तिथिनक्षत्रवाराणां दुष्टयोगान् परस्परम् । व्यतीपातादिदुर्योगान् विष्टि दर्शार्कसंक्रमान् ॥१॥
जन्मर्क्षतिथिमासांश्व तिथ्यृद्धिं त्ववमं दिनम् । पापैर्भुक्तं युतं भोग्यं विद्धं लत्तितमृक्षकम् ॥२॥
उत्पातग्रहभिन्नं च स्वग्रासे ग्रहणर्क्षकम् । षण्मासविधिमासेषु त्रिषु ग्रासेऽर्द्धके सति ॥३॥
मासमेकं तु तुर्योशे ग्रस्ते चंद्रे च भास्करे । त्र्यहं प्रांक्ग्रहणात्सप्त दिनानि ग्रहणोत्तरम् ॥४॥
ग्रस्तास्ते तु त्र्यहं पूर्वं त्र्यहं ग्रस्तोदये परम् । पूर्णे ग्रासे त्विदं ज्ञेयं खंडग्रासेऽनुपातत: ॥५॥
गंडांतं त्रिविधं दुष्टक्षीणेंदु: पापकर्त्तरी पापहोरा खले वारे यामार्द्धं कुलिकादिकान् ॥६॥
( त्याज्यप्रकरणं लिख्यते ) तिथि, नक्षत्र, वारोसे उत्पन्न होनेवाला मृत्यु आदि दुष्टयोग और व्यतीपात, वैधृती आदि निषिद्ध योग, भद्रा अमावस्या और सूर्यके संक्रांतिका दिन शुभ काममें त्याग देना चाहिये ॥१॥
जन्मनक्षत्र, जन्मतिथि, जन्ममास और तिथिवृद्धि अर्थात् बढी हुई तिथि तथा अवमदिन ( टूटी हुई तिथि ) और पापग्रहों करके भोगा हुआ तथा पापग्रहयुक्त नक्षत्र, या जिस नक्षत्रपर पापग्रह आता हो तथा ग्रहोंकरके बेघित हो अथवा लत्तादोषयुक्त हो तो उस नक्षत्रमें शुभकार्य नहीं करना ॥२॥
और उत्पातोंसे दूषित नक्षत्र तथा ग्रहोंकरके वेधित नक्षत्र और सूर्य चन्द्रमाके खग्रास ग्रहणका नक्षत्र छ: मासतक त्यागे तथा आधा ग्रास हो तो तीन मासतक त्यागना चाहिये ॥३॥
चौथे हिस्सेका ग्रहण हो तो एकमास १ और ग्रहणसे तीन ३ दिन पहिलेका तथा सात ७ दिन ग्रहणके अनंतर त्यागना योग्य है ॥४॥
ग्रस्तास्त हो तो पहले तीन ३ दिन और ग्रस्तोदय हो तो पीछेके तीन ३ दिन त्याग देवे, परन्तु यह व्यवस्था पूर्णग्रहणमें जानना यदि न्य़ून होवे दो कम दिन त्याग देना चाहिये ॥५॥
तिथिगंडांत, नक्षत्रगंडांत, लग्नगंडांत और दुष्टक्षीण चंद्रमा प्रापग्रहोंका कर्त्तरी योग तथा पापहोरा, पापवार’ वारवेला, कुलिक आदि योग भी त्याग देवे ॥६॥
चंद्रपापयुतं लग्नमंशं वा कुनवांशकम् । जन्मराशिविलग्नाश्र्यामष्टं लग्नमेव च ॥७॥
दिनमेकं तु मासांते नक्षत्रांते घटीद्वयम् । घटीमेकां तु तिथ्यंते लग्नाते घटिकार्द्धकम् ॥८॥
विषाख्या नाडिका भानां पातमेकार्गलं तथा । दग्धाहं क्रांतीसाम्य च लग्नेशं रिपुमृत्युगम् ॥९॥
दिनार्द्धे च रजन्यर्द्धे संधौ च पलविंशतिम् । मलमासं कवीज्यास्तं बाल्यवार्द्धक्यमेव च ॥१०॥
जन्मेशास्तं मनोभंगं सूतकं मातुरार्त्तवम् । रोगोत्पाताद्यरिष्टानि शुभेष्वेतानि संत्यजेत् ॥११॥
अथायनकृत्यम् । गृहप्रवेशस्त्रिदशप्रतिष्ठाविवाहचौलव्रतबंधपूर्वम् । सौम्यायने कर्म शुभं विधेयं यद्रर्हितं तत्खलु दक्षिणे च ॥१२॥
चन्द्रमा करके तथा पापग्रह करके युक्त लग्न और नवांशक तथा पापनवांशक और जन्मराशि जन्मलग्नसे आठवें ८ लग्न भी त्यागे ॥७॥
मासके अंतका १ दिन, नक्षत्रके अंतकी दो २ घडी तथा तिथिके अंतकी एक १ घडी और लग्नके अंतकी आधी घडी अशुभ है ॥८॥
नक्षत्रोंकी विषघडी, पातदोष, एकार्गल दोष. दग्धयोग, क्रांतिसाम्य, और लग्नके पति छ्ठें ६, आठवें ८ अशुभ हैं ॥९॥
मध्याह्नमें अर्द्धरात्रिमें और सन्ध्याकालमें वीस २० पल त्याग देवे और मलमास, शुक्र, बृहस्पतिका अस्त तथा बालवृद्ध संज्ञाका दिन भी त्याज्य है ॥१०॥
जन्मलग्नका स्वामी अस्त हो और मन प्रसन्न नहीं हो तथा सूतक हो या माता रजस्वला हो गई हो या रोग, उत्पात, अरिष्ट आदि होवें तो शुभकाम नहीं करना ॥११॥
( अयनकृत्य ) नवीन घरमें प्रवेश, देवस्थापन, विवाह, चूडाकर्म, यज्ञोपवीत इत्यादि शुभकर्म उत्तरायणमें ही करना चाहिये और निंदित अशुभ कार्य होवे सो दक्षिणायनमें करना योग्य है ॥१२॥