स्वयं अपने तथा इतरों के कल्याणार्थ आहुति द्वारा ईश्वरोपासना करे । एतदर्थ चन्दनादि सुगन्धित तथा रोगनाशक द्रव्यों की आहुति यज्ञकुण्ड में दे । यज्ञकुण्ड, द्रव्य और आहुति का प्रमाण तथा आहुति की विधि-
यज्ञकुण्ड - मंडप में अथवा घर में स्वच्छ, वायुयुक्त, प्रकाशयुक्त, लम्बे चौड़े विस्तीर्ण, समतल भूपृष्ठ पर बनाय २४ अंगुल लम्बी, २४ अंगुल चौड़ी भूमि लेकर उसके चारो ओर ८ अंगुल ऊंची तथा ३ अंगुल चौडी एक मेखला (सोपान) दीवाल जैसी, चिकनी मिट्टी की बनाये । तत्पश्चात इस सोपान के नीचे बाहर से चार अंगुल पर, तीन अंगुल चौड़ा दूसरा सोपान बनाये । इसके अनन्तर इस सोपान के नीचे तीन अंगुल पर दो अंगुल चौड़ा तथा दो अंगुल ऊंचा तीसरा सोपान बनाये । इस प्रकार भूपृष्ठ भाग पर ७ अंगुल गहरा, २४ अंगुल लम्बा २४ अंगुल चौड़ा कुण्ड होगा जिसके बाहर से चारों ओर भूपृष्ठ भाग से ऊपर २,३,४ अंगुल के समान ऊंचाई-चौड़ाई के तीन-तीन सोपान होंगे । विवाह, उपनयन और समावर्तन के समय ऐसे कुण्डो की योजना करनी चाहिए । पुंसवनादि अन्य मंगल-संस्कारों मे भो उपर्युक्त विवाहादि के लिये निर्मित यज्ञकुंड के सदृश ही बनाना चाहिये । परन्तु भूमि २४ अंगुल के स्थान पर १२ अंगुल लम्बी चौड़ी लेकर उसके चारो ओर पूर्व की भांति बाहर से ३-३ सोपान भूपृष्ठ भाग से क्रमशः २-३-४ अंगुल की समान ऊंचाई और चौड़ाई के बनाये ।
ये यज्ञकुण्ड मंडप में अथवा घर में ऐसे स्थान पर होने चाहिए कि वधु-वरादि कार्य करने वाले को उस कुण्ड के निकट पूर्व की ओर मुह करके बैठने के लिये तथा इनके आगे, पार्श्व में, कार्य में सम्मिलित होने वाले लोगों के लिये विस्तीर्ण स्थान हो ।
होम द्रव्य -
इसमें ईंधन और आहुति इस प्रकार दो द्रव्य होते है । ईंधन द्रव्य अर्थात् यज्ञाग्नि-प्रज्वलित करने के लिए उपयुक्त काष्ठ और तृण । काष्ठ यज्ञीय वृक्षों का होना चाहिए । चन्दन, पलाश और खैर ये मुख्य यज्ञीय वृक्ष है । इन वृक्षों के अभाव में बहेडा, लोध, हिंगणबेट नीम, अमलतास, सेहुड़ (थूहर), सेमल, पिपली, गूलर, आम, नार, लिसोड़ा वृक्षो को छोड़कर शेष वट, पीपल, पीपली, गूलर, आम, बेल, अपामार्ग, देवदारु, सुरु, शाल, शमी इत्यादि वृक्षों को यज्ञीय समझना चाहिए । यज्ञीय काष्ठ की भांति कुश और दर्भ मुख्य यज्ञीय तृण है । इनके अभाव में कुश घास, सर, मुंज देवनळ नड, मोळ, लळ्हाक इन तृणों को छोड़कर शेष सब तृण यज्ञीय समझना चाहिए । इस प्रकार के उपलब्ध यज्ञीय वृक्षों की लकड़ी ईंधन के लिए (कुण्डस्थ अग्नि प्रदीप्त करने के लिए) यज्ञकुण्ड के प्रमाणानुसार, कीटक और पर्ण रहित लेनी चाहिए । कुशादि तृण अग्रयुक्त, मूलरहित, अलग-अलग (एक दूसरे में उलझे न हो) एक बालिश्त लम्बाई के लेने चाहिए ।
द्रव्याहुति का प्रमाण - हाथ की कुहनी से कनिष्ठिकाग्र तक लम्बी और अंगूठे के पोर के बराबर मुंहवाली, खैर वृक्ष की या कांस्य की स्रुवा (करछी) दाहिने हाथ के अंगूथे, मध्यमा और अनामिका से पकडकर, इस स्रुवा से घृत, क्षीर आदि द्रव पदार्थों की आहुति दे । व्रीहि चरु आदि शुष्क पदार्थ दाहिने हाथ के अंगूठे, मध्यमा और अनामिका से (इन तीनो उंगलियों मे जितना आ सके) लेकर उसकी एक-एक आहुति दे । धान और ज्वार की खील की आहुति का प्रमाण अंजली है ।
