चौबीसवाँ पटल - अष्टांगयोगनिरूपण

रूद्रयामल तन्त्रशास्त्र मे आद्य ग्रथ माना जाता है । कुण्डलिणी की सात्त्विक और धार्मिक उपासनाविधि रूद्रयामलतन्त्र नामक ग्रंथमे वर्णित है , जो साधक को दिव्य ज्ञान प्रदान करती है ।


अष्टाङ्गयोग निरुपण --- मनुष्य अष्टङ्ग योग से ही सिद्ध होता है । सिद्ध होने का और कोई दूसरा उपाय नहीं है । अबा साक्षात् ‍ सिद्धि देने वाले अष्टाङ्ग योग के विषय में कहती हूँ । मनुष्य करोड़ों जन्म के पुण्य के फल से अष्टाङ्ग योग में प्रवृत्त होता है अष्टाङ्ग योग के प्रथन सोपानभूत यम से ज्ञान उत्पन्न होता है । ज्ञान से कुलपति बनता है ॥१३२ - १३३॥

वही कुलेश्वर योगेश्वर बनता है , जो शिशुभावापन्न होकर सर्वथा निर्मल रहता है । द्वितीय सोपानभूत नियम का फल यह है कि नियम से ठीक प्रकार से पूजा होती है और पूजा से कल्याण होता है । जहां पूर्ण रुप से कल्याण होता है वहां संपूर्ण शुचिता होती है । आसन का यह फल है कि आसन से दीर्घ जीवन प्राप्त होता है । रोग और शोक सन्निकट नहीं आते ॥१३४ - १३५॥

साधक जब नाड़ियों की ग्रन्थि तोड़ देता है तो वह शीताल हो जाता है । चतुर्थ सोपानभूत प्राणायाम से प्राणवायु को वश में कर लेने से वह शुद्ध हो जाता है । हे देवेश ! वह जितेन्द्रिय हो जाता है और आत्माराम होकर आत्मा में रमण करता है । चित्त स्वभावतः चञ्चल और कामना चाहता रहता है ॥१३६ - १३७॥

अतः उस काम के विनाश के लिए प्रत्याहार द्वारा भगवत्पादपङ्गज में चित्त को स्थापित करें । षष्ठ सोपानभूत धारणा से वायुसिद्धि , फिर वायुसिद्धि से अष्टसिद्धि प्राप्त होती है ॥१३८॥

इतना ही नहीं , अणुरुप वायु से अष्टसिद्धियाँ प्राप्त होती हैं । सप्तम सोपान ध्यान से मोक्ष प्राप्ति होती है । मोक्ष से सुख प्राप्त होता है । सुख से आनन्द की वृद्धि होती है और आनन्द साक्षात् ‍ ब्रह्म का स्वरुप हैं । अष्टम सोपान समाधि से महा ज्ञानी होता है । सूर्य तथा चन्द्रमा तक समाधि के बल से जा सकता है ॥१३९ - १४०॥

महाशून्य में जहाँ लय का स्थान है वहाँ महाश्री के चरणों में आनन्द का सागर प्रवाहित होता है , उस परमार्थ विनिर्मल आनन्द सागर की तरंगों में मन को स्थापित करना चाहिए । करोड़ों सूर्य एवं चन्द्रमा के समान प्रकाशमान् ‍ भगवती महाश्री के पादारविन्द की कल्पना करे तथा करोड़ों विद्युत के समान प्रभा से उज्ज्चल शुभ्र श्री मूर्ति की भी कल्पना करे ॥१४१ - १४२॥

योगी को सहस्त्रार चक्र में रहने वाली करोड़ों सूर्य तथा चन्द्र्मा के समान मन्दिर में रहने वाली भगवती महा श्रीविद्या की मूर्ति का ध्यान करना चाहिए । श्रीविद्या अत्यन्त सुन्दरी हैं और तीनों जगत् ‍ के आनन्द पुञ्ज की स्वामिनी हैं । वह करोड़ों अयुत सूर्य तेज में निवास करती हैं । स्वामिनी सब का प्रिय करती हैं योग का आदर करने वाली हैं और शङकर वल्लभा हैं । ऐसी स्थिर तथा चञ्चल रहने वाली , महाविद्या का स्थिर चित्त से समाधि द्वारा ध्यान करना चाहिए । इस प्रकार ध्यान करने वाला साधक श्रीपति श्रीविद्या को प्राप्ता कर लेता है ॥१४३ - १४४॥

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Last Updated : July 30, 2011

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