कुलशेखर आळवार

भक्तो और महात्माओंके चरित्र मनन करनेसे हृदयमे पवित्र भावोंकी स्फूर्ति होती है ।


कोल्लिनगर ( केरल ) के राजा दृढ़वत बड़े धर्मात्मा थे, किंतु उनके कोई सन्तान न थी । उन्होंने पुत्रके लिये तप किया और भगवान् नारायणकी कृपासे द्वादशीके दिन पुनर्वसु नक्षत्रमें उनके घर एक तेजस्वी बालकने जन्म लिया । बाललका नाम कुलशेखर रक्खा गया । ये भगवानकी कौस्तुभमणिका अवतार माने जाते हैं । राजाने कुलशेखरको विद्या, ज्ञान और भक्तिके वातावरणमें संबर्धित किया । कुछ ही दिनोंमें कुलशेखर तमिळ और संस्कृत भाषामें पारङ्गत हो गये और इन दोनों प्राचीन भाषाओके सभी धार्मिक ग्रन्थोंका उन्होंने आलोडन कर डाला । उन्होंने वेद - वेदान्तका अध्ययन किया और चौसठ कलाओंका ज्ञान प्राप्त किया । यही नहीं, वे राजनीति, युद्धविद्या, धनुर्वेद, आयुर्वेद, गान्धर्वबेद तथा नृत्यकलामें भी प्रवीण हो गये । जब राजाने देखा कि कुलशेखर सब प्रकारसे राज्यका भार उठानेमें समर्थ हो गया है, तब कुलशेखरको राज्य देकर वे स्वयं मोक्षमार्गमें लग गये । कुलशेखरने अपने देशमें रामराज्यकी पुनः स्थापना की । प्रत्येक गृहस्थको अपने - अपने वर्ण और आश्रमके अनुसार शिक्षा देनेका समुचित प्रबन्ध किया । उन्होंने व्यवसायों तथा उद्योगधन्धोंको सुव्यवस्थित रुप देकर प्रजाके दारिद्रयको दूर किया । अपने राज्यको धन, ज्ञान और सन्तोषकी दृष्टिसे एक प्रकारसे स्वर्ग ही बना दिया । यद्यपि वे हाथमें राजदण्ड धारण करते थे, उनके हदयने भगवान् विष्णुके चरण - कमलोंको दृढ़तापूर्वक पकड़ रक्खा था । उनका शरीर यद्यपि सिंहासनपर बैठता था, हदय भगवान् श्रीरामका सिंहासन बन गया था । राजा होनेपर भी उनकी विषयोंमें तनिक भी प्रीति नहीं थी । वे सदा यही सोचा करते ' वह दिन कब होगा, जब ये नेत्र भगवानके त्रिभुवनसुन्दर मङ्गलविग्रहका दर्शन पाकर कृतार्थ होंगे ? मेरा मस्तक भगवान् श्रीरङ्गनाथके चरणोंके सामने कब झुकेगा ? मेरा हदय भगवान् पुण्डरीकाक्षके मुखारविन्दको देखकर कब द्रवित होगा, जिनकी इन्द्रादि देवता सदा स्तुति करते रहते हैं ? ये नेत्र किस कामके हैं, यदि इन्हें भगवान् श्रीरङ्गनाथ और उनके भक्तोंके दर्शन नहीं प्राप्त होते ? मुझे उन प्यारे भक्तोंकी चरण - धूलि कब प्राप्त होगी ? वास्तवमें ' बुद्धिमान् ' वे ही हैं, जो भगवान् नारायणके पीछे पागल हुए धूमते हैं, और जो उनके चरणोंको भुलाकर संसारके विषयोंमें फँसे रहते हैं, वे ही ' पागल ' हैं ।'

