल्पी विश्वकर्माने, देवगणोंके निवासके लिए जो वास्तुशास्त्र रचा, ये वही ’ विश्वकर्मप्रकाश ’ वास्तुशास्त्र है ।


शिंशपावृक्षसे उत्पन्न हुई शय्या महान समृध्दिको करती है पद्मकका जो पर्यंक ( पलंग ) है वह दीर्घ अवस्था लक्ष्मी पुत्र अनेक प्रकारका धन और शत्रुओंका नाश इन सबको करता है ॥६१॥ शाल कल्याणका दाता कहा है. शाक और सूर्यके वृक्षसे केवल चन्दनसे निर्मित पर्यड्क: जो रत्नोंसे जटित हो और जिसका मध्यभाग सुवर्णसे गुप्त हो अर्थात सुवर्णसे मढा हो उस पर्यंककी देवता भी पूजा करते हैं॥६२॥

इसके ही समान शिंशपा और तिन्दुककी कही है. शुभासन देवदारु और श्रीपर्णी ये पूर्वोक्तकेही समान होते है. शाक और शाल शुभदायी होते हैं ॥६३॥

तिसी प्रकार कदम्ब और हरिद्रक ( हलद ) ये भी पृथक २ श्रेष्ठ होते हैं. सब काष्ठोंसे रचित पर्यंक शुभ नहीं कहा है. आम्रकी शय्या प्राणोंको हरती है और असन दोषोंको देता है ॥६४॥

अन्यकाष्ठसे सहित असन वृक्ष धनके संक्षयको करता है आम्र, उदुंबर ( गूलर ) वृक्ष, चन्दन और स्पंदन शुभ होते हैं. फ़लवाले वृक्षोंके जो पर्यंक और आसन हैं वे विशेषकर फ़लके दाता होते हैं ॥६५॥

हाथीके दांत सब योगोंमें शुभ फ़लके दाता कहे हैं और उत्तम चन्दनसे इनका अलंकार करवावे और हाथीके दांतका जो मूल उसकी जो परिधि उतना विस्तार मुटाईका करे ॥६६॥

शय्याके जो फ़लक ( पट्टी ) के मूलमें और आसन कोणमें चिन्ह होना चाहिये जो किरिचर ( पीठकाआदि ) हैं उनमें भी किंचित चिन्ह श्रेष्ठ होता है ॥६७॥

श्रीवृक्ष और वर्ध्दमान वृक्ष इनको ध्वजा छत्र चामर बनवावे. यदि उनमें छिद्र दृष्ट आवे तो आरोग्य विजय और धनकी वृध्दिको देता है ॥६८॥

यदि प्रहरण ( शस्त्र ) के समान चिन्ह हो तो जय जानना. नंद्यावर्त ( गोल ) होय तो स्वामीको पृथ्वीका लाभ होता है, लोष्ठके समान हो तो पहिले मिलेहुए देशकी प्राप्ति होती है ॥६९॥

स्त्रीका रुप दीखे तो अर्थका नाश होता है. भांगरा दीखनेसे पुत्रका लाभ होता है, कुंभके दीखने पर निधिकी प्राप्ति होती है और दंडकमें यात्राका विघ्न होता है ॥७०॥

कृकलास ( करकेटा ) और भुजंगके समान वा वानर दीखे तो दुर्भिक्ष होता है, गीध उलूक श्येन काकके समान महान मकर होय ॥७१॥

पाश बाधकका बन्ध होय तो मृत्यु और जनोंसे विपत्ति होती है रुधिरका स्त्राव कृष्ण शव ( मुर्द्दा ) ये दीखे तो दुर्गंधवान होता है ॥७२॥

शुक्ल समान सुगन्ध चिकने छेद होय तो शुभ होता है अशुभ और शुभ जो छेद हैं वे शय्यामें शुभदाई होते हैं ॥७३॥

ईशान दिशा आदिमें प्रदक्षिणक्रमसे छेद होय तो श्रेष्ठ होता है. वामक्रमसे तीन दिशाओंमें हो तो भूतका भय होता है ॥७४॥

एकवारकेही विशरण ( छेदन ) में विकलता पादमें हो जाय तो शुभ होता है. दो विशरणोंसे पवनका तरना नहीं होता है तीन चार विशरण क्लेश और बन्धके दाता होते हैं ॥७५॥

छिद्र वा विवर्न दीखे वा ग्रन्थि वा शर पादमें दीखे तो व्याधि होती है. कुंभ वा पादमें ग्रंथि हो तो मुखरोगको देती है ॥७६॥

कुंभके प्रथमभाग जंघामें छिद्र हो तो रोग होता है. उसके नीचे वा पादके नीचे छिद्र हो तो परम रोग होता है ॥७७॥

खुरके स्थानमें ग्रंथि हो तो खुरोंमे पीडा होती है यदि राशि ( ग्रंथि ) शिरके तीन २ भागमें स्थित होय तो शुभदायी नहीं होती ॥७८॥

निष्कुट कोलाख्य घृष्टिनेत्र वंत्सक कोलक और बन्धुक इतने प्रकारसे छिद्र संक्षेपसे होते हैं ॥७९॥

घटके समान जो छिद्र हो उसे संकट और निष्कुट कहते हैं. छिद्र अपवित्र और नील हो उसको बुध्दिमान मनुष्य कोलाख्य कहते हैं ॥८०॥

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Last Updated : January 20, 2012

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