अब समिधा अर्थात पूर्वोक्त यज्ञीय वृक्षों की विशेषरूप से चन्दन की कीटकों तथा पत्तों से रहित, जो फटी न हो कम से कम अंगूठे के बराबर मोटी, दस अंगुल लम्बी तोड़ी हुई लकड़ी लेनी चाहिये । पूर्वोक्त स्रुवा की भांति अंगूठे, मध्यमा और अनामिका के अग्रभाग से समिधा पकड़कर आहुति दे ।
होमाहुति विधि - पूर्वोक्त यज्ञीय काष्ठ, तृणादि जो प्राप्त हो ईंदन-द्रव्य, घृत, व्रीहि यवादि (जिस संस्कार में जो वस्तु बतायी गयी हो वह) सब आहुति द्रव्य शुद्ध जल से भरा पात्र (तांबे और पंचपात्र का); आज्यस्थाली (प्रायः दो सेर घी आने योग्य कांसे का बड़ा गोलपात्र); पूर्वोक्त स्रुवा; कुशादि उपलब्ध हरेतृण ये पदार्थ यज्ञकुण्ड के निकट लाकर रखने चाहिये । इस कुण्ड की दाहिनी ओर पुरोहित के बैठने के लिये एक आसन (पूर्वोक्त यज्ञीय वृक्षों का एक उत्तम ऊंचा आसन) और कुण्ड के पश्चिम में यजमान (संस्कार कर्ता) के बैठने के लिये मृदु शुभासन स्थापित करे ।
इस प्रकार सब सामग्री प्रस्तुत हो जाने पर यजमान ॐ भूर्भुवः स्वः मन्त्र का उच्चारण करके ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य वर्ण के याज्ञिकों के घर से अग्नि लाकर, अथवा शमी वृक्ष पर बढ़े हुए पीपल के अथवा अन्य वृक्ष के काश्ठघर्षण से अग्नि सिद्ध करके, निर्धूम अग्नि (धुआंरहित अग्नि) कुण्ड के समीप रखे । अब यजमान उत्तर की ओर से बाहर जाकर हाथ-पैर धोकर शुद्ध धुले हुए वस्त्र धारण करे तथा यज्ञोपवीत की भांति (ओढने का व्स्त्र दाहिनी कांख के ऊपर से लेकर बायें कन्धे पर से पहना हुआ) उपवस्त्र ओढकर पूर्व नियोजित पुरोहित के निकट जाकर उसे विनय पूर्वक ॐ आवसोः सदने सीद मन्त्र का उच्चारण करके पौरोहित्य स्वीकार करने की प्रार्थना करे । पश्चात पुरोहित ॐ सीदामि कहकर, हाथ-पैर धोकर तथा आचमन करके, निश्चित आसन पर बैठे । कार्य-समाप्ति पर्यन्त वह यज्ञकुण्ड के उत्तर की ओर मुंह करके शान्त तथा नम्रता पूर्वक रहे तथा उपस्थित कार्य के सम्बन्ध में ही बोले ।
इस प्रकार पुरोहित की स्थापना करने के पश्चात यजमान कुण्ड के सामने पूर्वाभिमुख बैठकर, ह्रदय तक पहुंचने भर का शीतल जल दाहिने हाथ की अंजली में लेकर, हाथ की कुहनी कन्धे के बाहर ऊपर उठाते हुए हस्तांजली सामने करके-
ॐ अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा ॥
इस मन्त्र से आचमन करे । इसी प्रकार
ॐ अमृतपिधानमसि स्वाहा ॥
ॐ सत्यं यशः श्रीर्मयि श्रीः श्रयतां स्वाहा ॥
इन दो मन्त्रों से, प्रत्येक मन्त्र के अन्त में एक-एक बार इस प्रकार और दो आचमन करे तथा दोनों हाथ धोकर मुख. कान, नेत्र, नासिकादि इन्द्रियों को जल स्पर्श कराते हुए इस प्रकार मन्त्र पढे-
ॐ वाङ्मऽग्रास्येस्तु ॥
इस मन्त्र से मुख को ॥
ॐ नसोर्मे प्राणोस्तु ॥
इससे नाक को ॥
ॐ अक्ष्णोर्मे चक्षस्तु ॥
इससे आंखो को ॥
ॐ कर्णयोर्मे श्रोत्रमस्तु ॥
इससे दोनों कानों को ॥
ॐ बाह्वोर्मे बलमस्तु ॥
इससे दोनों बाहुग्रो को ॥
ॐ ऊर्वोर्मेऽग्रोजोस्तु ॥
इससे दोनों जांघो की और
ॐ अरिष्टानि मेऽङ्गानि तनूस्तन्वा मे सह संतु ॥
इससे सारे शरीर को दाहिने हाथ से जलस्पर्श कराये ।
