आसन निरुपण --- हे महाभैरव ! अब मेरी सिद्धि चाहने वाले साधकों के लिए आसन के प्रभेदों को सुनिए जिन आसनों को बिना किए पूरक प्राणायाम करने वाले पृथ्वी पर सिद्धि के अधिकारी नहीं बनते । सर्वप्रथम मुण्डासन कहती हूँ जिससे सारे प्राणियों को सुख प्राप्त होता है । अपने पैर को ऊपर की ओर खडा़ करे , फिर नीचे मुख करके वायु का पान करे ॥२३ - २४॥
पैर को ऊपर खडा़ करने वाला मुण्डासना का आचरण सभी आसनों में श्रेष्ठ है , क्योंकि वायवी कला उसी समय साधक को महती सिद्धि प्रदान करती है । प्राणवायु की सिद्धि के लिए पद्मासन उत्तम आसन है , इस आसन पर स्थित होकर पूरक प्राणायाम करते हुए ध्यान करे । इसे इस प्रकार करे ॥२५ - २६॥
दाहिने ऊरु के मूल में वामपाद , फिर दाहिन पैर बायें पैर के ऊरुमूल में स्थापित करे , तब उसी को पद्मासन कह्ते हैं । यह आसन प्रथम सव्यपाद को दाहिने पैर के ऊरुमूल में , तदनन्तर दाहिने पैर को बायें पैर के ऊरु पर रख कर करे अर्थात् एक पैर से आसन के बाद दूसरा पैर बदल कर आसन करे ॥२७ - २८॥
पीछे की ओर दोनों हाथ कर शरीर को सिकोड़ कर बायें हाथ से दाहिने पैर का अंगूठा और दाहिने हाथ से बायें पैर का अंगूठा पकड़कर ( पद्य की तरह ) बद्धासन हो जावे । इस प्रकार बद्धपद्मासन कर वायु से बँधे चिबुक को सुखदायक प्रकाश वाले सूर्य में प्रयत्नपूर्वक स्थापित करे ॥२९ - ३०॥
यह आसन समस्त प्राणियों की सिद्धि में हेतु है , इसलिए वायु को वश में करने के लिए योगी को अवश्य करना चाहिए इसमें संशय न करे ॥३१॥
सभी को स्वभावतः सिद्धि प्रदान करने वाला स्वस्तिकासन है । बायें पैर के तलवे पर दाहिना पैर अथवा दाहिने पैर के तलवे पर बायाँ पर रखे इस प्रकार सव्यापसव्या के योग से दोनों आसन करे । सर्वत्र इस प्रकार का आसन कर नाड़ियों का संचालन करे ॥३२ - ३३॥
अब , हे महाभैरव ! तीस आसनों को सुनिए , ये सव्यापसव्य के योग से दूनी संख्य में हो जाते हैं । वायु साधन के लिए चौंसठ आसनों को मैं कहती हूँ , जिसमें से वायु की वृद्धि के लिए एवं बिन्दु का भेद करने के लिए बत्तीस आसन अवश्य करे ॥३४ - ३५॥
कार्मुकासन --- धनुष के समान शरीर को बढा़कर सुख से उदर में वायु को पूर्ण करे तो इस सूक्ष्म वायु के प्रभाव से समय आने पर वायु स्वयं वश में हो जाता है । मन्त्रज्ञ साधक पद्मासन कर दाहिने हाथ से पृष्ठभाग में घुमाकर बायें पैर की अंगुली को पकड़े । इसी प्रकार बायें हाथ से पृष्ठभाग में घुमाकर दाहिने पैर की अंगुली को पकडे़ तो सव्यापसव्य योग से यहा आसन दुगुना हो जाता है , इसी प्रकार कार्मुकासन भी सव्यापसव्य से दुगुना हो जाता है , कार्मुकासन के द्वारा सीधे बाण की तरह वायु को भीतर ले जावे ॥३६ - ३८॥
