ब्रह्माक्षरमजं नित्यं यथासौ पुरुषोत्तमः ।
तथा रागादयो दोषाः प्रयान्तु प्रशमं मम ॥
( ब्रह्मपुराण १७८।११७ )
जैसे भगवान् पुरुषोत्तम सर्वव्यापक, निर्विकार, अजन्मा एवं नित्य हैं, वैसे ही ( उनके स्मरणसे ) मेरे रागादि दोष शान्त हो जायँ ।'
मन बड़ा ही प्रबल है । जन्म - जन्मसे वासनाओंके संस्कार चित्तमें दबे पड़े हैं । कब कौन - सा दोष, कौन - सी वासना भड़क उठेगी - इसका कुछ ठिकाना नहीं है । तो दोष अपनेमें ढूँढ़नेसे भी नहीं जान पड़ते, वे ही समय पाकर इस प्रकार उभड़ पडते हैं कि मनुष्य उनका दास - सा बन जाता है । सारे संयम, सब विचार धरे रह जति हैं । अपने बलपर जो संयम करना चाहता है, उसके संयमका भवन पानीपर खड़ा है । धर्मके स्वामी तो अच्युत हैं । भगवानके भरोसे, उन्हींकी कृपाके सहारे धर्म एक संयम जब चलते हैं, तभी वे सुदृढ़ होते हैं । भगवानपर विश्वास होना ही धर्मका प्राण है । जहाँ प्राण नहीं है, वहाँ सामाजिक सदाचारके रुपमें संयम, सत्य आदि हों भी तो वे मृत हैं । वे कब नष्ट हो जायँगे, इसका कुछ ठिकाना नहीं ।
प्राचीन कालमें कण्डु नामक एक मुनि गोमती नदीचे तीरपर एकान्त स्थानमें तपस्या करते थे । उनका तपोवन फूलो - फलोंसे भरे वृक्ष - लताओंसे बड़ा ही सुहावना था । वहाँ वे मुनि व्रत, उपवास, मौन आदि नियम - संयमका पालन करते हुए कठोर तपमें लगे रहते थे । गरमीमें वे पञ्चाग्नि तापते, वर्षामें खुले स्थानमें भूमिपर पड़े रहते, जाड़ोंमें भीगा वस्त्र पहनते या जलमें खड़े रहते । मुनिका तप देखकर देवराज इन्द्र डर गये । उन्होंने तपमें विघ्न डालनेके लिये प्रम्लोचा नामकी अप्सराको कामादिके साथ भेजा । मुनिके आश्रममें आकर वह अप्सरा उनके सामने नाचने - गाने और उन्हें लुभाने लगी । कामदेवने मुनिके मनमें क्षोभ उत्पन्न कर दिया । मुनि अबतक अपने तपके ही बलपर रहनेवाले थे, भगवानका आश्रय था नहीं; वे उस अप्सराके वशमें हो गये । कामवश हो प्रम्लोचाको उन्होंने आश्रममें रख लिया और तपोबलसे स्वयं सोलह वर्षके युवक बनकर उसके साथ रहने लगे । वे अप्सरामें आसक्त हो गये थे । उनके स्नान, अन्ध्या, हवन, तर्पण, व्रत, नियम, उपवास - सब छूट गये । इस प्रकार एकान्तमें स्त्रीका साथ बड़े - बड़े तपस्वियोंके लिये भी पतनका कारण होता है । आजकल अमर्यादितरुपसे स्त्री - पुरुषोंके मिलने तथा वयस्क लड़के - लड़कियोंके साथ पढ़नेपर जोर देनेवाले भाई नहीं समझना चाहते कि इससे कितने अनर्थ होगे । साधकको तो एकान्तमें किसी भी पर - स्त्रीके साथ कुछ देर भी रहना, उससे बात करना सर्वथा त्याग देना चाहिये - वह स्त्री चाहे कोई भी हो और उससे अपना कोई भी सम्बन्ध क्यों न हो ।
कण्डु मुनि कामवश उस अप्सरामें इतने आसक्त हो गये कि उन्हें रात - दिन, पक्ष - मास तो क्या, वर्षोंका भी कुछ पता नहीं चलता था । इस प्रकार सौ वर्ष बीत जानेपर अप्सराने स्वर्ग जानेकी इच्छा की । मुनिने उसे कुछ दिन और ठहरनेको कहा । सौ वर्ष और बीतनेपर प्रम्लोचाने फिर आज्ञा माँगी, तब भी ऋषिने उसे कुछ दिन ठहरनेको कहा । इसी प्रकार शताब्दियाँ बीतती चली गयीं । मुनि आज्ञा देते नहीं थे और उनके शापके भयसे अप्सरा जा नहीं पाती थी । एक दिन पूर्वकृत पुण्योंके प्रभावसे मुनिको कुछ चेत हुआ । वे शीघ्रतापूर्वक कुटियासे बाहर जाने लगे । अप्सराने पूछा - ' आप कहाँ जा रहे हैं ?' उन्होंने बताया - ' सूर्यास्त हो रहा है, सन्ध्या करनी है । अन्यथा कर्मका लोप हो जायगा ।' अप्सराने हाथ जोड़कर नम्रतापूर्वक कह -- ' भगवन् ! आज क्या नया सूर्यास्त हो रहा है ? वह तो नित्य ही होता है । कितना समय बीत गया, आपने किसी और दिन तो सन्ध्या की नहीं ।'
