सगुणपरीक्षा - ॥ समास दसवां - बैराग्यनिरूपणनाम ॥
श्रीमत्दासबोध के प्रत्येक छंद को श्रीसमर्थ ने श्रीमत्से लिखी है ।
॥ श्रीरामसमर्थ ॥
संसार याने महापूर । जिस में जलचर अपार । दंश करने दौडते विषधर । काल सर्प ॥१॥
आशा ममता देह की बेडियां यह । घडियाल करते तड़तोड । घसीटकर दुःखदायक संकट । में डालते ॥२॥
अहंकारनक्र ने उडाया । पाताल में डुबोया । वहां से प्राणी छूट पाया । ऐसा सुना न कभी ॥३॥
काम मगर आलिंगन से छूटे ना । तिरस्कार वह टूटे ना । मद मत्सर हटे ना । भ्रमित हुआ ॥४॥
वासना धामिण गले पडी । लिपट कर विष की उल्टी । जिव्हा लपलपाये हर घडी । भयानक ॥५॥
माथे पर प्रपंच का बोझा । लेकर कहे मेरा मेरा । डूबने पर भी ना छोड़ता । झूठा कुलाभिमान ॥६॥
भ्रांति का अंधेरा छाया । अभिमान चोर ने नग्न किया । अहंता ने झपट लिया । भूत बाधा ॥७॥
बहुत आवर्त में फंस गये । प्राणी बहते ही गये । भगवंत को पुकारा जिन्होंने । भक्तिभाव से ॥८॥
देव स्वयं छलांग लगाये । उन्हें उस पार ले गये । अन्य वे अभाविक बेचारे । बहते ही गये ॥९॥
भाव का भूखा ईश्वर । भूले भावार्थ देखकर । भक्त को संकट में देखकर । रक्षा करते ॥१०॥
जिन्हें ईश्वर प्रिय लगते । उनके वह भार लेते । संसारदुःख सब उड़ जाते । निज दासों के ॥११॥
जो अंकित ईश्वर के । उन्हें उत्सव निज सुख के । धन्य वे भाग्य के । भाविक जन ॥१२॥
भाव जिस का हो जैसा । देव उसका वैसा । जाने अंतरसाक्षी भाव ऐसा । प्राणी मात्र का ॥१३॥
अगर भाव है मायिक । तो देव भी है महाठग । नवल उसका कौतुक । जैसे को तैसा ॥१४॥
जैसे जिसका भजन । वैसे ही दे समाधान । होते ही किंचित न्यून । स्वयं भी दूर जाये ॥१५॥
दर्पण में प्रतिबिंब दिखे । जैसे को वैसा भासे । इसका सूत्र रहे । अपने ही पास ॥१६॥
करते हैं हम जैसे । होता वह भी वैसे । अगर देखें फैली आंखों से । तो देखे वह भी टकटकी बांधे ॥१७॥
देखें भौहें चढ़ाकर । तो देखे वह भी क्रोधित होकर । हमारे हास्य करने पर । होता आनंदित वह भी ॥१८॥
प्रतिबिंबित भाव जैसा । हुआ देव भी वैसा । भजे उसे जो जैसा । वैसा ही प्राप्त होता ॥१९॥
भावयुक्त परमार्थ का पथ । पहुंचाता भक्ति के बाजार तक । मिलता मोक्ष का चौराह । सज्जन संगती से ॥२०॥
भाव से जो भजन में मग्न । उन्हें हुआ ईश्वर प्राप्त । भावार्थ बल से उद्धारित । पूर्वज भी ॥२१॥
वे स्वयं तर गये । लोगों के भी काम आये । कीर्ति श्रवण से हुये । अभक्त भावार्थी ॥२२॥
धन्य उनकी माता । जिन्होंने हरि भजन में लगाई ममता । जनों में जन्म की सार्थकता । उन्होंने ही पाई ॥२३॥
उनका कद्दू क्या बड़प्पन । जिनके रक्षक भगवान । उतारे काछा पहन । पार दुःखों से ॥२४॥
अनेक जन्मों के पश्चात । छूटे जिससे यातायात । वो यह नरदेह प्राप्त । करवाये ईश्वर ॥२५॥