अब नाड़ियों को निर्मल करने के लिए मैं कुक्कुटासन की विधि कहती हूँ । मेरे सम्प्रदाय के आगम के अनुसार कुक्कुटासन से वायु सेवन करे । साधक अपने इन्द्रियों को वश में कर , दोनों हाथों को भूमि पर स्थापित कर , फिर दोनों पैरों को दोनों हाथ के केहुनी में घुमा कर दोनों हाथों को उससे आबद्ध करे । सव्यापसव्य योग से यह आसन भी दो की संख्या में हो जाता है । इसे ब्रह्मदेव ने किया है । शिर के नीचे वाले भाग को अपने हाथ मे बाँध कर जो किया जाता है वह खगासन है । खगासन की कृपा से निश्चय ही थकावट शीघ्रता से दूर हो जाती है । यह पुनः पुनः श्रम करने से तथा विषयों से होने वाले श्रम को विनष्ट करता है ॥३९ - ४२॥
वायु की चञ्चलता को दूर करने के लिए सर्वदा लोलासन का अभ्यास करना चाहिए क्योंकि वायु के स्थिर होने से ही शीघ्रता से चित्त स्थिर हो जाता है । दोनों पैरों के छिद्र के भीतर पद्मासन को समान रुप से करके हाथों को शरीर के मध्य भाग में नियुक्त करे तो कुक्कुटाकृति आसन होता है ॥४३ - ४४॥
दोनों हाथ के द्वन्द्व ( जोड़े ) को नीचे कर हाथ के बल शरीर को ऊपर उठाकर पद्मासन पर वायु के सामन ऊपर उठ जावे । फिर इस आसन पर स्थित हो कर अपने शिर को नीचा करले तो वह उत्तमाङासन हो जाता है , जो योगियों के लिए अत्यन्त दुर्लभ है ॥४५ - ४६॥
इस आसन के करने मात्र से शरीर शीतल हो जाता है । बारम्बार इस आसन को करने से कुण्डलिनि चेतनता को प्राप्त करती है । सव्यापसव्य योग से जो बारम्बार उत्तमाङ्गसन करता है और मूलाधार पद्म में सूक्ष्म वायु भर कर फिर कुम्भक करता है । इस प्रकार कुम्भक प्राणायाम करने से सूक्ष्मवायु को चन्द्र नाड़ी में लय कर उसे मूलाधार से लय करने वाले ब्रह्मरन्ध में स्थापित करना चाहिए । इस शुभासन को करने के बाद जिस प्रकार सूई के छिद्र को सूत डालकर पूर्ण किया जाता है , उसी प्रकार सूक्ष्म वायु से सूक्ष्म रन्ध्र को पूर्ण करे तब मन का लय हो जाता है ॥४७ - ५०॥
इसी क्रम से ६ महीने तक योग के आठों अङ्गों को करता हुआ साधक पूरक द्वारा सूक्ष्म रन्ध्र पूर्ण करे तो महान् सुख प्राप्त करता है । हे महादेव ! अब मैं मङ्गलकारी पर्वतासन कह्ती हूँ जिसके करने से साधक स्थिर स्वरुप हो जाता है । षट्चक्रादि का भेदन ही पर्वतासन है ॥५१ - ५२॥
पर्वत आसन के साथ योन्यासन का संयोग करने से योग के फलस्वरुप अनिल तब तक फल प्रदान करता है जब तक वह खेचर हो जाता है । जो पृथ्वी पर अपने लिङ्गो के अग्रभाग को एक पैर के अंगूठे से दबाकर रखता है तथा दूसरे पैर को दूसरे पैर के ऊरु पर स्थापित करता है , तो वह योन्यासन हो जाता है ॥५३ - ५४॥
हे महादेव ! अब उसके मध्य में बद्धयोन्यासन सुनिए , जिसके करने से साधक खेचरता प्राप्त कर ईश्वर के समान सर्वत्र विचरण करता है । उक्त विधि से लिङ्ग गुह्मादि स्थान को बाँधकर योन्यासन कर मुख को दोनों कनिष्ठा से , नासिका को दोनों अनामिका से , दोनों नेत्रों को दोनों मध्यमा से और दोनों कानों को दोनों तर्जनी से आच्छादित करे । यह बद्ध योन्यासन है ॥५५ - ५७॥
हे नाथ ! योगियों को अत्यन्त दुर्लभ बद्ध योन्यासन कर जो शरीर में वायु को पूर्ण करता है तथा मूलाधार का सङ्कोच कर उसे स्तम्भित करता है । इस प्रकार बायें से दाहिने तथा दाहिने से बायें के क्रम से जो पूरक तथा स्तम्भन प्राणायाम करता है तो वह साधक सिद्ध हो जाता है ॥५८ - ५९॥
