प्रातःकाल ब्रह्मरूपा गायत्रीमाताका ध्यान-
ॐ बालां विद्यां तु गायत्रीं लोहितां चतुराननाम् ।
रक्ताम्बरद्वयोपेतामक्षसूत्रकरां तथा ॥
कमण्डलुधरां देवी हंसवाहनसंस्थिताम् ।
ब्रह्माणी ब्रह्मदैवत्यां ब्रह्मलोकनिवासिनीम् ॥
मन्त्रेनावाहयेद्देवीमायान्ती सूर्यमण्डलात् ।
'भगवती गायत्रीका मुख्य मन्त्रके द्वारा सूर्यमण्डलसे आते हुए इस प्रकार ध्यान करना चाहिये कि उनकी किशोरावस्था है और वे ज्ञानस्वरुपिणी है । वे रक्तवर्णा एवं चतुर्मुखी है । उनके उत्तरी तथा मुख्य परिधान दोनो ही रक्तवर्णके है । उनके हाथमें रुद्राक्षकी माला है । हाथमे कमण्डलु धारण किये वे हंसपर विराजमान है । वे सरस्वती-स्वरूपा है, ब्रह्मलोकमें निवास करती है और ब्रह्माजी उनके पतिदेवता है।'
गायत्रीका आवाहन - इसके बाद गायत्रीमाताके आवाहनके लिये निम्नलिखित विनियोग करे -
तेजोऽसीति धामनामासीत्यस्य च परमेष्ठी प्रजापतिऋषिर्यजुस्त्रिष्टुबुष्णिहौ छन्दसी आज्यं देवता गायत्र्यावाहने विनियोगः ।
पश्चात् निम्नलिखित मन्त्रसे गायत्रीका आवाहन करे-
'ॐ तेजोऽसि शुक्रमस्यमृतमसि । धामनामासि प्रियं देवानामना धृष्टं देवयजनमसि।' (यजु० १।३१।)
गायत्रीदेवीका उपस्थान (प्रणाम) - आवाहन करने पर गायत्री देवी आगयी है, ऐसा मानकर निम्नलिखित विनियोग पढ़कर आगेके मन्त्रसे उनको प्रणाम करे-
गायत्र्यसीति विवस्वान् ऋषिः स्वराण्महापङ्क्तिश्छन्दः परमात्मा देवता गायत्र्युपस्थाने विनियोगः ।
ॐ गायत्र्यस्येकपदी द्विपदी त्रिपदी चतुष्पद्यपदसि । न हि पद्यसे नमस्ते तुरीयाय दर्शताय पदाय परोरजसेऽसावदो मा प्रापत् ।
(बृहदा० ५।१४।७)
(गायत्री-उपस्थानके बाद गायत्री-शापविमोचनका तथा गायत्री-मन्त्र-जपसे पूर्व चौबीस मुद्राओंके करनेका भी विधान है, परंतु नित्य-संध्यावन्दनमे अनिवार्य न होनेपर भी इन्हे जो विशेषरूपसे करनेके इच्छुक है, उनके लिये यहाँपर दिया जा रहा है ।)
गायत्री-शापविमोचन
ब्रह्मा, वसिष्ठ, विश्वामित्र और शुक्रके द्वारा गायत्री-मन्त्र शप्त है । अतः शाप-निवृत्तिके लिये शाप-विमोचन करना चाहिये ।
१. ब्रह्म-शापविमोचन - विनियोग - ॐ अस्य श्रीब्रह्मशापविमोचनमन्त्रस्य ब्रह्मा ऋषिर्भुक्तिमुक्तिप्रदा ब्रह्मशापविमोचनी गायत्री शक्तिर्देवता गायत्री छन्दः ब्रह्मशापविमोचने विनियोगः ।
मन्त्र -
ॐ गायत्री ब्रह्मेत्युपासीत यद्रूपं ब्रह्मविदो विदुः ।
तां पश्यन्ति धीराः सुमनसो वाचमग्रतः ॥
ॐ वेदान्तनाथाय विद्महे हिरण्यगर्भाय धीमहि तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात् । ॐ देवि! गायत्रि ! त्वं ब्रह्मशापाद्विमुक्ता भव ।