इस कारण धन्य वे भाविक जन । जिन्होंने भी जोड़ा हरिनिधान । अनंत जन्मों का पुण्य । हुआ फलित ॥२६॥
आयुष्य यही रत्न भांडार । इसमें भजनरत्न सुंदर । ईश्वर को अर्पण कर । लूट आनंद की करें ॥२७॥
हरिभक्त वैभव से कनिष्ठ । मगर वह ब्रह्मादि से भी वरिष्ठ । सदासर्वदा संतुष्ट । नैराश्य बोध से ॥२८॥
धर ईश्वर का काछ । किया संसार निराश । उन भाविकों को ईश्वर । सबाह्य संभालते ॥२९॥
जिसे संसार के दुःख । विवेक से लगे परम सुख । संसार सुख ही से पढत मूर्ख । लुब्ध होते ॥३०॥
जिन्हें ईश्वर से है प्रेम उन्हें स्वानंदसुख का भोग । जिनकी जनों से अलग । पूंजी अक्षय ॥३१॥
वे अक्षय सुख से सुखी हुये । संसारदुःख भूल गये । विषय रंगों से विमुक्त हुये । रंगे श्रीरंग में ॥३२॥
सार्थकता हुई उनके नरदेह की । जिन्होंने ईश्वर से सांठगांठ की । अन्य अभागी अभाविकों की । गया नरदेह ॥३३॥
अचानक मिला निधान । कौड़ी के मोल किया दान । वैसे बीत गया जीवन । अभाविक का ॥३४॥
बहुत तर्षो का संचित । पारस पत्थर हुआ प्राप्त । परंतु वह अभागा मूलतः । भोगना ही ना जाने ॥३५॥
वैसा संसार में आया । मायाजाल में उलझ गया । अंत में अकेला ही गया । हांथ झटककर ॥३६॥
इस नरदेह की संगति में । उत्तम गति पाई बहुतों ने । अन्य बेचारें यातायात के । दुःख में फंस गये ॥३७॥
इस नरदेह से ही शीघ्रता से । सार्थक करें संतसंग से । पहले नीच योनियों में दुःख ऐसे । भोगे अनेक ॥३८॥
कौन समय आयेगा कैसा । इसका न समझे न भरोसा । पक्षी जैसे दस ही दिशा । उड जाता ॥३९॥
वैसे वैभव यह सकल । कौन जाने कैसा पल । पूत्र कलत्र आदि । सकल । बिगड़ जाते ॥४०॥
बीती जो घडी नहीं अपनी । आयु तो सारी निकल गई । देह पड़ते ही है रखी । नीच योनी ॥४१॥
श्वान शूकर आदि नीच जाति । भोगनी पडती विपत्ति । वहां कुछ उत्तम गति । नहीं मिलती ॥४२॥
पहले कष्ट गर्भवास में । भोगते आया बड़े दुःख में । वहां से बड़े कष्ट में । छूटा दैवयोग से ॥४३॥
दुःख भोगे जीव ने स्वयं । वहां कहां थे सर्वजन । वैसे ही आगे अकेला प्रयाण । करना पडेगा रे बाबा ॥४४॥
कैसी माता कैसा पिता । कैसी बहन कैसा भ्राता । कैसे सुहृद कैसी वनिता । पुत्र कलन आदि ॥४५॥
ये तू जान माया के । सभी साथी सुख के । ये तेरे सुख दुःख के । साथी नहीं रे ॥४६॥
कैसा प्रपंच कैसा कुल । क्यों होते हो व्याकुल । धन कण लक्ष्मी सकल । हैं जानेवाले ॥४७॥
कैसा घर कैसा संसार । क्यों करते हो खटपट बेकार । जन्मभर वहन कर भार । जाओगे अंत में छोड़कर ॥४८॥
कैसा तारुण्य कैसा वैभव । कैसा उत्सव हावभाव । ये सभी जानो माया का भुलाव । माईक माया ॥४९॥
इसी क्षण मर जाओगे । तो रघुनाथ से दूर हो जाओगे । मेरा मेरा कहने के कारण ॥५०॥
तूने भोगी पुनरावृत्ति । ऐसे मां-बाप की कहा गिनती । स्त्री कन्या पुत्र की प्राप्ति । हुई लक्षालक्ष ॥५१॥
