नारायणीयम् यह भक्त श्रीभट्टनारायणतिरिकी रचना है । श्री नारायणके दूसरे रूप भगवान् श्रीकृष्णकी इसमे स्तुति की गयी है । यह काव्य स्तोत्ररत्न है ही तथा काव्यगुण भी इसमे होनेसे इसे काव्यरत्न भी कहा जाता है । श्रीमद्भागवतकी तरह ही इसका पारायण किया करते है और अभीष्टलाभ करते है ।
ग्रंथकारका जन्म निलानदीके उत्तरतटपर स्थित तिरूनावा नामक क्षेत्रके समीपवर्ती पेरूमनं ग्रामके मेपुत्तूर मठमें मातृदत्त नामक ब्राह्मणके यहाँ हुआ था । इन्होनें अच्युत पिषरोटी नामके विद्वानसे व्याकरणादि शास्त्रोंका अध्ययन किया था । कहते है , एक बार ये वायुरोगसे पिडीत हो गये । उस समय इन्होंने प्रतिदीन इस स्तोत्ररत्नके एक -एक दशककी रचना करके सुप्रसिद्ध गुरूवायूर मन्दिरमे प्रतिष्ठित भगवान् श्रीकृष्णको निवेदित किया और ग्रंथ पूरा होते -होते ये पूर्ण स्वस्थ हो गये ।
इनके कवित्व , विद्वत्ता , सच्चरित्रता एवं स्तोत्ररचनासे प्रभावित होकर अम्बलपपुरनरेश राजा देवनारायणने इनका विशेष सन्मान किया और इन्हें अपना सभापण्डित बनाया । इन्ही महाराज देवनारायणकी प्रेरणासे इन्होंने ‘ प्रक्रियासर्वस्व ’ नामका प्रसिद्ध व्याकरणग्रंथ लिखा है । ‘ नारायणीयम् ’ ग्रंथके अतिरीक्त इन्होंने अन्य सतरा ग्रंथोंका निर्माण किया , जिनके नाम इस प्रकार है - मानमेयोदय , प्रक्रियासर्वस्व , धातुकाव्य , अष्टचम्पूकाव्य , कैलाशशैल्यवर्णना , कौन्तेयाष्टक , अहल्या -शापमोक्ष , पुष्पोद्भेद , शूर्पणखाप्रलाप , रामकथा , दूतवाक्यप्रबन्ध , नालायनीचरित , नृगमोक्षप्रबन्ध , राजसूयप्रबन्ध , सुभद्राहरणप्रबन्ध , स्वाहासुधाकर और कोटियविरह ।
इनका जीवन -काल ईस्वी सनकी सोलहवीं शताब्दीका उत्तरार्ध माना जाता है ।