२. वसिष्ठ -शापविमोचन - विनियोग - ॐ अस्य श्रीवसिष्ठ-शापविमोचनमन्त्रस्य निग्रहानुग्रहकर्ता वसिष्ठ ऋषिर्वसिष्ठानुगृहीता गायत्री शक्तिर्देवता विश्वोद्भवा गायत्री छन्दः वसिष्ठशापविमोचनार्थं जपे विनियोगः ।
मन्त्रः-
ॐ सोऽहमर्कमयं ज्योतिरात्मज्योतिरहं शिवः ।
आत्मज्योतिरहं शुक्रः सर्वज्योतीरसोऽस्म्यहम् ॥
योनिमुद्रा दिखाकर तीन बार गायत्री जपे ।
ॐ देवि ! गायत्रि ! त्वं वसिष्ठशापाद्विमुक्ता भव ।
३. विश्वामित्र-शापविमोचन - विनियोग - ॐ अस्य श्रीविश्वामित्रशापविमोचनमन्त्रस्य नूतनसृष्टिकर्ता विश्वामित्रऋषिर्विश्वामित्रानुगृहीता गायत्री शक्तिर्देवता वाग्देहा गायत्री छन्दः विश्वामित्रशापविमोचनार्थं जपे विनियोगः ।
मन्त्र-
ॐ गायत्री भजाम्यग्निमुखी विश्वगर्भां यदुद्भवाः ।
देवाश्चक्रिरे विश्वसृष्टिं ता कल्याणीमिष्टकरी प्रपद्ये ॥
ॐ देवि ! गायत्रि ! त्वं विश्वामित्रशापाद्विमुक्ता भव ।
४. शुक्र-शापविमोचन - विनियोग - ॐ अस्य श्रीशुक्रशापविमोचनमन्त्रस्य श्रीशुकऋषिः अनुष्टुपछन्दः देवी गायत्री देवता शुक्रशापविमोचनार्थं जपे विनियोगः ।
मन्त्र -
ॐ सोऽहमर्कमयं ज्योतिरात्मज्योतिरहं शिवः ।
आत्मज्योतिरहं शुक्रः सर्वज्योतीरसोऽस्म्यहम् ॥
ॐ देवि ! गायत्रि ! त्वं शुक्रशापाद्विमुक्ता भव ।
प्रार्थना -
ॐ अहो देवि महादेवि संध्ये विद्ये सरस्वति ।
अजरे अमरे चैव ब्रह्मयोनिर्नमोऽस्तु ते ॥
ॐ देवि गायत्रि त्वं ब्रह्मशापाद्विमुक्ता भव, वसिष्ठशापाद्विमुक्ता भव, विश्वामित्रशापाद्विमुक्ता भव, शुक्रशापाद्विमुक्ता भव ।
जपके पूर्वकी चौबीस मुद्राएँ
सुमुखं सम्पुटं चैव विततं विस्तृतं तथा ।
द्विमुखं त्रिमुखं चैव चतुष्पञ्चमुखं तथा ॥
षण्मुखाऽधोमुखं चैव व्यापकाञ्जलिकं तथा ।
शकटं यमपाशं च ग्रथितं चोन्मुखोन्मुखम् ॥
प्रलम्बं मुष्टिकं चैव मत्स्यः कूर्मो वराहकम् ।
सिंहाक्रान्तं महाक्रान्तं मुद्गरं पल्लवं तथा ॥
एता मुद्रश्चतुर्विंशज्जपादौ परिकीर्तिताः ॥
(देवीभा० ११।१७।९९-१०१, याज्ञवल्क्यस्मृति, आचाराध्याय, बालम्भट्टी टीका)
१. सुमुखम् - दोनो हाथोंकी अँगुलियोंको मोड़कर परस्पर मिलाये ।
२. सम्पुटम् - दोनो हाथोंको फुलाकर मिलाये ।
३. विततम् - दोनो हाथोंकि हथेलियाँ परस्पर सामने करे ।
४. विस्तृतम् - दोनो हाथोंकी अँगुलियाँ खोलकर दोनोंको कुछ अधिक अलग करे ।
५. द्विमुखम् - दोनों हाथोंकी कनिष्ठिकासे कनिष्ठिका तथा अनामिकासे अनामिका मिलाये ।
६. त्रिमुखम् - पुनः दोनों मध्यमाओंको मिलाये ।
७. चतुर्मुखम् - दोनो तर्जनियाँ और मिलाये ।
८. पञ्चमुखम् - दोनो अँगूठे और मिलाये ।
९. षण्मुखम् - हाथ वैसे ही रखते हुए दोनो कनिष्ठिकाओंको खोले ।