कर्मयोग से सकल मिले । एक स्थान पर जन्म लिये । उन्हें तू अपना माने । कैसे रे पढतमूर्खा ॥५२॥
तेरा नहीं जहां तेरा शरीर । वहां दूसरों का क्या विचार । अब एक भगवान साचार । धरे भावार्थ बल से ॥५३॥
एक दुर्भर के कारण । नाना नीचों की सेवा करना । नाना स्तुति और स्तवन । मर्यादा रखें ॥५४॥
जो अन्न उदर में देता। शरीर उसे बेचना पडता । फिर जो जन्म का दाता । उसको कैसे भूल जायें ॥५५॥
जिस भगवान को अहर्निशीं । समस्त जीवों की चिंता लगी । मेघ बरसाये सत्ता जिसकी । सिंधु मर्यादा धरे ॥५६॥
पृथ्वी को धरा धराधर ने । प्रकट होता दिनकर ये । ऐसी सृष्टि सत्तामात्र से । चलाये जो कोई ॥५७॥
ऐसा कृपालु देवाधिदेव । ना जाने उसका लाघव । जो सम्हाले सकल जीव । कृपालु बनकर ॥५८॥
ऐसे सर्वात्मा श्रीराम । त्यागकर धरते विषयकाम । वे प्राणी दुरात्मा अधम । किये सो पाते ॥५९॥
रामबिना जो जो आस । वह समझे निराश । मेरा मेरा सावकाश । थकान ही बचे ॥६०॥
जो चाहते है थकान । यह विषयों का करे ध्यान । विषय न मिलने से प्राण। छटपटाने लगते ॥६१॥
त्यागकर राम आनंदघन । जिसके मन में विषयचिंतन । उसे कैसे समाधान । विषयलंपट को ॥६२॥
जिसे लगे सुख ही रहे । वह रघुनाथभजन करे । स्वजन सकल ही त्यागे । दुःख मूल जो ॥६३॥
जहां वासना झपटे । वहीं अपाय दुःख होयें । इसलिये जो विषय वासना मरोडे । वह एक सुखी ॥६४॥
विषयजनित जो जो सुख । वहीं होता परम दुख । पहले मधुर अंत में शोक । है नियमित ॥६५॥
कांटा निगलते सुख होता । खींचने पर गला फटता । अथवा बेचारा मृग गिरता । चारा खाने दौडता जब ॥६६॥
वैसे ही मिठास विषय सुख की । मीठी लगती मगर है तीखी सी । इस कारण प्रीती । रघुनाथ में रखें ॥६७॥
सुनकर यह बोले भाविक । कैसे जी होगा सार्थक । कहियें स्वामी यमलोक । चूके जिस से ॥६८॥
वास्तव्य कहां है देव का । वह मुझे कैसे मिलेगा । दुःख मूल संसार टूटेगा । किस तरह स्वामी ॥६९॥
जैसी तैसी भी भगवद् प्राप्ति । हो कर चूके अधोगति । ऐसा उपाय कृपामूर्ति । मुझ दीन से कहिये ॥७०॥
वक्ता कहे हां एकभाव से । भगवद्भजन करें जिससे । होगा सहजता से । समाधान ॥७१॥
कैसे करें भगवद्भजन । कहां रखें यह मन । भगवद्भजन के लक्षण । मुझे निरुपित कीजिये ॥७२॥
ऐसा म्लानवदन बोले । पांव सुदृढ धरे । कंठ सद्गदित हो गलते । अश्रु तापदुःख से ॥७३॥
देखकर शिष्य की अनन्यता । भाव प्रसन्न हुये सद्गुरुदाता । स्वानंद की होगी वर्षा । अगले समास में ॥७४॥
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे वैराग्यनिरुपणनाम समास दसवां ॥१०॥
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Last Updated : November 30, 2023
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