जय धुनि गान निसान सुर बरषत सुरतरु फूल ।
भए राम राजा अवध, सगुन सुमंगल मूल ॥१॥
देवता जय- जयकार एवं मंगलगान करते, दुन्दुभि बजाते कल्पवृक्षके पुष्पोकी वर्षा कर रहे हैं, श्रीराम अयोध्या-नरेश हो गये । यह शकुन श्रेष्ठ मंगलोंकी जड़ है ॥१॥
भालु बिभीषन कीसपति पूजे सहित समाज ।
भली भाँति सनमानि सब बिदा किए रघुराज ॥२॥
श्रीरघुनाथजीने ऋक्षराज जाम्बवन्त, विभीषण तथा वानरराज सुग्रीवका उनके समाजके साथ सत्कार किया, फिर भलीभाँति उन सबको आदरपूर्वक बिदा किया ॥२॥
( प्रश्न-फल शुभ है । )
राम राज संतोष सुख घर बन सकल सुपास ।
तरु सुरतरु सुरधेनु महि अभिमत भोग बिलास ॥३॥
श्रीरामके राज्यमें ( सर्वत्र ) सुख-सन्तोष है, घरमें तथा वनमें ( सब कहीं ) सब प्रकारकी सुविधा है । वृक्ष कल्पवृक्षके समान और पृथ्वी कामधेनुके समान मन चाहा भोग-विलास देती है ॥३॥
( प्रश्न-फल श्रेष्ठ है । )
राम राज सब काम कहँ, नीक एकही आँक ।
सकल सगुन मंगल कुसल, होइहि बारु न बाँक ॥४॥
श्रीरामका राज्य सब कार्योके लिये निस्सन्देहरूपसे भला है । यह शकुन सब प्रकार कुशल-मंगल करनेवाले है, बाल भी बाँका नहीं होगा । ( कोई हानि नहीं होगा । ) ॥४॥
कुंभकरन रावन सरिस मेघनाद से बीर ।
ढहे समूल बिसाल तरु काल नदी के तीर ॥५॥
कुंभकर्ण, रावण तथा मेघनाद-जैसे वीर नदी-किनारेके विशाल वृक्षके समान कालके वेगमें जड़के साथ गिर गये ॥५॥ ( प्रश्न-फल अशुभ है । )
सकुल सदल रावन सरिस कवलित काल कराल ।
पोच सोच असगुन असुभ, जाय जीव जंजाल ॥६॥
रावणके समान वीरको कुल तथा सेनाके साथ भयंकर कालने अपना ग्रास बना लिया ( खा लिया ) । यह अपशकुन अशुभ है, हीनता प्राप्त होगो, चिन्ता होगी और संकटमें पड़कर प्राण जायँगे ॥६॥
अबिचल राज बिभीषनहि दीन्ह राज रघुराज ।
अजहुँ बिराजत लंक पुर तुलसी सहित समाज ॥७॥
महाराज श्रीरघुनाथजीने विभीषणको अविचल (सुस्थिर ) राज्य दिया । तुलसीदासजी कहते हैं कि वे अब भी अपने समाजके साथ लंकापुरीमें विराजमान हैं ॥७॥
( प्रश्न-फल शुभ है । )