मुनिको आश्चर्य हुआ । उन्होंने कहा - ' तुम यह क्या कह रही हो ? आज सबेरे ही तो तुम आयी हो ?' अप्सरा ने बताया -- ' भगवन् ! यह तो ठीक है कि मैं जब आयी, तब प्रातःकालका ही समय था; किंतु उसे तो नौ सौ सात वर्ष, छः महीने, तीन दिन बीत चुके ।'
मुनिको विश्वास ही नहीं होता था । अप्सराने समझाया - ' आपके सम्मुख झूठ बोलनेका भला, कौन साहस करेगा । फिर जब आप आज सत्पथपर पुनः आरुढ़ हो रहे हैं, तब मैं इस समय आपसे झूठ कैसे बोल सकती हूँ ।' प्रम्लोचाकी बात सुनकर मुनिको बड़ा दुःख हुआ । वे बोले ' पापिनि ! तूने बहुत बुरा किया । तूने मेरे तपका नाश कर दिया । मैं तुझे शाप दे सकता हूँ; पर सत्पुरुष जिसके साथ सात पग भी चल लेते हैं, उसे अपना मित्र मान लेते हैं । मैं तो इतने दिन तेरे साथ रहा । तेरा दोष भी क्या है । मैं ही इन्द्रियोंका दास हूँ । मुझे धिक्कार है । मेरा मन मेरे वशमें नहीं । विषयलोलुपतामें फँसकर मैंने स्वयं अपना सर्वनाश किया है । अब तू यहाँसे शीघ्र चली जा ।' प्रम्लोचा प्राण बचाकर भाग गयी । वह गर्भवती थी । उसके गर्भसे कन्या उत्पन्न हुई, जिसका नाम मारिषा हुआ । यही मारिषा दक्षप्रजापतिकी जननी हुई ।
तपोभ्रष्ट होनेसे कण्डु मुनिको बड़ा पश्चात्ताप हुआ । वे बहुत ही दुखी हुए । उस स्थानको छोड़कर वे श्रीजगन्नाथ - धाम चले आये । उन पुण्यात्माके पूर्वकृत पुण्योंका उदय हुआ । पश्चात्तापसे व्याकुल होकर उन्होंने भगवानकी शरण ग्रहण की । वे श्रीपुरुषोत्तमका ध्यान करते हुए, कठोर नियम - व्रतोंका पालन करते तथा श्रद्धाके साथ एकाग्र मनसे उन करुणावरुणालय प्रभुकी ही स्तुति किया करते थे । भगवानमें लगते ही मुनिका मन निर्मल हो गया । उसमें भगवानके दर्शनकी प्रबल उत्कण्ठा जाग गयी । उनके प्राण भगवानकी भुवनमोहन छविका दर्शन पानेके लिये तड़पने लगे । मुनिकी भक्ति एवं उत्कण्ठा देखकर भगवान् उनके सम्मुख प्रकट हो गये ।
अलसीके फूलके समान रङ्गवाले, परम सुन्दर सुकुमार ज्योतिर्मय श्रीअङ्गपर पीताम्बर पहने, शङ्ख - चक्र - गदा - पद्म धारण किये, वक्षपर श्रीवत्सके चिह्न तथा वनमालासे भूपित त्रिभुवनसुन्दर भगवानको मुनिने अपने सामने ही देखा । भगवानने उनसे कहा - ' सुव्रत ! तुम क्या चाहते हो ? तुमको जो कुछ भी माँगना हो, माँग लो ।'
कण्डु मुनि प्रभुके चरणोंपर गिर पड़े । उनके मुखसे निकला - ' आज मेरा जन्म सफल हो गया ।' उन्होंने भगवानकी पूजा की और फिर भगवानके गुण, प्रभाव आदिका वर्णन करते हुए स्तुति की ।
भगवानके पुनः वरदान माँगनेको कहनेपर मुनिने कहा - ' प्रभो ! यह संसार बड़ा ही दुस्तर सागर है । है तो यह अनित्य, दुःखमय तथा केलेके पेड़के समान सारहीन । यह मायासे ही दीखता है, जलके बुलबुलेके समान क्षणभंगुर है; फिर भी इसमें महान् उपद्रव हैं । यह भयानक है, कष्टही कष्ट हैं इसमें । आपकी मायासे मैं इसमें मोहित होकर अनादिकालसे चक्कर लगा रहा हूँ । मैं इतने लंबे समयसे इसमें डूबा रहा, फिर भी इसका अन्त नहीं मिला । अब मैं इससे भयभीत होकर आपकी शरण आया हूँ । देवदेवेश ! गोविन्द ! आप मुझपर कृपा करें । मुझे इस संसार - सागरसे सदाके लिये पार कर दें ।'
भगवानने कहा - ' मुनि ! तुम्हें अवश्य मोक्ष प्राप्त होगा । स्त्री या पुरुष - किसी वर्णका कोई भी मनुष्य हो, जो कोई मेरी शरण आता है, जो भी मेरी भक्ति करता है, वह अवश्य मुझे प्राप्त कर लेता है ।' भक्तवत्सल श्रीहरि मुनिको वरदान देकर अन्तर्हित हो गये । कण्डु मुनिने भी समस्त कामनाओंको त्यागकर, ममता तथा अहंकारको छोड़कर, इन्द्रियोंको भलीभाँति संयत करके, मनको भगवानमें लगा दिया और वे देवदुर्लभ परम पदको प्राप्त हुए ।