श्रीभैरवी उवाच
श्री आनन्दभैरवी ने कहा --- हे महाभैरव अब इसके अनन्तर मैं सर्वश्रेष्ठ ब्रह्ममार्ग का वर्णन करुँगी । जिसके ज्ञान करने मात्र से सभी देवताओं ने उत्कृष्ट विजय प्राप्त की ॥१॥
भक्तों में तेजः प्रकाश के लिए , महान् लोगों में धर्म की वृद्धि के लिए और योगियों में योग के लिए , हे देव ! प्रस्थ मात्रा में भक्ष का निरुपण किया गया है ॥२॥
जो योगाभ्यास करता है , किन्तु भक्षण की प्रक्रिया नहीं जानता वह करोड़ों वर्षों में भी योगी नहीं बन सकता यह निश्चित है। इसलिए भक्ष का माहात्म्य मैं संक्षेप में कहती हूँ , जिसके जान लेने पर साधक सिद्धि प्राप्त कर लेता है तथा स्वाधिष्ठान नामक चक्र के भेदन को भी जान लेता है । हे परमेश्वर ! इस भूतल पर सर्वप्रथम जो ज्ञानी बनना चाहता है , उसे घर पर अथवा अरण्य प्रदेश में भक्ष के नियम का आचरण करना चाहिए ॥३ - ५॥
वायु , आसन , दृढा़नन्द तथा परमानन्द में निर्भर साधक पूरक प्राणायाम के आहलाद प्राप्ति हेतु सदैव प्रमित ( संतुलित ) आहार करना चाहिए । भक्षणादि नियम का पालन करने से पूरक प्राणायाम की सिद्धि होती है । उदर को कुम्भक प्राणायाम के द्वारा बारम्बार परिपूर्ण करते रहना चाहिए ॥६ - ७॥
अपने हाथ का जितना प्रमाण हो उतने ही ग्रासों से उदर को पूर्ण करे । हे नाथ ! जितनी अञ्जलि पूर्ण करे उसे विश्वामित्रकपाल ( तावा ) में स्थापित करे । १२ बार हंस मन्त्र का जप करते हुये उस कपाल की शिला पर घर्षण करे । तदनन्तर उस पूर्ण पात्र को एक बार पका (?) कर भक्षण करे । शालिधान्य का तन्दुल ( चावल ) कपाल में एक प्रस्थ परिमाण में स्थापित कर प्रतिदिन उसका भक्षण करे और प्रतिदिन भक्षण कर उसे खाली कर दे ॥८ - १०॥
नियमपूर्वक १२ बार हंस मन्त्र का जप कर कपालस्थ तण्डुल का भोजन करे । पूरकादि प्राणायाम से युक्त उस कपाल को नित्य शिला पर अभिवर्द्धित करे । जब तक भक्षण से उस कपाल का क्षय हो तब तक उदर को वायु से पूर्ण करे किन्तु काकचञ्चु के समान वायु का आकर्षण कर उसे पूर्ण न करे ॥११ - १२॥
योगी साधक भक्षण कर लेने पर सदैव मूलाधार में स्थित कुण्डली का सङ्कोचन करे और वायुप्राशन के द्वारा उसे पूर्ण करता रहे । यदि साधक भक्षण का जो नियत स्थान है उस स्थान में सुखपूर्वक वायु पूर्ण करता रहे तो ऐसा जितेन्द्रिय योगी धीरे - धीरे काल बीतने पर सिद्धि प्राप्त कर लेता है । इस प्रकार बारम्बार वायुभक्षण से भक्ष पदार्थ पच जाता है । क्योंकि बिना पूरक प्राणायाम के भक्षण किया गया पदार्थ नहीं पचता । अथवा इस प्रकार के भक्षण को त्याग कर अन्य प्रकार से भक्षण करना चाहिए । क्योंकि भक्षण के बिना नाड़ी समूह पर स्थित देवता तृप्त नहीं होते ॥१३ - १६॥
साधक बत्तीस ग्रास अन्न तीन सन्ध्याओं में जैसा भी हो उसे लेकर आधा ग्रास छोड़कर नित्य भक्षण करे । फिर वह महान् एवं भावुक साधक निडर हो कर वायु से ( उदर ) पूर्ण करता रहे । उसकी विधि इस प्रकार है कि भक्ष स्थान में वायु को संयुक्त कर दिन रात वायु पान करता रहे ॥१७ - १८॥
इस प्रकार चौसठ दिन लगातार करते हुए सुभी साधक सब का परित्याग कर स्थिर चित्त तथा जितेन्द्रिय हो दूध का भक्षण कर । अब दूध का प्रमाण कहती हूँ । दूध की मात्र हाथ के द्वारा ३ , ३ प्रस्थ होना चाहिए । इस प्रकार की प्रक्रिया से साधक पञ्च प्राणों को मत्त गजेन्द्र के सामान अपने वश में करे ॥१९ - २०॥
इस प्रकार की पूरक की प्रक्रिया में छः मास में सिद्धि हो जाती है यही ( प्राण्यायाम की पूर्णता का ) लक्षण है । ऐसा करने वाले कामरुप यतियों को क्रमशः योगमार्ग के प्राणायामादि अष्टाङ्ग योग सिद्ध हो जाते हैं । बद्ध पद्मासन कर विजया के आनन्द में मस्त साधक मूलाधार में वायू धारण करे और वहीं अपने मन का भी लय करे ॥२१ - २२॥