पितृव्रत
( कर्मकाण्डमार्गप्रदीप ) -
शास्त्रोंमें मनुष्योंके लिये देव - ऋण, ऋषि - ॠण और पितृ - ॠण - ये तीन ॠण बतलाये गये हैं । इनमें श्राद्धके द्वारा पितृ - ॠणका उतारना आवश्यक है; क्योंकि जिन माता - पिताने हमारी आयु, आरोग्य और सुख - सौभाग्यादिकी अभिवृद्धिके लिये अनेक यत्न या प्रयास किये उनके ॠणसे मुक्त न होनेपर हमारा जन्मग्रहण करना केवल वर्षभरमें उनकी मृत्यु - तिथिको सर्वसुलभ जल, तिल, यव, कुश और पुष्प आदिसे उनका श्राद्ध सम्पन्न करने और गोग्रास देकर एक या तीन, पाँच आदि ब्राह्मणोंको भोजन करा देनेमात्रसे ॠण उतर जाता है; अतः इस जिस मासकी जिस तिथिको माता - पिता आदिकी मृत्यु हुई हो उस तिथिको श्राद्धादि करनेके सिवा, आश्विन कृष्ण ( महालय ) पक्षमें भी उसी तिथिको श्राद्ध - तर्पण - गोग्रास और ब्राह्मण - भोजनादि करना - कराना आवश्यक है; इससे पितृगण प्रसन्न होते हैं और हमारा सौभाग्य बढ़ता है । पुत्रको चाहिये कि वह माता - पिताकी मरण - तिथिको मध्याह्नकालमें पुनः स्त्रान करके श्राद्धादि करे और ब्राह्मणोंको भोजन कराके स्वयं भोजन करे । जिस स्त्रीके कोई पुत्र न हो, वह स्वयं भी अपने पतिका श्राद्ध उसकी मृत्यु - तिथिको कर सकती है । भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमासे प्रारम्भ करके आश्विन कृष्ण अमावस्यातक चाहिये । इस प्रकार करनेसे ' पितृव्रत ' यथोचितरुपमें पूर्ण होता है ।