आनन्दभैरवी उवाच
आनन्द भैरवी ने कहा --- हे नाथ ! अब मैं परम असाध्य के साधनभूत कामचक्र पर स्थित वर्णीं का वर्णन तथा प्रश्न के विषय में निर्णय कहती हूँ उसे सुनिए ॥१॥
आज्ञाचक्र के मध्य में करोड़ों सरस नाड़ियाँ प्रवाहित हैं , मन्त्रज्ञ साधक उसके मध्य में अत्यन्त मनोहर कामचक्र का ध्यान करे । उस कामचक्र में साधक पूर्व में कहे गए वर्णों को देखकर न्यास मन्त्र में उसका सम्पुट कर जप करे तो वह योगिराज बन जाता है । साधक अकेले किसी मन्दिर के मध्य में स्थित होकर यत्नपूर्वक मन्त्र का आश्रय लेकर उस वर्ण के कोष्ठक में अपने नाम मे अक्षरों को देखे ॥२ - ४॥
आनन्दभैरव ने कहा --- हे कान्ते ! कोष्ठ में स्थित रहने वाले उन वर्णों के फलाफल को तथा कामचक्र के फल से उत्पन्न उस रहस्य को भी कहिए ॥५॥
आनन्दभैरवी ने कहा --- यह कामच्रक काल ( राशि नक्षत्रादि ) का स्वरुप है । उसके बाद वाराणसीपुर है , वहीं पर सभी चक्रों में उत्तमोत्तम ’ सर्वपीठचक्र ’ है ॥६॥
इसी चक्र ( वाराणसीस्थ सर्वपीठचक्र ) की कृपा होने पर , हे सदाशिव ! साधकों को आपके चरणकमलों का दर्शन होता है , वह बहुत से साधकों को भी प्राप्त करता है , किं बहुना , साधक सब कुछ सत्य जान लेता है । मन्त्र द्वारा अपनी कामना की फलसिद्धि के लिए मन्त्र के अर्थ आदि का विचार करना चाहिए । अतः कोष्ठ में वृद्ध तथा अस्तमित भावों को छोड़्कर उत्तम मन्त्र का ग्रहण करना चाहिए ॥७ - ८॥
हे नाथ ! अब वर्णफलों को तथा असाध्य प्रश्नों के निर्णय को सुनिए । हे प्रभो ! सर्वप्रथम राशिभेद से उन वर्णों का फल कहती हूँ उसे सुनिए ॥९॥
बाल्य , कैशोर तथा युवाभाव में आश्रित वर्ण मन्त्रों को साधकोत्तम ग्रहण करे । किन्तु वृद्धभाव को तथा अस्तमित भाव को प्राप्त मन्त्राक्षरों का त्याग कर देवे । राशि के भेद से बाल्य , कैशोर और युवा वर्ण वाले अक्षरों को ग्रहण करे और अपने बाल्यादिवर्ग भेद का विचार करते समय बायें से गणना करे । मन्त्रों के प्रश्न कर्म में दक्षिण से गणना करनी चाहिए । हे नाथ ! विद्वान पुरुष को यह गणना मध्यकोण को अवधि बनाकर करनी चाहिए । प्रश्ना कर्म में ऊदर्ध्वस्थ की दक्षिण के योग के द्वारा गणना करनी चाहिए । किन्तु मन्त्र आदि के विचार में बायें के योग से गणना करनी चाहिए ॥१० - १३॥
अब हे परमानन्द सिन्धु मधुव्रत ! वर्ग कु आदि अर्थात् क वर्ग ( क ख ) आदि के अत्यन्त सुन्दर फलों को मैं कहती हूँ उसे सुनिए ॥१४॥