हे सदाशिव ! अरुणोदय काल से आठ दण्ड पर्यन्त धीरे - धीरे पूरक द्वारा वायु पूर्ण कर कुम्भक करे । बायें से दाहिने तथा दाहिने से बायें दोनों प्रकार से सव्यापसव्य योग से नासिका से वायु ग्रहण करे ॥५९ - ६०॥
इसके बाद द्वितीय प्रहर प्राप्त होने पर मन को रमण करने वाली वायु की पूजा करनी चाहिए । यह पूजा भी किसी आसन विशेष को करते हुए करनी चाहिए । अब इसके बाद अन्य आसन कहाती हूँ , जिसके करने से साधक अमर हो जाता है । मेरा साधक पवित्र एवं शोभा सम्पन्न हो कर किसी निर्दोष स्थान में जाकर इन आसनों को करे ॥६१ - ६२॥
साधक अपने दोनों पैरों को आमने - सामने वक्षः स्थल पर स्थापित करे । तदनन्तर दोनों हाथों को पैर के ऊपर से ले जाकर अपने कन्धे पर रखे । इस प्रकार के भेकासन पर बैठकर सुख प्राप्ति के हेतु प्रकाशमान चित्पद का ध्यान करे । सभी अङ्गो को समान समान भाग में ऊपर आकाश में स्थापित करे तो खेचरासन हो जाता है ॥६३ - ६४॥
सम्पूर्ण सिद्धियों को देने वाला भेकासन हम पहले कह आए हैं । इस आसर पर बैठकर जो महाविद्या के मन्त्र का जप करता है वह अवश्य ही महाविद्या को प्राप्त कर लेता है । अब इस ( भेकासन ) के भेद को कहती हूँ जो इसे करता है वह अमर हो जाता है । एक पैर को ऊरु पर और दूसरा पैर कन्धे पर रखे तो उसे प्राणासन कहते हैं । यह सभी प्रकार की सिद्धियों को देने वाला है । वस्तुतः वायु को मूलाधार में स्थापित कर ध्यान करते हुए उसे संकुचित कर प्राणासन करना चाहिए ॥६५ - ६७॥
केवल एक पैर यन्त पूर्वक कन्धे पर स्थापित करे और दूसरा पैर ऊपर आकाश में डण्डे की तरह तान कर स्थित रहे , तो हे प्रभो ! यह अपान नामक आसन हो जाता है । यदि वायु के द्वारा सूक्ष्म शीर्षपदम में पूरक प्राणायाम करते हुए इसे करे तो साधक मनुष्य सिद्ध हो जाता है । इसमें प्राण और अपान दोनों परस्पर एक हो जाते हैं । अपान आसन करने से साधक पृथ्वी में योगेश्वर बन जाता है ॥६८ - ७०॥
अब सिद्धमन्त्र का कारणभूता समानासन (= वीरासन ) कहती हूँ । एक पैर ऊरु पर रखे दुसरा पैर गुह्म तथा लिङ्ग के मुख भाग पर रखे तो इसे वीरासन और समानासन दोनों कहा जाता है । इस आसन को करते हुए मूलाधार में स्थित चतुर्दल पर वायु धारण कर मन्त्र का जप करे ॥७१ - ७२॥
अथवा मन्त्रज्ञ साधक आत्मा रुप चन्द्रमा से निकले हुए अमृत रस से परिपूर्ण योगिनी स्वरुपा करोङ्गो विद्युल्लता के समान कुण्डलिनी का ध्यान करे । यही वीरासन वीरों को योगवायु धारण करने के लिए है , जो महावीर इसा आसन को जानता है वह निश्चित रुप से योगी हो जाता है ॥७३ - ७४॥
हे महाकाल ! अब समानासन के साधन को कह्ती हूँ , जिसके भेदों को क्रमशः जान कर साध वीरेश्वर बन जाता है । समानासन कर एक हाथ से अंगूठा बाँध रखे । ऐसा करने से साधक स्वरयोगादि के साधन में अधिकारी बन जाता है ॥७५ - ७६॥
