चौबीसवाँ पटल - योगसाधननिरुपण

रूद्रयामल तन्त्रशास्त्र मे आद्य ग्रथ माना जाता है । कुण्डलिणी की सात्त्विक और धार्मिक उपासनाविधि रूद्रयामलतन्त्र नामक ग्रंथमे वर्णित है , जो साधक को दिव्य ज्ञान प्रदान करती है ।


आनन्दभैरवी उवाच

आनन्दभैरवी ने कहा --- हे महादेव ! अब इसके अनन्तर योगशास्त्र के अर्थ का निर्णय कहती हूँ जिसके ज्ञानमात्र से पुरुष षट्‍चक्र का भेदन करने वाला बन जाता है । पर्व के दिनों को छोड़कर श्रीविद्या के योग का साधन करना चाहिए । यह श्रीयोग महाकाल से युक्त कालिका कुल सर्वस्व की कला है ॥१ - २॥

करोड़ों करोड़ों क्रियाओं से युक्त आसन का ज्ञान विधिपूर्वक करना चाहिए । इस पृथ्वी पर ही सौ लाख हजार आसन कहे गए हैं । जिन्हें महर्षियों ने स्वर्ग में एवं पाताल में किया था । अतः भेदाभेद क्र क्रम से उन अच्छे अच्छे आसनों को सर्वदा करना चाहिए ॥३ - ४॥

अष्टैश्वर्य समन्वित उस आसन के अनेक प्रकार हैं , जिन्हें करने पर साधक अमर हो जाता है । ऐसा लोग कहते हैं कि देवता लोग आसन के प्रभाव से सिद्ध हो गए हैं । यही बात मूलमन्त्र के अर्थवेत्ताओं को भी भासित होती है । देवता लोग भी सभी लोकों में निरन्तर आसन की प्रशंसा करते हैं ॥५ - ६॥

ऐसे तो देवता लोग श्री ( कामिनी ) में प्रेम करने वाले होते हैं , किन्तु जो आसन में भावना करने वाले हैं , वे काल को भी वश में करने में समर्थ हैं । ऐसे भावक इस लोक में सैकड़ों करोड़ों वर्षों तक विचरण करते हैं । अब हे सदाशिव ! उन - उन आसनों के नाम तथा उनके सिद्धि के सधनों को सुनिए , जिनके ज्ञानमात्र से साधक ईश्वर की भक्ति करने वाला बन जाता है ॥७ - ९॥

आसन निरुपण --- हे नाथ ! कूर्मासन कर वायु से शरीर को पूर्ण करे । यह कूर्मासन कलि के समस्त पापों को नष्ट करने वाला है । इसके करने से साधक कामनानुसार रुप धारण करने वाला बन जाता है । समानासन ( द्र० . २३ , ७१ ) करके लिङ्ग के आगे अपना मस्तक तथा नितम्ब पर दोनों हाथ रखकर शरीर को सिकोड़ते हुए पृथ्वी पर गिर जावे ॥९ - ११॥

अब वायु धारण के लिए कुम्भीरासन कहती हूँ । दोनों हाथों को शिर के ऊपर रखे , पैर के ऊपर पैर रखकर कुण्ड की आकृति में पृथ्वी पर गिर जावे , यह कुम्भीरासन कहा जाता है । अब मत्स्यासन सुनिए । हाथ की फैली हुई अङ्गुलियों के ऊपर दोनो पैरों को फैलाकर शरीर को मयूर के समान बनाते हुए पैर के अंगुष्ठ का समायोजन मत्स्यासन कहलाता है ॥१३ - १४॥

अब मकरासन कह्ती हूँ जिससे वायुपान के लिए कुम्भक किया जाता है । पीठ पर दोनों पैर रखकर दोनों हाथों से पीठ को बाँध लेवे - यह मकरासन है । अब सिंहासन कहती हूँ । क्रमशः दोनों हाथ क केहुनी पर दोनों पैर का जानु स्थापित करे । तदनन्तर मुख को ऊपर कर वायु पान करे । यह सिंहासन है ॥१४ - १६॥

हे महादेव ! अब इसके बाद सर्वश्रेष्ष्ठ कुञ्जरासन कहती हूँ - एक हाथ तथा दोनों पैरों के सहारे पृथ्वी पर स्थित रह कर शिर पर दूसरा पैर रखे तो सिंहास्न होता है । अब क्रोधरुपी काल को विनाथ करने वाले व्याघ्रासन को कहती हूँ । मेरुदण्ड के ऊपर से ले जाकर एक पैर शिर के मध्य में स्थापित करे तो व्याघ्रसन हो जाता है ॥१७ - १८॥

