कृष्णैकादशी
( हेमाद्रि ) - माघ कृष्ण एकादशीको प्रातःस्त्रान करके ' श्रीकृष्ण ' इस मन्त्नके ८, २८, १०८ या १००० जप करे । उपवास रखे । रात्रिमें जागरण और हवन करे । भगवानका पुजन करे और ' सुब्रह्मण्य नमस्तेऽस्तु महापुरुषपूर्वज । गृहाणार्घ्यं मया दत्तं लक्ष्म्या सह जगत्पते ॥' - इस मन्त्नसे अर्घ्य दे । यह ' षट्तीला ' एकादशी है । इसमें ( १ ) तिलोकें जलसें स्त्रान करे, २ ) पिसे हुए तिलोंका उबटन करे, ( ३ ) तिलोंका हवन करे, ( ४ ) तिल मिला हुआ जल पीये, ( ५ ) तिलोंका दान करे और ( ६ ) तिलोंके बने ( मोदक, बर्फी या तिलसकरी आदि ) का भोजन करे तो पापोंका नाश हो जाता है । इस व्रतकी कथा संक्षेपमें इस प्रकार है कि प्राचीन कालमें भगवानकी परमा भक्ता एक ब्राह्मणी थी; वह भगवत्सम्बन्धी उपवास - व्रत रखती, भगवानकी विधिवत् पूजा करती और नित्य - निरन्तर भगवानका स्मरण किया करती थी । कठिन व्रत करने और पतिसेवा एवं घरकी सँभाल रखने आदिसे उसका शरीर सूख गया था, किंतु अपने जीवनमें उसने दानके निमित्त किसीको एक दाना भी नहीं दिया था । एक दिन स्वयं भगवानने कपालीका रुप धारणकर उससे भिक्षाकी याचना की, परंतु उसने उन्हें भी कुछ नहीं दिया । अन्तमें कपालीके ज्यादा बड़बडा़नेसे उसने मिट्टीका एक बहुत बड़ा ढेला दिया तो भगवान उसीसे प्रसन्न हो गये और ब्राह्मणीको वैकुण्ठका वास दिया । परंतु वहाँ मिट्टीके परम मनोहर मकानोंके सिवा और कुछ भी नहीं था । तब उसने भगवानकी आज्ञासे षटतिलाका व्रत किया और उसके प्रभावसे उसको सब कुछ प्राप्त हुआ ।