देव ! इस प्रकार आप पहले चौदह भुवनोंके रूपमें प्रकट हुए । तदनन्तर उस जगतके् ऊपर सत्यलोकमें स्वयं ही विधातारूपसे आविर्भूत हुए , जिन्हें शास्त्रज्ञलोग सम्पूर्ण त्रिलोकीके जीवस्वरूप हिरण्यगर्भ नामसे अभिहित करते हैं तथा जो प्रवृद्ध रजोगुणके विकारसे बढी हुई नाना भूतोंकी सिसृक्षा (सृष्टि -रचनाकी इच्छा )-में रस लेने लगे ॥१॥
जगदीश्र्वर ! वही ब्रह्मा जब चराचर जीवोंकी विविध सृष्टिरचनामें दत्तचित्त होकर तद्विषयक ज्ञानकी खोज करने लगे , परंतु उन्हें विश्र्व -सृष्टिविषयक ज्ञानका आभास नहीं प्राप्त हुआ , तब वे चिन्ताकुल होकर चुपचाप बैठ गये ! उस समय आपने इन्हें तपस्याके लिये प्रेरित करते हुए ‘तप तप ’ यों श्रोत्रको आनन्द देनेवाली आकाशवाणी सुनायी ॥२॥
उसे सुनकर ब्रह्मा यों विचार करने लगे की ‘इस समय सारा जगन्मण्डल जलसे आप्लावित है । ऐसी दशामें जिसने मुझसे ऐसी वाणी कही है , वह पुरुष कौन है ?’
यों विचारकर वे सिर उठाकर चारों दिशाओंमें देखनें लगे , परंतु उन्हें जलके अतिरिक्त और कुछ दिखायी न दिया । तब वाक्यार्थपर विचार करके उन्होनें एक सहस्र दिव्य वर्षतक तपस्या की ! इस प्रकार ब्रह्माद्वारा आराधित होनेपर आपने अपने निवास्थान वैकुण्ठका , जो सर्वप्रधान वं अद्भुत है , उन्हें दर्शन कराया ॥३॥
वह वैकुण्ठलोक चौदहों भुवनोंसे बाहर सुशोभित तथा परमज्योतिप्रकाशस्वरूप है , वहॉं माया कभी भी किसी प्रकारका विकार उत्पन्न नही कर पाती । इसी कारण शोक , क्रोध , मोह तथा मरण -भय आदि भाव वहॉंसे दूर हो गये हैं । एवं घनीभूत आनन्दका प्रवाह वहॉं सदा बहता रहता है । विभो ! ब्रह्माको दिखाया गया आपका वह वैकुण्ठ नामक धाम सर्वोत्कृष्टरूपसे वर्तमान है ॥४॥
जिन्होंनें भक्तिद्वारा वैसा उन्नत पद प्राप्त किया है , जिनके चार भुजाएँ है , इन्द्रनीलमणिके सदृश जिनके शरीरको निर्मल श्यामल कान्ति है , जिनके अनेकविध आभूषणोंमें जड़े हुए रत्नोंकी प्रभासे दिशाएँ उद्भासित होती रहती हैं , शोभायमान विमान जिनके गृह हैं , ऐसे दिव्य जन जिस लोकमें प्रकाशित हो रहे है , समस्त पापोंसे रहित आपके उस वैकुण्ठरूप धामकी जय हो ॥५॥
अनेकविध दिव्याङ्गनाएँ जिन्हें घेरे रहती है , जो अपनी विद्युल्लतासदृश एवं विश्र्वको उन्मत्त कर देनेवाली कमनीय गात्रलतासे दिगन्तरालको प्रदीप्त करनेवाली हैं , ऐसी लक्ष्मी स्वयं जीस वैकुण्ठलोकमें एकमात्र आपके चरणकमलोंकी सुगन्धकी लालसा मनमें लिये निवास करती देखी जाती हैं तथा जो आश्र्चर्यजनक दिव्य वैभवसे सम्पन्न हैं , अपना वही परमपद मुझे भी प्राप्त कराईये ॥६॥
विभो ! इस प्रकार आपने जिसका दर्शन कराया , आपके उस निज परमधाम (वैकुण्ठ )- में ब्रह्माजीने उस समय आपका वह दिव्य रूप देखा , जो रत्ननिर्मित सिंहासनपर आसीन था , करोड़ों चमकीले एवं शोभासम्पन्न किरीट -कङ्कण आदि आभूषणोंसे जिसका अङ्ग -अङ्ग उद्दीप्त हो रहा था , जो श्रीवत्सके चिह्नसे सुशोभित था , धारण किये हुए कौस्तुभमणिकी कान्तिसे जिसकी आभा अरुण दिख रही थी तथा जो सबका कारण है । भगवन् । आपका वही रूप मेरे समक्ष भी प्रकाशित हो ॥७॥
वह काले मेघकी नीलिमा तथा मटरके फूलोंकी -सी कोमल कमयीन श्याम कान्तिके मण्डलसे सम्पूर्ण दिङ्मण्डलको व्याप्त कर रहा था । उदार मन्द हास्यकी झड़ीसे मुखारविन्दपर प्रसन्नता खेल रही थी तथा सुन्दर खङ्ख , गदा , चक्र और कमल धारण करनेसे भुजाएँ अत्यन्त शोभासम्पन्न दिखायी देती थीं । प्रभो ! आपका वह श्रीविग्रह , जिसने ब्रह्माजीको निहाल कर दिया था , मेरे रोगका विनाश करे ॥८॥
तदनन्तर कमलयोनि ब्रह्मा आपके उस रूपको देखकर किंकर्तव्याविमूढ हो गये । पुनः हर्षावेशके अधीन हो वे आपके पादपद्मोंमें दण्डकी भॉंति गिर पडे । फिर प्रसन्नतापूर्वक कृतार्थताका अनुभव करते हुए बोले ——
‘ विभो ! आप मेरे मनोरथको तो जानते ही हैं , आपके द्वैताद्वैतस्वरूपका बोध करानेवाला जो ज्ञान है , वह मुझे प्रदान कीजिये !’ भगवन् ! इस प्रकार ब्रह्माजीके सम्मुख प्रकट हुए आपका मे। भजन कर रहा हूँ ॥९॥
भगवन ! आपके अरुणाभ चरणोंमे दण्डवत् पड़े हुए ब्रह्माको उठाकर उनके हाथको हाथमें लेकर आपने उनसे कहा —— ‘तुम्हारा ईप्सित ज्ञान तुम्हे प्राप्त हो जायगा और सृष्टि करनेसे तुम्हें कर्मजनित बन्धन भी नहीं प्राप्त होगा !’ यों कहकर आपने उन्हें भलीभॉंति संतुष्ट किया और स्वयं अन्तरात्मारूपसे उनके हृदयमें प्रविष्ट होकर उन्हें सृष्टिरचना के सम्यक् प्रकारसे प्रेरणा प्रदान की ! वही आप मेरे लिये अरोग्यका सम्पादन कीजिये ॥१०॥