१०. अधोमुखम् - उलटे हाथोंकी अँगुलियोंको मोड़े तथा मिलाकर नीचेकी ओर करे ।
११. व्यापकाञ्जलिकम् - वैसे ही मिले हुए हाथोंको शरीरकी ओर घुमाकर सीधा करे ।
१२.शकटम् - दोनो हाथोंको उलटाकर अँगूठेसे अँगूठा मिलाकर तर्जनियोंको सीधा रखते हुए मुट्ठी बाँधे ।
१३. यमपाशम् - तर्जनीसे तर्जनी बाँधकर दोनो मुट्ठियाँ बाँधे ।
१४. ग्रथितम् - दोनो हाथोंकी अँगुलियोंको परस्पर गूँथे ।
१५. उन्मुखोन्मुखम् - हाथोंकी पाँचो अँगुलियोंको मिलाकर प्रथम बायेंपर दाहिना, फिर दाहिनेपर बायाँ हाथ रखे ।
१६. प्रलम्बम् - अँगुलियोंको कुछ मोड़ दोनो हाथोंको उलटाकर नीचेकी ओर करे ।
१७. मुष्टिकम् - दोनों अँगूठे ऊपर रखते हुए दोनों मुट्ठियाँ बाँधकर मिलाये ।
१८. मत्स्यः - दाहिने हाथकी पीठपर बायाँ हाथ उलटा रखकर दोनो अँगूठे हिलाये ।
१९. कूर्मः - सीधे बाये हाथकी मध्यमा, अनामिका तथा कनिष्ठिकाको मोड़कर उलटे दाहिने हाथकी मध्यमा, अनामिकाको उन तीनों अँगुलियोंके नीचे रखकर तर्जनीपर दाहिनी कनिष्ठिका और बायें अँगूठेपर दाहिनी तर्जनी रखे ।
२०. वराहकम् - दाहिनी तर्जनीको बाये अँगूठेसे मिला, दोनो हाथोंकी अँगुलियोंको परस्पर बाँधे ।
२१. सिंहाक्रान्तम् - दोनो हाथोंको कानोंके समीप करे ।
२२. महाक्रान्तम् - दोनो हाथोंकी अँगुलियोंको कानोंके समीप करे ।
२३. मुद्गरम् - मुट्ठी बाँध, दाहिनी कुहनी बायी हथेलीपर रखे ।
२४. पल्लवम् - दाहिने हाथकी अँगुलियोंको मुखमे सम्मुख हिलाये ।
गायत्री-मन्त्रका विनियोग - इसके बाद गायत्री-मन्त्रके जपके लिये विनियोग पढ़े-
ॐकारस्य ब्रह्मा ऋषिर्गायत्री छन्दः परमात्मा देवता, ॐ भूर्भुव्ह स्वरिति महाव्याह्रतीनां परमेष्ठी प्रजापति-ऋषिर्गायत्र्युष्णिगनुष्टुभश्छन्दांसि अग्निवायुसूर्या देवताः, ॐ तत्सवितुरित्यस्य विश्वामित्रऋषिर्गायत्री छन्दः सविता देवता जपे विनियोगः ।
इसके पश्चात् गायत्री-मन्त्रका १०८ बार जप करे । १०८ बार जप करे । १०८ बार न हो सके तो कम-से कम १० बार अवश्य जप किया जाय । संध्यामे गायत्री मन्त्रका करमालापर जप अच्छा माना जाता है, गायत्री मन्त्रका २४ लक्ष जप करनेसे एक पुरश्चरण होता है । जपके लिये सब मालाओमें रुद्राक्षकी माला श्रेष्ठ है ।
शक्तिमन्त्र जपनेकी करमाला - चित्र संख्या १ के अनुसार अङ्क एकसे आरम्भकर दस अङ्कतक अँगूठेसे जप करनेसे एक करमाल होती है (दे० भा० ११।१९।१९) तर्जनीका मध्य तथा अग्रपर्व सुमेरु है । इस प्रकार दस करमला जप करनेसे जप-संख्या एक सौ हो जायगी, पश्चात चित्र-संख्या २ के अनुसार अङ्क १ असे आरम्भ कर अङ्क ८ तक जप करनेसे १०८ की एक माला होती है ।