अथ देशविशेषेण सिंहस्थगुरोदोंषाभाव : । गोदाया याम्यदिग्भागे भागोरथ्यास्तथीत्तरे । विवाहाद्यखिलं कार्यं सिंहस्थेऽपि बृहस्पतौ ॥२५॥
अथ सिंहस्थगुरो : सर्वदेशेषु दोषापवाद : । सिंहराशिस्थिते जीवे मेषेऽर्के तु न दूषणम् । आवश्यके विवाहादौ सर्वदेशेष्वपि स्मृतम् ॥२६॥
अथ मकरस्थे गुरौ विशेष : । मगधे गौडदेशे च सिंधुदेशे च कोंकणे । विवाहादिशुभे त्याज्यो नान्यस्मिन्नक्रगो गुरु : ॥२७॥
अथ लुप्तसंवत्सर : । अतिचारगतो जीवस्तं राशिं नैति चे : पुन : । लुप्तसंवत्सरो ज्ञेयो गर्हित : सर्वकर्मसु ॥२८॥
अथ लुप्तसंवत्सरापवाद : । मेषे १ वृषे २ झषे १२ कुम्भे ११ यद्यतीचारगे गुरौ । न तत्र कालदोष : स्यादित्याह भगवान्यम : ॥२९॥
अथ त्याज्यतिथ्यादि । तत्रादौ पक्षरन्ध्रतिथय : । चतुर्दशी १४ चतुर्थी ४ च अष्टमी ८ नवमी ९ तथा । षष्ठी ६ च द्वादसी १२ चैव पक्षर न्ध्राः ह्रया इ मा : ॥३०॥
( देशविशेषसे सिहके गुरुका दोषाभाव ) गोदावरीके दक्षिण देशमें और भागीरथीके उत्तरदेशमें सिंहके बृहस्पतिका विवाह आदिमें दोष नहीं है ॥२५॥
( सिंहके गुरुका स ब दे शोंमें दोषापवाद ) यदि सिंहमें गुरु हो और मेषमें सूर्य हो तो विवाह आदि करनेमें सर्वत्र ही दोष नहीं है यह सर्व देशमें ग्राह्य है ॥२६॥
( मकर राशिम गुरुका विशेष ) और मकर राशिमें गुरु हो तब मगध देशमे अर्थात् गयाजीके पासका जिल्ला और गौडदेश अर्थात् बंगालेके उत्तर पुरनियेके पासका जिल्ला और सिद्धुदेश अर्थात् पश्चिममें सिंधका देश और कोंकणदेश अर्धात बम्बईके पास प्रसिद्ध हैं इन देशोंमें विवाहादि शुभकार्य त्याज्य है और इनसे अन्यदेशोंमें दोष नहीं हैं ॥२७॥
( लुप्त संवत्सर ) यदि बृहस्पति अतिचार होके अपनी राशिसे मार्गी हो जावे और वक्री होके पूर्व राशिपर नहीं आवे तब लुप्तसंवत्सर होता है सो यह संपूर्ण कार्योमें निंदित है ॥२८॥
( लुप्त संवत्सरापवाद ) परन्तु बृहस्पति मेष १ , वृष २ , मीन १२ या कुंभ ११ का मार्गी या वक्री हो तो लुप्त संवतका दोष नहीं है ऐसे भगवान् यमराजने कहा है ॥२९॥
( त्याज्यतिथ्यादि ) चतुदंशी १४ , चौथ ४ , अष्टमी ८ , नौमी ९ , छठ ६ , बारस १२ यह तिथि परक्षरंध्र संज्ञक हैं ॥३०॥
अथैषां फलम् । विवाहे विधवा नारी व्रात्य : स्याच्चोपनायने । सीमंते गभनाश : स्यात्प्राशने मरणं ध्रुवम् ॥३१॥
अग्निना दह्यते शीघ्रं गृहारंभे विशेषत : । राजराष्ट्रविनाश : रयात्प्रतिष्ठायां विशेषत : । किमत्र बहुनोक्तेन कृतं कर्म विनश्यति ॥३२॥
आवश्यके पक्षरंध्रतिथीनां वर्ज्या घटिका : । क्रमादेतासु तिथिषु १४।४।८।९।६।१२ वर्जनीयाश्व नाडिका : । मृता ५ ष्ट ८ मनु १४ तत्त्व २४ ङ्क ९ दश १० शेषास्तु शोभना : ॥३३॥
दोषनाडीपु यत्कर्म कृतं सुर्वं विनश्यति ॥३४॥
अथ संक्रांतौ त्याज्यकाल : । अयने दिषुवे १।७ त्याज्यं पूर्व मध्यं पर दिनम् । शेषसक्रमणे पूर्वं पश्वात्षोडश नाडिका : ॥३५॥
अथ षडशीतिमुखादिसंज्ञा । षडशीत्याननं चाप ९ नृयुक्कन्या ३।६ झषे १२ भवेत् । तुला ७ जौ १ विषुंव विष्णुपद सिंहा ५ लि ८ गी २ घटे ११ ॥३६॥
( तिथियोंका फल ) इन तिथियोंमें विवाह करे तो कन्या विधवा हो और यज्ञो . पवीत लेनेसे शूद्रके आचरणोंको धारण करे तथा सीमंतोन्नयन संस्कार करे तो गर्भपात हो और अन्नप्राशन करे तो मृत्यु हो ॥३१॥
