वैसे तो कोई भी व्यक्ति ( साधक ) अपनी समस्याओं के समाधान हेतु तंत्रमंत्र , जप - तप जैसे आध्यात्मिक प्रयास कर सकता है और इस संदर्भ में अपने लिए यथा सामर्थ्य योग्य गुरु की खोज करने का अधिकारी भी है , किन्तु सफलता के लिए स्वयं उसमें भी कुछ गुणों का होना आवश्यक है ।
जैसे कोई द्रव पदार्थ ( तरल वस्तु ) रखने के लिए गहरे पात्र की आवश्यकता होती है ; उसे तश्तरी या प्लेट में नहीं रखा जा सकता , उसी प्रकार सामान्यजीवनचर्या की अपेक्षा आध्यात्मिकचर्या ( साधना ) के लिए व्यक्ति में कुछ विशिष्ट गुणों का होना अनिवार्य माना गया है । ये गुण शास्त्रों में इस प्रकार बतलाए गए हैं -
साधक को शीलवान , गुणज्ञ , निश्छल , श्रद्धालु , धैर्यवान् , स्वस्थ , कार्यसक्षम , सच्चरित्र , इंद्रिय - संयमी और कुल - प्रतिष्ठा का पोषक होना चाहिए ।
यदि विचार करके देखें तो स्पष्ट है कि उपरोक्त लक्षणों से रहित व्यक्ति साधना कर ही नहीं सकता । शारीरिक और मानसिक रुप से स्वस्थ , समर्थ और संयमशील होना - किसी भी साधना में सफलता - प्राप्ति के लिए सबसे पहली शर्त है । ऐसे ही व्यक्ति साधना के अधिकारी होते हैं और उन्हें दीक्षा देने वाले गुरु का श्रम भी सार्थक होता है ।
अधिकांश गुरु जो ऊपर वर्णित श्रेष्ठ गुरुओं की श्रेणी में आते हैं , किसी को दीक्षा देने से पूर्व उसके संबंध में इन गुणों की , उसकी पात्रता की परख कर लेते हैं । चूंकि वे वीतराग और निर्लोभी होते हैं , अतः शिष्य का चुनाव करते समय उसकी आध्यात्मिक - पात्रता को परखते हैं , उसकी भौतिक संपत्ति से उन्हें कोई सरोकार नहीं होता । इसके विपरीत आज के बड़े - बड़े मठाधीस और विज्ञप्त गुरु व्यक्ति की पात्रता को न देखकर उसकी संपत्ति , प्रभाव , राजनीतिक पहुंच , पद और अधिकारों को वरीयता देते हैं ।