भरत राजा

भक्तो और महात्माओंके चरित्र मनन करनेसे हृदयमे पवित्र भावोंकी स्फूर्ति होती है ।


परम भगवद्भक्त राजर्षि भरत भगवान् ऋप्रभदेवके सौ पुत्रोंमें सबसे बड़े थे । इन्होंने पिताकी आज्ञासे राज्यभार स्वीकारकर विश्वरुपकी पञ्चजनी नामकी कन्याके साथ विवाह किया और उसके द्वारा पाँच पुत्र उत्पन्न किये । हमारा वह भारतवर्ष, जो पहले अजनाभखण्डके नामसे प्रसिद्ध था, इन्हीं महानुभावके नामपर भरतखण्ड अथवा ' भारतवर्ष ' कहलाया । ये सब शास्त्रोंके मर्मको जाननेवाले और धर्मके अनुकूल बर्ताव करनेवाले थे और पिताके समान प्रजाका पालन करते थे । इन्होंने यज्ञक्रतुरुप भगवानका समय - समयपर अपने अधिकारके अनुसार अग्निहोत्र, दर्श, पौर्णमास, चातुर्मास्य, सोमयाग प्रभृति छोटे - बड़े यज्ञोके द्वारा श्रद्धापूर्वक आराधन किया । ये यज्ञसे उत्पन्न होनेवाले धर्मनामक अपूर्व कर्मफलकी सर्वान्तर्यामी, परमदेव, यज्ञपुरुष भगवान् वासुदेवके अंदर भावना करते हुए अपनी कुशलतासे रागादि मलोंका क्षय करके यज्ञके भोक्ता सूर्यादि देवताओंको भी भगवान् वासुदेवके नेत्र आदि अवयवोंमें एकत्वरुपसे चिन्तन करने लगे । इस प्रकार कर्मकी पूर्णतासे शुद्धचित्त हुए भरतके हदयमें भगवान् वासुदेवके प्रति उत्तरोत्तर बढ़नेवाली विशुद्ध भक्ति उत्पन्न हुई । और उस भक्तियोगका आचरण करते उन्हें कई हजार वर्ष बीत गये । तदनन्तर वे अपने राज्यको पुत्रोंमें विभक्त कर घरको त्यागकर पुलह ऋषिके आश्रम हरिक्षेत्रको चले गये । वहाँ विद्याश्वर नासक कुण्डमें भक्तोंके ऊपर दया करनेवाले भगवान् अब भी वहाँ रहनेवाले अपने भक्तोंको स्वरुपसे सान्निध्यका सुख देते हैं और वहाँ गण्डकी नदी शालग्राम - शिलाके चक्रोंसे ऋषियोंके आश्रमोंको चारों ओरसे पवित्र करती है । उस क्षेत्रमें पुलहाश्रमकी पुष्पवाटिकामें रहते हुए राजर्षि भरत विषयवासनासे मुक्त होकर और अन्तःकरणको वशमें करके अनेक प्रकारके पत्र - पुष्प, तुलसीदल, जल, कन्द, मूल, फल आदि सामग्रियोंसे भगवानकी आराधना करने लगे । इस प्रकार निरन्तर भगवदाराधना करते - करते उनके हदयमें भगवत्प्रेमकी इतनी बाढ़ आ गयी कि फिर उनसे आराधना भी विधिपूर्वक नहीं हो पाती थी । वे भगवत्प्रेममें इतने मख हो जाते थे कि उन्हें क्या करना है, इस बातको भूल जाते थे और घंटो भावावेशमें मग्न रहते थे ।