अब भल्लूकासन कहती हूँ जिसके करने से साधक योगिराज बन जाता है । दोनो नितम्ब पर पैर रखकर हाथों से ( पैर की ) अंगुली पकड़ रखे - यह भल्लूकासन है । अब काम का मर्दन करने वाले कामासन को कहती हूँ । गरुड़ासन ( द्र० . २३ . ९९ ) कर उसे कनिष्ठा अंगुली से पकड़े रहे । अब वर्तुलासन कहती हूँ जिसके करने से साधक साक्षात् भैरव बन जाता है । दोनों पैर को आकाश में खडा़कर पीठ को बाँध लेवे ।

अब मोक्षासन कहती हूँ जिसके करने से मोक्षाधिकारी बन जाता है । सुधी साधक साधक दाहिना हाथ दाहिना पैर केवल पृथ्वी पर स्थापित करे । अब मालासन कहती हूँ जिसके करने से वायु देवता कुण्डलिनी प्रसन्न होती हैं । केवल एक हाथ के बल पृथ्वी पर स्थित रहने वाला साधक उत्तम योग प्राप्त कर लेता है । अब दिव्यासन कह्ती हूँ । पीठ को एक हाथ से बाँधे ॥२१ - २३॥

हे नाथ ! अर्द्धोदयासन उसे कह्ते हैं जिसमें अपने सभी अङ्गो को आकाश में स्थापित करे और नासिका से पृथ्वी का घर्षण करते हुए दोनों हाथों को पृथ्वी पर रखे । अब चन्द्रासन कह्ती हूँ । बारम्बार वायु को धारण करते हुए दोनों पैरों के बल पर अपना समस्त शरीर बारम्बार स्थापित करे ॥२४ - २६॥

अब हंसासन कहती हूँ । सुधी साधक प्राणवायु को दृढ़ करते हुए अपने शरीर से निर्गत श्वासों द्वारा पृथ्वी को बारम्बार प्रताड़ित करे । अब सूर्यासन कह्ती हूँ । इससे पीछे से पैर के द्वारा सारा शरीर बाँधा जाता है । पीठ पर भेदयुक्त पैर रखकर उसे हाथ से बाँध रखे । अब योगासन कहती हूँ जिसके करने से साधक योगिराज बन जाता है ॥२७ - २८॥

दोनों ऊरु पर दोनों पैर के तलवे रखकर अपने गोद में दोनों हाथों को परस्पर बॉध लेवे । अब गदासन कह्ती हूँ । गदा आकृति में पृथ्वी पर स्थित हो जावे । और कायशुद्धि के लिए बाहुओं को ऊपर उठाए रखे । अब लक्ष्म्यासन कह्ती हूँ --- लिङ्ग के अग्रभाग पर दोनों पैर का तलवा रखे तथा गुह्मदेश पर दोनों हाथ रख कर उसके तलवे से भूमि को पकड़ लेवे । अब कुल्यासन कहती हूँ , जिसके करने से साधक कुलमार्ग का अधिकारी बन जाता है ॥३० - ३१॥

एक हाथ को मस्तक के ऊपर रखे , दूसरे हाथ को शीर्ष के नीचे भाग में रखे । अब ब्रह्मणासन कहती हूँ , जिसके करने से साधक ब्राह्मण बन जाता है । एक पैर को ऊरु पर स्थापित करे तथा दूसरे पैर को डण्डे के समान पृथ्वी पर खड़ा रखे । अब क्षत्रियासन कहती हूँ , जिसके करने से साधक धनी हो जाता है । केश से दोनों पैरों को बाँधकर नीचे अधोमुख स्थित रहे ॥३२ - ३४॥

अब वैश्यासन कहती हूँ जिसे कर के वैश्य सत्यनिष्ठ हो जाता है । दोनों हाथों को वक्षः स्थल पर स्थापित करे और दोनों पैर के अंगूठे को एक में सटा पर पृथ्वी पर खड़ा रहे । अब शूद्रासन कह्ती हूँ , जिसे करके साधक सेवक बन जाता है । दोनों अंगूठों को अब जात्यासन कहती हूँ , जिसे करने पर साधक को पूर्वजन्म का ज्ञान होता है । दोनों हाथ और दोनों पैर को पृथ्वी पर रखकर गमनागमन करे अब पाशावासन कह्ती , हूँ , जिसके करने से साधक पशुपति बन जाता है । पीठ पर दोनों हाथ रखे , दोनों कूर्पर के आगे अपना मस्तक रखे , इन सभी आसनों की साधना से मनुष्य चिरञ्जीवी बन जाता है ॥३४ - ३८॥