भक्तकी सच्ची पुकार भगवान् अवश्य सुनते हैं । एक दिन रात्रिके समय भगवान् नारायण अपने दिव्य विग्रहमें भक्त कुलशेखरके सामने प्रकट हुए । कुलशेखर उनका दर्शन प्राप्तकर शरीरकी सुध - बुध भूल गये, उसी समयसे उनका एक प्रकारसे कायापलट ही हो गया । वे सदा भगद्भावमें लीन रहने लगे । भगवद्भक्तिके रसके सामने राज्यसुख उन्हें फीका लगने लगा । वे अपने मनमें सोचने लगे -- ' मुझे इन संसारी लोगोंसे क्या काम है, जो इस मिथ्या प्रपञ्चको सत्य माने बैठे हैं । मुझे तो भगवान् विष्णुके प्रेममें डूब जाना चाहिये । ये संसारी जीव कामदेवके बाणोंके शिकार होकर नाना प्रकारके भोगोंके पीछे भटकते रहते हैं । मुझे केवल भक्तोंका ही सङ्ग करना चाहिये । सांसारिक भोगोंकी तो बात ही क्या, स्वर्गका सुख भी मेरे लिये तुच्छ है ।' ऐसा निश्चय करके वे अपना सारा समय सत्सङ्ग, कीर्तन, भजन, ध्यान और भगवानके अलौकिक चरित्रोंके श्रवणमें ही व्यतीत करने लगे । उनके इष्टदेव श्रीराम थे और वे दास्यभावसे उनकी उपासना करते थे ।

एक दिन वे बड़े प्रेमके साथ श्रीरामायणकी कथा सुन रहे थे । प्रसङ्ग यह था कि भगवान् श्रीराम सीताजीकी रक्षाके लिये लक्ष्मणको नियुक्तकर स्वयं अकेले खर - दूषणकी विपुल सेनासे युद्ध करनेके लिये उनके सामने जा रहे हैं । पण्डितजी कह रहे थे --

चतुर्दशसहस्राणि रक्षसां भीमकर्मणाम् ।

एकश्च रामो धर्मात्मा कथं युद्धो भविष्यति ॥

अर्थात् धर्मात्मा श्रीराम अकेले चौदह हजार राक्षसोंसे युद्ध करने जा रहे हैं, इस युद्धका परिणाम क्या होगा ?

कुलशेखर कथा सुननेमें इतने तन्मय हो रहे थे कि उन्हें यह बात भूल गयी कि यहाँ रामायणकी कथा हो रही हैं । साथ अकेले युद्ध करने जा रहे हैं ।' यह बात उन्हें कैसे सद्य होती, वे तुरंत कथामेसे उठ खड़े हुए । उन्होंने उसी समय शङ्ख बजाकर अपनी सारी सेना एकत्र कर ली और सेना नायकको आज्ञा दी कि ' चलो, हमलोग श्रीरामकी सहायताके लिये राक्षसोंसे युद्ध करने चलें ।' ज्यों ही वे वहाँसे जानेके लिये तैयार हुए, उन्होंने पण्डितजीके मुँहसे सुना कि ' श्रीरामने अकेले ही खर - दूषणसहित सारी राक्षससेनाका संहार कर दिया ।' तब कुलशेखरको शान्ति मिली और उन्होंने सेनाको लौट जानेका आदेश दिया ।

भक्तिका मार्ग भी बाधाओंसे शुन्य नहीं है । मन्त्रियों और दरबारियोंने जब यह देखा कि महाराज राजकाजको भुलाकर रात - दिन भक्तिरसमें डूबे रहते हैं और उनके महलोंमें चौबीसों घंटे भक्तोंका जमाव रहता है, तब उन्हें यह बात अच्छी नहीं लगी । उन्होंने सोचा -- ' कोई ऐसा उपाय रचना चाहिये, जिससे राजाका इन भक्तोंकी ओरसे मन फिर जाय ।' परंतु यह कब सम्भव था । एक दिनकी बात है, राज्यके रत्नभंडारसे एक बहुमूल्य हीरा गुम हो गया । दरबारियोंने कहा -- ' हो - न - हो, यह काम उन भक्तनामधारी धूतोंका ही बातको प्रमाणित कर सकता हूँ कि ' वैष्णव भक्त इस प्रकारका आचरण कभी नहीं कर सकते ।' उन्होंने उसी समय अपने नौकरोंसे कहकर एक बर्तनमें बंद कराकर एक विषधर सर्पे मँगवाया और कहा -- ' जिस किसीको हमारे वैष्णव भक्तोंके प्रति सन्देह हो, वह इस बर्तनमें हाथ डाले, यदि उसका अभियोग सत्य होगा तो साँप उसे काट नहीं सकेगा ।' उन्होंने यह भी कहा -- ' मेरी दृष्टिमें वैष्णव भक्त बिल्कुल निरपराध हैं । किंतु यदि वे अपराधी हैं तो सबसे पहले इस बर्तनमें मैं हाथ डालता हूँ । यदि ये लोग दोषी नहीं हैं तो साँप मेरा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता ।' यों कहकर उन्होंने अपना हाथ झट उस बर्तनके अंदर डाल दिया और लोगोंने आश्चर्यके साथ देखा कि साँप अपने स्थानसे हिला भी नहीं, वह मन्त्रमुग्धकी भाँति ज्यों - का - त्यों बैठा रहा । दरबारीलोग इस बातपर बड़े लज्जित हुए और अन्तमें वह हीरा भी मिल गया । इधर कुलशेखर तीर्थयात्राके लिये निकल पड़े और अपनी भक्तमण्डलीके साथ भजन - कीर्तन करते हुए भिन्न - भिन्न तीर्थोंमें घूमने लगे ।