एक दिन राजा भरत गण्डकी नदीमें स्नान - सन्ध्यादिक नित्य - नैमित्तिक कर्म करके प्रणवका जप करते हुए तीन घंटोतक नदीतीरपर बैठे रहे । इतनेमें वहाँ जल पीनेकी इच्छासे अपनी टोलीसे बिछुड़ी हुई एक हरिणी आयी । उसने ज्यों - ही जल पीना आरम्भ किया, त्यों - ही सिंहके दहाड़नेकी आवाज आयी । वह बेचारी मारे भयके जल पीना तो भूल गयी और उसने बड़े वेगसे नदीके उस पार छलाँग मारी । छलाँग मारते समय उसके गर्भाशयमेंसे बच्चा बाहर निकल पड़ा और नदीके प्रवाहमें गिर गया । हरिणीने बी एक गुफामें जाकर प्राण त्याग दिये । इस सारे दृश्यको देखकर भरतका कोमल हदय करुणासे भर गया । उन्होंने दयापरवश हो उस मातृहीन बच्चेको जलमेसे बाहर निकाल लिया और उसे अनाथ समझकर वे अपने आश्रममें ले आये । धीरे - धीरे उस बच्चेमें उनकी आसक्ति और ममता हो गयी । वे बड़े चावसे उसे खिलाते - पिलाते, हिंस्त्र जन्तुओंसे उसकी रक्षा करते, प्रेमसे उसे पुचकारते और उसके शरीरको खुजलाते तथा सहलाते । इस प्रकार धीरे - धीरे उनकी उस बच्चेमें आसक्ति बद्धमूल हो गयी और उसके पीछे उनका सारा कर्म - धर्म छूट गया । वे रात - दिन उसीके लालन - पालनमें लगे रहते । उनकी आसक्ति कर्तव्यबुद्धिके रुपमें उनके सामने आकर उन्हें धोखा देने लगी । वे ' सोचते कि कालचक्रने ही इस बच्चेको अपने माता - पितासे छुड़ाकर मेरी शरणमें पहुँचाया है । अतः इस शरणागतकी सब प्रकारसे रक्षा करना मेरा धर्म हैं ।' एक दिन वह मृगशावक खेलता - खेलता आश्रमसे बहुत पूर निकल गया और लौटा नहीं । अब तो राजर्षि उसके वियोगमें बहुत व्याकुल हो गये और उसे याद कर - करके रोने लगे । उन्होंने सोचा कि उसे किसी हिंस्त्र पशुने मार तो नहीं डाला और इस अनिष्टाशङ्काने उनके हदयको व्यथित कर डाला । इस प्रकार उनके प्रारब्धने ही मानो हरिणके बच्चेका रुप धारणकर उन्हें योगमार्गसे और भगवदाराधनारुप कर्मसे भ्रष्ट कर दिया; अन्यथा जिस राजर्षिने अपने औरस पुत्रों - अपने हदयके टुकडों और अपनी पाणिगृहीता पत्नीका परित्याग कर दिया, उसकी एक पोसे हुए हरिणके बच्चेमें इतनी आसक्ति कैसे होती ! अस्तु,

एक दिन राजा उसी मृगशावककी चिन्तामें बैठे थे कि अकस्मात् उनका मृत्युकाल उपस्थित हो गया और उन्होंने उसी मृगछौनेका ध्यान करते हुए प्राण त्याग दिये । ' अन्ते मतिः सा गतिः' इस नियमके अनुसार उन्हें अगले जन्ममें हरिणका शरीर मिला, परंतु भगवदाराधनके प्रभावसे उनकी पूर्वजन्मकी स्मृति नष्ट नहीं हुई । उन्होंने सोचा ' अरे, मैंने यह क्या किया । एक हरिणके मोहमें दुर्लभ मनुष्य - जन्मको व्यर्थ हो खो दिया ।' अब तो वे पूर्णतया सावधान हो गये । वे अपने परिवारको छोड़कर उसी पुलहाश्रममें चले आये और वहाँ सब प्रकारका सङ्ग त्यागकर मुनिकी भाँति अकेले ही बिचरते और मृत्युकी बाट देखते रहे । जब मरणकाल निकट आया, तब उन्होंने गण्डकी नदीमें स्नानकर उस मृगशरीरको त्याग दिया । उन्हें तीसरे जन्ममें ब्राह्मणयोनि प्राप्त हुई । वहाँ वे जडभरत कहलाये और उसी शरीरसे वे मुक्त हो गये । जडभरतजीका चरित्र अन्यत्र दिया गया है ।

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Last Updated : April 28, 2009

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