किं बहुना एक संवत्सर की साधना से निश्चित रुप से मनुष्य जीवन्मुक्त हो जाता है । हे प्रभो ! अब इसके आगे श्री विद्या के आसन का साधन आपसे कहूँगी । आसन कायशुद्धि के लिए है । कायशुद्धि से योगसिद्धि होती हैं । हे देवेश ! अब कोमलासन के गुप्त रहस्य को श्रवण कीजिए । योगसिद्धि के लिए चर्मासन शुभकारक गोपनीय रह्स्य हैं । अब मैं सोलह प्रकार वाले नरासन को कहती हूँ , जिसके साधन से साधक योगी बन जाता है । नरासन का उक्त सोंलह प्रकार हमारे शाक्तागम से उत्पन्न हुआ हैं ॥३९ - ४२॥

इसके साधन से पृथ्वी पर साधक एक मास में योगी के समान जो जाता है । दो मास में योग कल्पक , तीन मास में योगीकल्प , चार मास में स्थिराशय , पाँच मास में सूक्ष्मकल्प तथा षष्ठमास में ज्ञान का पात्र हो जाता है । भावक सात मास में निश्चित रुप से ज्ञानवान् हो जाता है । आठ महीने में सत्त्वसम्पन्न तथा इन्द्रिय विजेता बन जाता है । नव महीनें में सिद्धि का मिलन होता है , दश मास में चक्रों का भेदन करने , वाला , एकादश में महावीर तथा द्वादश मास में खेचर हो जाता है ॥४५ - ४६॥

इस प्रकार योग और आसन से संयुक्त साधक योगी बन जाता है , जो नरासन करता है वह सिद्ध हो जाता है इसमें संशय नहीं ॥४७॥

शवसिद्धिकथन --- हे प्रभो ! अब नरासन का प्रकार कह्ती हूँ , जिससे साधक सिद्ध बन जाता है । नरासन के साधन काल में अधोमुख रहना चाहिए ॥४८॥

योगशास्त्र में निष्ठा रखने वाले साधकेन्द्रों को जिस प्रकार नरासन करना चाहिए उसका प्रकार कहती हूँ । जिसकी उत्कृष्ट जवानी क्षीण न हुई हो , जिसके केश अत्यन्त सुन्दर हों , जो शरीर से सुन्दर हो , युद्धभूमि में सामने मारा गया है , ऐसे लोक श्रेष्ठ युवक के शरीर को सर्वाङ्गतया लाकर मङ्गलवार के दिन रात्रि के समय चन्द्रासन और सूर्यासन कर कौलिक ( शाक्त ) साधक उसकी सिद्धि करे । इसके अतिरिक्त एक और सर्वसिद्धि का प्रकार कह्ती हूँ । जो उक्त शव पर बैठकर भेकासन करता है वही योगिनीपति होता है ॥४९ - ५२॥

अब दूसरा आसन कहती हूँ जिसको करके साधक योगिराज बन जाता है । उस शव के शिर के पीछे चन्द्रासन पर स्थित हो जप करे । अब उसका और प्रकार कहती हूँ , जो महाविद्या के दर्शन में कारण है ॥५२ - ५३॥

मत्स्र युक्त किन्तु गौरवर्ण के शवासन पर शैलासन , से जप करे । अब उसका एक और प्रकार कह्ती हूँ , जिससे निस्सन्देह योगी शाक्त बन जाता है । जो उक्त प्रकार से मरा हुआ शव है उस पर भद्रासन से स्थित हो कर जप करे । उसकी सिद्धिकाल में प्रतिदिन ऐसा करे ॥ ५४ - ५५॥

उन्नीसवें दिन साधक नृत्य , वाद्य , गीत , राग तथा भोग इन १४ का दर्शन न करे क्योंकि दर्शन से भैरवों का भय होता है । हे भैरव ! इस प्रकार मन के सन्निवेश मात्र से साधक योगी हो जाता है । स्वेच्छासन करके जो मनुष्य जप करता है , दृढ़ सत्त्ववान् ‍ वीतराग तथा निश्चित रुप से योगी होता है । अब हे सदाशिव ! सावधान हो कर अन्य प्रकार के शव माहात्म्य को सुनिए ॥५६ - ५८॥

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Last Updated : July 30, 2011

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