इस प्रकार आचमन तथा जल स्पर्श विधि करने के पश्चात यज्ञकुण्ड में कुछ समिधाए रखकर उन पर ॐ भूर्भुवः स्वः मन्त्र बोलते हुए अग्नि स्थापित करे । उस अग्नि पर पुनः ओर पृष्ठभाग तक काष्ठ तथा बीच-बीच मे कुशादि तृण रखकर बांस इत्यादि के पखे से अग्नि प्रदीप्त करे । उस पर घुतपात्र में (आहुतियां के प्रमाण से) घ्रुत लेकर गर्म करे । नीचे उतारकर यदि उसमें बाल, कचरा, चींटी इत्यादि कुछ पड़ा दिखाई दे, तो दाहिने हाथ के अंगूथे और अनामिका से दर्भ पकड़्कर उसके अग्र भाग से बाहर निकाल डाले और दर्भ यज्ञाग्नि में डाल दे तथा यह मन्त्र पढ़े-
ॐ देवस्त्वा सवितोत्पुनात्वच्छिद्रेण पवित्रेण वसोः सूर्यस्य रश्मिभः ॥
यह मन्त्र एक बार बोला जाय । इस प्रकार घृत सिद्ध करके अग्नि पर से नीचे उतारकर कुण्ड के उत्तर में रखे ।
तत्पश्चात् स्थालीपाक (भत) जिस संस्कार मे कहा गया हो उस संस्कार में सिद्ध करे । इसकी विधि-जिस मन्त्र से भात की आहुति देनी हो उस मन्त्र के देवता (मुख्य ईश्वर वाचक शब्द) का उच्चारण करके ('अग्नि देवता होने पर ॐ अग्नये त्वा जुष्टं निर्वपामि ॥) इस मन्त्र से ओखली में प्रत्येक आहुति के लिये ४-४ मुठ्ठी गिनकर देवशालि अथवा यदि अन्य अन्न की योजना की हो, तो वह डाले । पश्चात दूसरी बार विना मन्त्र पढे मौन होकर प्रत्येक आहुति के लिये ४-४ मुट्ठी धान डाले । इसके पश्चात पूर्व की ओर मुंह करके मूसल से ३-३ बार इसे कूटकर ओर ३-३ बार सूप से पछोरकर चावल तैयार करे । ये चाबल ३-३ बार शुद्ध जल से धोकर चरुस्थाली मे (उत्तम भात होने के लिये तांबे के बर्तन में) डालकर उत्तम भात बनाकर करछी से मिलाये । इस पक्व भात में स्रुवा से घी डाले । यह भात अग्नि पर से उतारकर कुण्ड के उत्तर में घृतपात्र के निकट रख दे । इस भात पर पुनः घी डाले तथा इसे भलीभांति ढककर रख दे ।
इस प्रकार स्थालीपाक, घृतादि अग्नि में डालने के पदार्थ सिद्ध हो जाने पर समिधादान करे - उपलब्ध समिधा काष्ठ (जितने से अग्नि प्रज्वलित हो सके ) लेकर उन पर स्रुवा से घृत सिंचन करके उनमेंसे
ॐ अयन्त इध्म आत्मा जातवेदस्तेनेध्यस्व वर्द्धस्व चेद्ध वर्द्धय चास्मान् प्रजया पशुभिब्रह्मर्चसेनान्नाद्येन समेधय स्वाहा- इदमग्नये जातवेदसे, इदन्न मम ॥
इस मन्त्र से एक-एक समिधा यज्ञाग्नि कुण्ड में भलीभांति अग्नि प्रज्वलित होने तक डाले । कुशादि ताजे तृण हाथ में लेकर कुण्ड के चारों ओर दक्षिण से आरम्भ करके जितने शोभायमान दीखे उतने एक बित्ता भर बिछादे । एक हाथ लम्बी तथा अंगूठे से किंचित मोटी शमी अथवा पलाश वृक्ष की छिलके वाली ताजी लकडिया थोडी बहुत कुण्ड की प्रत्येक भुजा के पास रख दे । तत्पश्चात दाहिना घुटना और बाये पैर का पंजा भूमि पर टेककर पलथी मारकर बैठे तथा हस्तांजली में जल लेकर कुण्ड के दक्षिण से पूर्व की ओर एक बित्ता तक सिंचन करे । इस समय,
ॐ अदितेऽनुमन्यस्व ॥
यह मन्त्र बोले इस प्रकार
ॐ अनुमतेऽनुमन्यस्व ॥
इस मन्त्र से पश्चिम में और
ॐ सरस्वत्यनुमन्यस्व ॥
इस मन्त्र से कुण्ड के उत्तर में हस्तांजलि से जल सिंचन करे, और
ॐ देव सवितः प्रसुव ॥
इस मन्त्र से कुण्ड के चारो ओर तीन बार सिंचन करे । तदनन्तर घृतादि द्रव्यों पर ।
ॐ विष्णोर्मनसा पूते स्था ॥
यह मन्त्र पढ़कर किंचित जल छिड़के तथा आहुति देना प्रारम्भ करे । प्रथम घृताहुति और पश्चात स्थालीपाकाहुति दे । इसकी विधि आगे संस्कारों मे वारंवार आने वाली आहुतियों मे बतायी गयी है । इससे स्पष्ट होगा ।