महामोहु महिषेसु बिसाला । रामकथा कलिका कराला ॥
भगवानके मङ्गलमय चरितोंको सुननेसे त्रयतापसंतप्त प्राणीको शान्ति प्राप्त होती है । मायाके काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि विकार दूर होते हैं । हदय निर्मल होता है । इसीलिये संत - सत्पुरुष सदा भगवत्कथा कहने - सुननेमें ही लगे रहते हैं । श्रीहरिके नित्य दिव्य गुणोंमें जिनका हदय लग गया, उनको फिर संसारके सभी विषय फीके लगते हैं । उन्हें वैराग्य करना या जगाना नहीं पड़ता, अपने - आप उनका चित्त सभी लौकिक भोगोंसे विरक्त हो जाता है । आनन्दकन्द प्रभुके चरित भी आनन्दरुप ही हैं । उनकी सुधा - मधुरिमाका स्वाद एक बार मनको लगाना चाहिये, फिर तो वह अन्यत्र कहीं जाना ही नहीं चाहेगा ।
देवगुरु बृहस्पतिजीके भाई उतथ्यके पुत्र भरद्वाजजी श्रीरामकथा - श्रवणके अनन्य रसिक थे । ये ब्रह्मनिष्ठ, श्रोत्रिय, तपस्वी और भगवानके परम भक्त थे । तीर्थराज प्रयागमें गङ्गा - यमुनाके सङ्गमसे थोड़ी ही दूरपर भरद्वाजजीका आश्रम था । सहस्त्रों ब्रह्मचारी इनसे विद्याध्ययन करने आते और बहुत - से विरक्त साधक इनके समीप रहकर अपने अधिकारके अनुसार योग, उपासना, तत्त्वानुसंधान आ दि पारमार्थिक साधन करते हुए आत्मकल्याणकी प्राप्तिमें लगे रहते । भरद्वाजजीके दो पुत्रियाँ थीं, जिनमें एक महर्षि याज्ञवल्क्यजीको विवाही थी और दूसरी विश्रवा मुनिकी पत्नी हुई, जिसके पुत्र लोकपाल कुबेरजी हुए ।
भगवान् श्रीराममें भरद्वाजजीका अनन्य अनुराग था । जब श्रीराम वन जाने लगे, तब मुनिके आश्रममें प्रयागराजमें उन्होंने एक रात्रि निवास किया । मुनिने भगवानने उस समय अपने हदयकी निश्चित धारणा बतायी थी ---
करम वचन मन छाड़ि छलु जब लगि जनु न तुम्हार ।
तब लगि सुखु सपनेहुँ नहीं किए कोटि उपचार ॥
जब श्रीभरतलालजे प्रभुको लौटानेके उद्देश्यसे चित्रकूट जा रहे थे, तब वे भी एक रात्रि मुनिके आश्रममें रहे थे । अपने तपोबलसे, सिद्धियोंके प्रभावसे मुनिने अयोध्याके पूरे समाजका ऐसा अद्भुत आतिथ्य किया कि सब लोग चकित रह गये । जो भगवानके सच्चे भक्त हैं, उन्हें भगवानके भक्त भगवानसे भी अधिक प्रिय लगते हैं । किसी भगवद्भक्तका मिलन उन्हें प्रभुके मिलनसे भी अधिक सुखदायी होता है । भरद्वाजजीको भरतजीसे मिलकर ऐसा ही असीम आनन्द हुआ । उन्होंने कहा भी --
सुनहु भरत हम झूठ न कहहीं । उदासीन तापस बन रहहीं ॥
सब साधन कर सुफल सुहावा । लखन राम सिय दरसनु पावा ॥
तोहि फल कर फलु दरस तुम्हारा । सहित पयाग सुभाग हमारा ॥
जब श्रीरघुनाथजी लङ्काविजय करके लौटे, तब भी वे पुष्पक विमानसे उतरकर प्रयागमें भरद्वाजजीके पास गये । श्रीरामके साकेत पधारनेपर भरद्वाजजी उनके भुवनसुन्दर माघ महीनेमें प्रतिवर्ष ही प्रयागराजमें ऋषि - मुनिगण मकरस्नानके लिये एकत्र होते थे । एक बार जब माघभर रहकर सब मुनिगण जाने लगे, तब बड़ी श्रद्धासे प्रार्थना करके भरद्वाजने महर्षि याज्ञवल्क्यको रोक लिया और उनसे श्रीरामकथा सुनानेकी प्रार्थना की । याज्ञवल्क्यजीने प्रसन्न होकर श्रीरामचरितका वर्णन किया । इस प्रकार भरद्वाजजीकी कृपासे लोकमें श्रीरामचरितका मङ्गल - प्रवाह प्रवाहित हुआ ।