गृहारंभ करे तो अग्निसे घर दग्ध हो तथा प्रतिष्ठा आदि करनेसे राजा और देशका नाश होता है . अर्थात् किया हुआ कार्य संपूर्ण नष्ट होता है ॥३२॥
( वृक्षरंध्र तिथियोंकी वर्ज्य घटिका ) परन्तु यदि कामकी अति जरूरत हो तो इन तिथियोंकी क्रमसे आद्यकी घडी त्याग देवे अर्थात् चौदसकी ५ घडी , चौथकी ८ घडी , अष्टमीकी १४ घडी , नौमीकी २४ घडी , छठकी ९ घडी , वारसकी १० घडी त्याग देनी चाहिये ॥३३॥३४॥
( संक्रांतिकी त्याज्य घडी ) सूर्य उत्तरायण या दाक्षिणायनमें आवे और विषुव अर्थात् मेष १ तूला ७ की संक्रांति हो तो संक्रांतिसे पहला दिन और दूसरा दिन और संक्रांतिका दिन इस तरह तीन ३ दिन शुभकममें अशुभ हैं और वृष २ मि . ३ क . ४ सिं . ५ क . ६ वृ . ८ ध . ९ म . १० कुं . ११ मीन १२ इनकी संक्रांति हो तो संक्रांतिसे पहली १६ घडी और पीछेकी १६ घडी त्यागनी चाहिये . ॥३५॥
( षडशीतिमुखादिसंज्ञा ) धन ९ मिथुन ३ कन्या ५ मीन १२ इन संक्रांतियोंकी षडशीतिमुख संज्ञा है और तुला ७ मेष १ की विषुव संज्ञा हैं , सिंह ५ वृश्चिक ८ वृष २ कुंभ ११ की विष्णुपद संज्ञा जाननी चाहिये ॥३६॥
अथ सकलग्रहाणां संक्रांतौ त्याज्यकाल : । त्याज्या : सूर्यस्य संक्रांते : पूर्वत : परतस्तथा । विवाहादिषु कार्येषु नाडय : षोडश षोडश ॥३७॥
देव ३३ द्वयं२क९ तवो ६ ष्टाष्टौ ८८ नाडयोंऽका : ९ खनृपा : १६० क्रमात् । वर्ज्या : संक्रमणेऽर्कादे : प्रापोऽकस्यातिनिंदिता : ॥३८॥
अथ विरुद्धयोगानां त्याज्यघटिका : । वैधृतिव्यतिपाताख्यौ संपूणौं वर्जयेच्छुभे । दज्रविष्कभयोश्वव घटिकात्रयमादिकम् ॥३९॥
परिघार्धं पंच ५ शूले व्याघाते घटिका नव ॥ गंडातिगंडयो : षट् ६ च हेया : सर्वेंषु कर्मसु ॥४०॥
एतेषामपि योगानां शेषं साधारणं स्मृतम् । एके विरूद्धयोगानां पादमादां त्यजति हि ॥४१॥
अथ ध्वांक्षादिदुयोंगानां त्याज्यघटिका : । ध्यांक्षमुद्ररवम्राणां घटीपंचकमादिषु । काणमौसलयोर्द्वे द्वे चतस्र : पद्मलुम्बयो : ॥४२॥
एकां धूम्रें गदे सप्त चरे तिस्त्रो घटीस्त्यजेत् । त्यजेत्सर्वाश्शुभे मृत्युकालीत्पाताख्यगक्षसान् ॥४३॥
( संपूर्ण ग्रहींकी संक्रांतिकी त्याज्य घटी ) सूर्यकी संक्रांतिसे पहले १६ घडी और पीछेकी १६ घडी विवाह आदि कार्योंमें त्याज्य हैं ॥३७॥
और क्रमसे सूर्यके संक्रांतिकी ३३ घडी , चन्द्रमाके संक्रमणकी २ घडी , मंगलकी ९ घडी , बुधकी ६ घडी , गुरुकी ८८ घडी शुक्रकी ९ घडी , शनैश्वरके संक्रमणकी १६० घडी शुभकार्यमें त्यागना योग्य है परंतु सूर्यके संक्रांतिकी घडी तो अवश्य ही त्यागना चाहिये कारण कि अत्यन्त निंदित हैं ॥६८॥
( विरुद्धयोगोंकी वर्जित घडी ) वैधृति , व्यतीपात संपूर्ण ही शुभकार्योंमें अशुभ हैं और वज्र , विष्कंभकी तीन ३ घडी अशुभ हैं ॥३९॥
परिघकी तीस ३० घडी , शूलकी ५ घडी , व्याघातकी ९ घडी और गंड , अतिगण्डकी ६ घडी सर्वकाममें त्याज्य हैं ॥४०॥
और इन योगोंकी शेष घडी साधारण हैं तथा कई आचार्योंके मतमें इन योगोंका प्रथम चरण अशुभ है ॥४१॥
( ध्वांक्षादिदुर्योगकी त्याज्य घटिका ) ध्वांश , मुद्रर , वज्रके आद्यकी पांच ५ घडी और काण मुसलकी २ घडी तथा पद्म , लुम्बककी ४ घडी अशुभ हैं ॥४२॥
धूम्रयोगकी १ उडी , गदयोगकी ७ घडी , चरकी ३ घडी त्यागने योग्य हैं और मृत्यु , काल , उत्पात , राक्षस , यह योग संपूर्ण ही त्याज्य हैं ॥४३॥