विमर्श --- रविवार से लेकर रविवार पुनः सोमवार कुल ९ वार ये ही २७ नक्षत्रों के क्रमशः देवता है ।९ संख्या सूचित करने के लिए रवि का २ वारा फला तथा सोमवार क दो वार फल कहा गया है ।
पुर्वा में प्रथम दला पर भरणी , कृत्तिका , रोहिण , मृगशिरा , आर्द्रा , पुनर्वसु पुष्य पर्यन्त सात नक्षत्रों का फल है जो १४ ३ - १० तक कह आये हैं । इसके बाद प्रासङ्गानुसार राशि - देवता का वर्णान है । अत्र पुनश्च सत्ताईसा नक्षत्रों के वार देवता का वर्णन है । रविवार से आरम्भ करा पुनः रविवार एवं पुनः सोमवार पर्यन्त नव वार होते हैं जो क्रमेण सत्ताईस नक्षत्रों के देवता है । उनका फल भी १४ . २० - २९ पर्यन्त श्लोक में कहा गया है ।
अब आश्लेषा से लेकर चित्रा पर्यन्त द्वितीय सकात्मका दला का फल पुनः आरम्भ करते हैं --- अबा द्वितीयदल का माहात्म्य जो नक्षत्र मण्डल से आवृत है उन उन नक्षत्रों का फल कहती हूँ जिससे प्रश्न के अर्थ का निर्णय किया जाता है ॥३०॥
( ८ ) आश्लेषा अनेक प्रकार के दुःख के दावानल से परिपूर्ण है । यह नक्षत्र व्यामोह की शोभा से आवृत है । नाना भृङ्गो ( याचकों या चाटुकारों ) से निषेवित है । प्रत्येक पगा में धनवानों के संपत्ति की हानि करता है । राजा उसका त्याग कर देते हैं और दुष्ट लोग उसे घेर कर संतप्त करते हैं ॥३१॥
( ९ ) हे महेशी। मघा नक्षत्र में मङ्गल धन का नाशा करता है । उसके आनन्द की अभिवृद्धि में शत्रु का भय सताता है । वह पृथ्वी का क्षोभ मिटाने वाले का आश्रय लेता है फिरा भी मारा जाता है । बुरे एवं कामातुरों का वह साथ पकड़ता है ॥३२॥
( १० ) पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र में प्रश्न होने पर फल को दूरगामी बताना चाहिए । प्रश्नकर्ता के अत्यन्त धैर्यवान् होने पर भी शत्रुपक्ष से हानि उठानी पड़ती है --- यह निश्चिता है । ( ११ ) उत्तराफाल्गुनी में प्रश्नकर्ता ईश्वरी गति के अनुसार फल प्राप्त करता है । हे नाथा ! यदि वह आस्तिक है तो उसे सर्वत्र सुन्दर फल प्राप्त होता है ॥३३ - ३४॥
( १२ ) हस्त तारा शिरा परा लज्जालु होने से अपने शुभावलोकन से सौभाग्य प्रदान करता है , उसके समस्त अङ्ग रक्त वर्ण वाले है गति चञ्चल है । वह अपने स्वच्छ गुणों के आहलाद से कल्याण देने वाला नक्षात्र है । वह अपने यज्ञ करने वाले भक्त को नित्य सौ कार्षापण सोना देता है। अनेक प्रकार के व्यञ्जन भोजनों से अत्यन्त सुखकारी वह अपने भक्त को विभिन्न सञ्ज्ञा समूह प्रदान करता है ॥३५॥
( १३ ) चित्रा नक्षत्र इसी जगत् में वित्त तथा मनोरथ प्रदान करता है । ( अन्य ग्रहों से ) अलंकृत होने पर भी वहा कभी व्याकुलता प्रदान करती है। ऐसा कभी नहीं हो सकता कि उसके साधक को शरीर का दुःख प्राप्त हो । बहुत क्या , वह साधक ईश्वर की भक्ति प्राप्ता करता है ॥३६॥