जो आसन करना जानता है , वायु का हरण करना जानता है तथा कालादि का निर्णय करना जानता है , वह कभी नष्ट नहीं होता । काल प्राप्त करने पर सिद्धि होती है । काल का स्वरुप उज्ज्चल ( प्रकाश करने वाला ) है । इसलिए साधक योगियों को सिद्ध वीरासन से उसका ध्यान करना चाहिए ॥७७ - ७८॥
अब हे नीलकण्ठ ! परम कल्याणकारी ग्रन्थि भेद नामक आसन कहती हूँ । जिसके द्वारा सूक्ष्म वायु ग्रहण कर साधक शीघ्रता से रुद्र बन जाता है । मन्त्रज्ञ साधक पद्मासन कर दोनों जंघा और हृदय में दोनों को कूर्पर ( केहुनी ) पर्यन्त उसमें डालकर कन्धे पर धारण करे ॥७९ - ८०॥
मन्त्रवेत्ता साधक पदमासन के भीतर हाथ डालकर ५०० बार सिर को नीचे की ओर झुका कर नम्र करे । यह ग्रन्थिभेद नामक आसन है । ऐसा करने से आकाश में रहने वाले समस्त खेचर दिखाई पड़ते हैं अतः साधक इससे सूक्ष्म वायु में मन का लय कर परमात्मा में ध्यान करे ॥८१ - ८२॥
इसके बाद अन्य आसन कहती हूँ यह योग में पूरक प्राणायाम के रक्षण में कारण है । पद्मासन कर दोनों पैर के अंगूठों को जङ्घा पर रक्खे । एक हाथ जङ्गघा पर रखे , डूसरा हाथ घनुष के समान टेढा़ कर कूर्पर के अध्रभाग पर और पदमासन पर रक्खे अपने पैर के अंगूठों को चलाता रहे । सव्यापसव्य के योग से इसे कार्मुकासन कहते हैं ॥८३ - ८५॥
हे नाथ ! जो इस उत्तम कार्मुकासन को करता है , उसके रोगादि समस्त शत्रु नष्ट हो जाते हैं और वह सुखी हो जाता है । अब इसके अनन्तर संक्षेप संक्षेप में सर्वश्रेष्ठ सर्वाङ्गासन कहती हूँ । जिसके करने से साधक योगशास्त्र में इस प्रकार निपुण हो जाता है जैसे विद्या में पण्डित निपुण होता है । यह आसन नीचे शिर रख कर तथा दोनों पैरों को ऊपर कर करना चाहिए । भूमि में दोनों हाथों की केहुनियों को पद्मासन की तरह स्थापित करे ॥८६ - ८८॥
बुद्धिमान् साधक को अपने श्रमापनोदन के लिए एक एक दण्ड के अनन्तर यह आसन करना चाहिए । सर्वाङ्गासन को छोड़कर नित्य वायु धारण न करे । ऐसा करने वाले साधाक के शरीर में एक महीने में सूक्ष्म वायु चलने लगती है और वह तीन मास में देव पदवी प्राप्त कर शीतल हो जाता है ॥८९ - ९०॥
हे महादेव ! अब इसके अनन्तर सर्वश्रेष्ठ मयूरासन कहती हूँ । दोनों हाथों को पृथ्वी पर स्थापित करे तथा दोनों केहुनी पर समस्त शरीर स्थापित करे और आशय ( उदर ) को केहुनी पर स्थिर रखे तो मयूरासन हो जाता है ॥९१ - ९२॥
केवल दोनों हाथों को पृथ्वी पर रखकर सुस्थिर होकर बैठ जावे । इस आसन के करने मात्र से सभी नाड़ियाँ परस्पर एक हो जाती हैं । पूरक प्राणायाम के द्वारा सर्वाङ्ग का आश्रय हो जाने से साधक दृढ़ता प्राप्त करता है । इसके बाद अन्य ज्ञानासन करने से सभी व्याधियों का विनाश हो जाता है और साधक शीघ्रता से योगाभ्यासी बन जाता है ॥ ९३ - ९४॥
दाहिने पैर के ऊरुमूल पर बायें पैर का तलवा रखे । फिर दाहिने पैर के तलवे को दाहिने बगल के पार्श्वभाग से संयुक्त कर धारक करे । हे नाथ ! इसे ज्ञानासन कहा जाता है । इस ज्ञानासन से विद्या का प्रकाश होता है । अतः जो इस आसन का अभ्यास निरन्तर करता है उसकी अज्ञान ग्रन्थि ढी़ली पड़ जाती है ॥९५ - ९६॥
