बलि-बलि श्रीराधे-नँदनँदना ।
मेरे मनकी अमित अघटनी को जानै तुम बिना ॥
भलेई चारु चरन दरसाये ढूँढ़त फिरिहौं बृंदाबना ।
जै श्रीभट स्यामा स्यामरुप पै निवछावर तन-मना ॥
राधे, तेरे प्रेमकी कापै कहि आवै ।
तेरीसी गोपकी तोपै बनि आवै ॥
मन-बच-क्रम दुरगम सदा तापै चरन छुवावै ।
जै श्रीभट मति बृषभानु तेज प्रताप जनावै ॥
बसौ मेरे नैननिमें दोउ चंद ।
गौरबदनि बृषभानुनंदिनी, स्यामबरन नँदनंद ॥१॥
गोकुल रहे लुभाय रुपमें निरखत आनँदकंद ।
जै श्रीभट्ट प्रेमरस-बंधन, क्यों छूटै दृढ़ फंद ॥२॥