वे कई वर्षोतक श्रीरङ्गक्षेत्रमें रहे । उन्होंने वहाँ रहकर ' भुकुन्दमाला ' नामक संस्कृतका एक बहुत सुन्दर स्तोत्र - ग्रन्थ रचा, जिसका, संस्कृत जाननेवाले अब भी बड़ा आदर करते हैं । इसके बाद ये तिरुपतिमें रहने लगे और वहाँ रहकर इन्होंने बड़े सुन्दर भक्तिरससे भरे हुए पदोंकी रचना की । उनके कुछ पदोंका भाव नीचे दिया जाता है । वे कहते हैं --

' मुझे न धन चाहिये, न शरीरका सुख चाहिये; न मुझे राज्यकी कामना है, न मैं इन्द्रका पद चाहता हूँ और न मुझे सार्वभौमपद चाहिये । मेरी तो केवल यही अभिलाषा है कि मैं तुम्हारे मन्दिरकी एक सीढ़ी बनकर रहूँ, जिससे तुम्हारे भक्तोंके चरण बार - बार मेरे मस्तकपर पड़ें । अथवा प्रभो ! जिस रास्तेसे भक्तलोग तुम्हारे श्रीविग्रहका दर्शन करनेके लिये प्रतिदिन जाया करते हैं, उस मार्गका मुझे एक छोटा - सा रजःकण ही बना दो, अथवा जिस नलीसे तुम्हारे बगीचेके वृक्षोंकी सिंचाई होती है, उस नलीका जल ही बना दो अथवा अपने बगीचेका एक चम्पाका पेड़ ही बना दो, जिससे मैं अपने फूलोंके द्वारा तुम्हारी नित्य पूजा कर सकूँ, अथवा मुझे अपने यहाँके सरोवरका एक छोटा - सा जलजन्तु ही बना दो ।'

इन्होंने मथुरा, वृन्दावन, अयोध्या आदि कई उत्तरके तीथोंकी भी यात्रा की थी और श्रीकृष्ण तथा श्रीरामनकी लीलाओंपर भी कई पद रचे थे । इनके सबसे उत्तम पद अनन्य शरणागतिपरक हैं, जिनमेंसे कुलका भाव नीचे दिया जाता है ।

वे कहते हैं --

' यदि माता खीझकर बच्चेको अपनी गोदसे उतार भी देती है तो भी बच्चा उसीमें अपनी लौ लगाये रहता है और उसीको याद करके रोता - चिल्लाता और छटपटाता है । उसी प्रकार हे नाथ ! तुम चाहे मेरी कितनी ही उपेक्षा करो और मेरे दुःखोंकी ओर ध्यान न दो, तो भी मैं तुम्हारे चरणोंको छोड़कर और कहीं नहीं जा सकता, तुम्हारे चरणोंके सिवा मेरे लिये कोई दूसरी गति ही नही है । यदि पति अपनी पतिव्रता स्त्रीका सबके सामने तिरस्कार भी करे, तो भी वह उसका परित्याग नहीं कर सकती । इसी प्रकार चाहे तुम मुझे कितना ही दुतकारो, मैं तुम्हारे अभय चरणोंको छोड़कर अन्यत्र कहीं जानेकी बात भी नहीं सोच सकता । तुम चाहे मेरी ओर आँख उठाकर भी न देखो, मुझे तो केवल तुम्हारा और तुम्हारी कृपाका ही अवलम्बन है, उसे त्रिभुवनकी सम्पत्तिसे कोई मतलब नहीं ।'

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Last Updated : April 28, 2009

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