सव्यापसव्य के योग से इसे मुण्डासन भी कहा जाता है । इसको करने से , ध्यान करने से और स्थिर रखने से साधक परमात्मा में लीन हो जाता है । अब मैं गरुडा़सन कहती हूँ जिसके करने से पृथ्वी पर ध्यान स्थिर रहता है , साधक सारे दोषों से मुक्त हो जाता है और महाबलवान् हो जाता है ॥९७ - ९८॥
एक पैर को ऊरु पर रखे दूसरे पैर से दण्ड के समान खडा़ रहे तो गरुडा़सन होता है । एक पैर को जंघा और पैर के सन्धि स्थान में रखे दूसरे को डण्डे के समान खडा़ रखे तो वह व्यवस्थित किन्तु ज्ञानव्यग्र होता है । इस आसन को करने के पश्चात् पीछे से संहार मुद्रा द्वारा योगनाथ की तथा सर्वेश्वर की आराधना करनी चाहिए ॥९९ - १००॥
अब मैं अन्य आसन कहती हूँ जिससे मनुष्य सिद्धि प्राप्त करता है । वह है कोकिल नामक आसन , जिससे शरीर में अकस्मात् वायुसञ्चार होता है । पैर को आगे पसार कर उस पर दोनों हाथ रख कर पैर के आगे का अंगूठा पकड़े , इस क्रिया को धीरे - धीरे सम्पन्न करे ॥१०१ - १०२॥
अथवा पद्मासन कर दोनों कूर्पर के बल स्थित हो जावे तो कोकिलासन होता है । हे वीरनाथ ! अब मैं आनन्दमन्दिरासन कहती हूँ , जिसके करने से धीर साधक अमर बन जाता है । हे कौल ! दोनों पैरों के ऊपर किसी देशद पर क्रमशः दोनों हाथों को रखकर फिर उन्हें द्ण्डे के समान खड़ा कर नितम्ब के अग्रभाग में स्थापित करे ॥१०३ - १०५॥
अब खञ्जनासन कह्ती हूँ , जिसके करने से साधक सुस्थिर हो जाता है । दोनों पैरों को पीठ पर बाँधकर दोनों हाथ पृथ्वी पर रखे । हे नाथ ! भूमि पर दोनों हाथों को रख कर वायु पान करे । पीठ पर दोनों पैर को बॉध कर खञ्जनासन करने से साधक जयी हो जाता है ॥१०५ - १०७॥
अब साधकों के लिए अन्य आसन कह्ती हूँ । पवनासन करने से साधक खेचर तथा योगिराज हो जाता है । धीर हो कर पद्मासन पर स्थित हो कर नाभि के नीचे दोनों हाथ रखकर शिर को ऊपर उठा कर वायु पान करे औ दो छिद्र वाले इन्द्रियों ( कान , आँख , नासिका ) को रोके ॥१०८ - १०९॥
अब केवल वायु पान के लिए सर्पासन कह्ती हूँ । दोनों पैरों में रस्सी बाँधकर शरीर को डण्डे के समान खड़ा रखे । कुण्डली देवी वायवी हैं । उनका आकार कुण्डल के समान गोला है । वे भूषणादि से मण्डित हैं तथा सर्पासन पर स्थित रहने वाली हैं इसे आगे कहूँगी । साधक निद्रा आलस्य तथा भय का त्याग कर बारम्बार इस सर्पासन को करे ॥१०९ - १११॥
इस आसन से वायु साधन करने के कारण सभी प्रकार के विघ्न तथा निद्रादि उसके वश में हो जाते हैं । अब सर्वश्रेष्ठ काकस्कन्ध आसन कहती हूँ । इस आसन से साधक कलि के पापों से मुक्त हो जाता है । वायवी कुण्डलिनी को वश में कर लेता है । साधक अपने दोनों पैरों को बाँधकर कन्धे पर रखे । अथवा दोनों पैरों को पृथ्वी पर ही बाँध कर रखे । ये दोनों प्रकार के आसन पुष्टिकारक हैं ॥११२ - ११४॥